Vo Pandrah Din
उपन्यास- “वो पंद्रह दिन!”
रचनाकार की ओर से-
रिश्ते प्राकृतिक (रक्त सम्बन्धी), सामाजिक आधार पर या व्यक्तिगत सभी का आधार विश्वास और भरोसा होता है। किसी भी कारण से जब रिश्तों में विश्वास और भरोसा समाप्त हो जाता है तब रिश्तों में रिक्तता बढ़ती जाती है और वह अपनत्व के स्थान पर शत्रुता का कारण बनती है। मेरे द्वारा रचित यह कहानी लालच और क्रोध के कारण बनते बिगड़ते रिश्तों को विश्वास-अविश्वास तथा अपनत्व-शत्रुता के आधार पर परिभाषित करती है।
इस कहानी को पढ़ने में लगा आपका मूल्यवान समय आपके चिन्तन को नया आयाम देगा।
(प्रथम अध्याय)
मई की झुलसा देने वाली गर्मी
से दूर, देहरादून की एक शांत, हरी-भरी पहाड़ी की गोद में, जहाँ विशाल पेड़ों की घनी
झुरमुटें एक प्राकृतिक आवरण बनाती थीं और ठंडी, मखमली हवाएँ त्वचा को छूकर एक सुकून
भरी राहत दे रही थीं, वहाँ एक आधुनिक, लेकिन आरामदायक कॉफ़ी शॉप स्थित थी। इस 'हैंगआउट
कॉर्नर' के बड़े शीशे से पूरी घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई देता था - नीचे फैले शहर की
हलचल यहाँ तक आते-आते धीमी पड़ जाती थी, जैसे समय ने इस ऊंचाई पर आकर साँस लेने को
कुछ पल का विराम ले लिया हो। अंदर, हवा में ताज़ी पिसी हुई कॉफ़ी की मोहक खुशबू और
हल्की फुल्की पृष्ठभूमि संगीत का मधुर मिश्रण तैर रहा था, जो इस दोपहर को और भी खुशनुमा
बना रहा था।
इस शांत और सुरम्य माहौल में,
एक मेज़ पर धैर्य और अक्षरा एक-दूसरे के सामने बैठे थे, दुनिया से बेखबर। धैर्य ने
अपना हाथ अक्षरा के हाथ पर रखा हुआ था, उनकी उंगलियाँ आपस में गुंथी हुई थीं, जैसे
दो धागे एक होकर एक मजबूत गाँठ बना रहे हों। उनके चेहरों पर एक सहज, गहरी मुस्कान फैली
हुई थी और आँखों में एक-दूसरे के लिए असीम स्नेह और विश्वास की चमक साफ दिखाई दे रही
थी। यह चमक उनके पिछले दो सालों के अटूट साथ, साझा सपनों और एक-दूसरे में पाए गए सुकून
की कहानी बयां कर रही थी। उनके आसपास कॉफ़ी कपों की खनखनाहट और फुसफुसाती बातें चल
रही थीं, लेकिन उनके लिए उस पल में केवल वही दो लोग मौजूद थे।
अक्षरा ने धीरे से धैर्य के
हाथ पर अपनी उंगलियाँ फेरीं। उसकी आवाज़ में हल्की सी कंपकंपी थी, जो भावनाओं की गहराई
दर्शा रही थी। "धैर्य," उसने फुसफुसाया, उसकी आँखें अब भी उसकी आँखों में
डूबी थीं, "यहाँ बैठे हुए, तुम्हारे साथ... इस ठंडी हवा और कॉफ़ी की खुशबू के
बीच... कभी-कभी मुझे यकीन ही नहीं होता कि यह सच है। ऐसा लगता है जैसे मैं कोई बहुत
खूबसूरत सपना देख रही हूँ, जिससे मैं कभी जागना नहीं चाहती।"
धैर्य ने अक्षरा के हाथ को अपने
दोनों हाथों में थाम लिया, मानो इस पल की वास्तविकता को महसूस कर रहा हो। उसकी आँखों
में अथाह प्यार और दृढ़ता थी। "यह सपना नहीं है, मेरी अक्षरा," उसने नरमी
से कहा। उसकी आवाज़ में वो गहराई थी जो अक्षरा के दिल को छू जाती थी। "यह हकीकत
है। हमारे कॉलेज के वो दो साल... हाँ, वो किसी सुनहरे सपने से कम नहीं थे, हर पल तुम्हारे
साथ बिताना... क्लासरूम में तुम्हारी शरारती मुस्कान देखना, कैंटीन में तुम्हारी बातें
सुनना, लाइब्रेरी में एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराना...। लेकिन अब, यह जो पल है, यह
भी उतना ही सच्चा और अनमोल है।" उसने गहरी साँस ली, उसकी आँखों में भविष्य की
चमक आ गई। "हमारी पढ़ाई पूरी हो गई है। अब 'अगले कदम' का वक्त है, अक्षरा। हम
अब एक-दूसरे से दूर नहीं रह सकते, अक्षरा। एक दिन भी नहीं।" उसकी आवाज़ थोड़ी
और गंभीर हो गई। "हमें बात करनी होगी। अपने माता-पिता से। जल्द से जल्द।"
धैर्य के इस स्पष्ट कथन ने अक्षरा
के चेहरे पर छाई खुशी की हल्की परछाई पड़ गई। उसकी आँखों में एक पल के लिए अनिश्चितता
और थोड़ी घबराहट दिखी। उसने अपनी उंगली से कॉफ़ी कप के किनारे को सहलाया, जैसे शब्दों
को ढूंढ रही हो। "तुम्हारे पापा, धैर्य..." उसने धीमी, थोड़ी डरी हुई आवाज़
में कहा, "मुझे उनकी चिंता है। क्या वो सच में... मान जाएंगे? मैंने सुना है कि
वो बहुत... बहुत प्रभावशाली और अपने उसूलों के पक्के हैं। क्या वो... मुझे अपना पाएंगे?"
धैर्य ने उसका हाथ फिर से अपने
हाथ में लिया, इस बार और भी मजबूती से। उसकी पकड़ मज़बूत और आश्वस्त करने वाली थी,
जैसे कह रही हो 'मैं यहाँ हूँ'। "वे मेरे पापा हैं, अक्षरा," उसने दोहराया,
इस बार अधिक ज़ोर से, जैसे खुद को और उसे यकीन दिला रहा हो। "हाँ, वे थोड़े सख़्त
स्वभाव के हैं और उनके कुछ सिद्धांत हैं, वे अनुशासन पसंद करते हैं, लेकिन वे मुझे
बहुत प्यार करते हैं। और मेरी खुशी उनके लिए सबसे ज़्यादा मायने रखती है। उन्होंने
हमेशा चाहा है कि मैं खुश रहूँ।" उसने अक्षरा के चेहरे पर उड़ती चिंता को प्यार
से देखा। "मुझ पर भरोसा रखो, अक्षरा। मैं उन्हें मना लूँगा। हम उन्हें मना लेंगे।
मिलकर।" उसने अपना प्लान बताया। "देखो," उसने कहा, "पहले तुम अपने
घर पर बात करो। तुमने हमेशा बताया है कि तुम्हारे पापा कितने खुले विचारों वाले और
प्यारे हैं, तुम्हारी हर बात सुनते हैं। मुझे यकीन है, वे तुम्हें खुश देखकर ज़रूर
सहमत हो जाएंगे और तुम्हारा साथ देंगे। एक बार तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए, फिर मैं
बिना किसी झिझक के अपने पापा से बात करूँगा।"
धैर्य के विश्वास भरे शब्दों से अक्षरा का चेहरा फिर से खिल उठा। चिंता
की बदली छंट गई और उसकी आँखों में फिर से वही प्रेमिल चमक लौट आई, जो शुरू में थी।
उसने हल्का सिर हिलाया, उसकी उंगलियाँ धैर्य के हाथ पर और कस गईं। दोनों एक पल के लिए
फिर से एक-दूसरे की आँखों में खो गए, जहाँ भविष्य के सुनहरे परिदृश्य तैर रहे थे। वो
सिर्फ प्यार और खुशी की एक अमूर्त दुनिया का सपना नहीं था, बल्कि एक साथ बुने जाने
वाले एक वास्तविक जीवन का सपना था - जिसमें उनका अपना छोटा सा घर हो, सुबह की चाय साथ
में पीना हो, शाम को एक-दूसरे का हाथ पकड़कर घूमना हो, हर छोटी-बड़ी बात पर हँसना हो,
और जीवन की हर चुनौती का मिलकर सामना करने का अटूट विश्वास हो। कॉफ़ी की गर्म सुगंध
और ठंडी पहाड़ी हवा के बीच, उनके दिल भविष्य की अनिश्चितता के बावजूद, एक साथ होने
की कल्पना मात्र से एक असीम शांति और उत्साह से भर गए थे। यह शुरुआत थी, उनके सपनों
को हकीकत बनाने की दिशा में उठाया गया पहला कदम।
***
सदियों से इतिहास की परतें अपने
आंचल में समेटे हुए, दिल्ली एनसीआर की आधुनिकता से ज़्यादा दूर नहीं, मगर अपने भीतर
एक प्राचीन गौरव और शांति लिए हुए, मेरठ जनपद का एक छोटा सा कस्बा - परीक्षितगढ़। यह
वही भूमि है, जिसने कभी वीर अर्जुन के प्रतापी पुत्र राजा परीक्षित के शासन काल में
पाण्डवों के राज की गरिमा, शौर्य और भव्यता को अपनी आँखों से देखा था। यहाँ की हवा
में आज भी अतीत की कहानियाँ घुली हुई लगती हैं, जहाँ आधुनिक जीवन की तेज़ रफ़्तार थोड़ी
धीमी पड़ जाती है और परम्पराओं की जड़ें आज भी गहरी हैं।
आज रात, इसी ऐतिहासिक भूमि पर
बसे एक साधारण, मगर बेहद सुकून भरे घर में, एक विशेष रौनक थी। यह था ध्यानचंद जी का
घर। बाहरी दिखावे से दूर, अपनी सादगी और स्नेहिल माहौल के लिए जाना जाने वाला यह घर,
आज अपनी लाडली बेटी अक्षरा के दिल्ली से वापस लौटने से और भी ज़्यादा जीवंत हो उठा
था। घर के हर कोने में उसकी मौजूदगी की खुशबू थी - उसके कमरे से आती हल्की फुल्की आवाज़ें,
रसोई से आती माँ के हाथ के पकवानों की चिरपरिचित महक, और पूरे परिवार के चेहरों पर
छाई सहज प्रसन्नता।
डाइनिंग टेबल पर रात का भोजन
लगा था। घर के तीन सबसे महत्वपूर्ण सदस्य वहाँ बैठे थे - ध्यानचंद जी, जिनकी आँखों
में अनुभवी पिता की परिपक्वता और सहज स्नेह था; उनकी पत्नी सावित्री जी, जिनके चेहरे
पर माँ की ममता और संतुष्टि की आभा थी; और उनके बीच, उनकी आँखों का तारा, उनकी बेटी
अक्षरा। भोजन की गर्माहट और घर के माहौल में घुली आत्मीयता ने रात को और भी खुशनुमा
बना दिया था।
ध्यानचंद जी ने भोजन का पहला
कौर लेते हुए, अपनी नज़रों को अक्षरा के चेहरे पर टिकाया। उनकी आवाज़ में पिता का गर्व
और जिज्ञासा स्पष्ट थी। उन्होंने हल्के-फुल्के, हँसते हुए अंदाज़ में पूछा, "तो
हमारी दिल्ली वाली बिटिया रानी, सुनाओ... कैसा रहा तुम्हारा कॉलेज का अनुभव? बड़े शहर
का माहौल, वहाँ की पढ़ाई, लोग-बाग... सब कैसा था?"
अक्षरा का चेहरा तुरंत खुशी
से दमक उठा, जैसे वो अभी भी कॉलेज के दिनों की रंगीन दुनिया में ही जी रही हो। उसकी
आवाज़ में एक भोली चहक थी, जिसमें अपने अनुभव बांटने की उत्सुकता थी। "बहुत अच्छा
कॉलेज है पापा! सचमुच! मैंने सोचा भी नहीं था कि इतना सब देखने को मिलेगा।" उसने
कृतज्ञता से कहा, "थैंक यू सो मच पापा, आपने मुझे उस कॉलेज में पढ़ने भेजा। यह
मेरे लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। आप बहुत अच्छे हैं पापा।" फिर उसने थोड़ी
हैरानी और excitement से कहा, "जानते हैं पापा, उस कॉलेज में कितने बड़े-बड़े
घरों के बच्चे पढ़ते हैं! कितने अलग-अलग शहरों और देशों से लोग आते हैं! उनकी लाइफस्टाइल
बिल्कुल अलग होती है।"
अक्षरा की बात सुनकर ध्यानचंद
जी के चेहरे पर छाई हल्की मुस्कान धीरे-धीरे गंभीरता में बदल गई। उन्होंने अपनी बेटी
की बात ध्यान से सुनी और फिर शांत स्वर में जवाब दिया। "हाँ बेटा, यह तो है। सभी
माँ-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चों को अच्छी से अच्छी सुविधा मिले, उन्हें दुनिया देखने
का मौका मिले, उनका भविष्य उज्ज्वल हो। और सभी अपनी हैसियत, अपने सामर्थ्य के अनुसार
पूरी कोशिश भी करते हैं।" उन्होंने एक गहरी साँस ली, जैसे जीवन के अनुभवों का
निचोड़ बता रहे हों। "और खासतौर से बेटियों को... उन्हें तो माँ-बाप का कुछ अधिक
ही लाड़-प्यार और संरक्षण मिलता है। पता नहीं क्यों, शायद बेटियों की चिंता थोड़ी ज़्यादा
होती है।" उनकी आवाज़ में एक पिता की स्वाभाविक चिंता और बेटियों के प्रति अतिरिक्त
स्नेह साफ झलक रहा था, जो परीक्षितगढ़ जैसे कस्बों में और भी गहरा होता है।
"आप बिल्कुल ठीक कहते हैं
पापा," अक्षरा ने सहमति में सिर हिलाया। उसके चेहरे पर अपने माता-पिता के लाड़-प्यार
के प्रति सहज स्वीकारोक्ति थी। "मुझे तो सच में लगता है कि मुझे अपने दोनों भाईयों
से ज़्यादा ही लाड़-प्यार मिला है। कभी डाँट भी पड़ती है तो बहुत हल्की।" उसने
एक प्यारी सी शिकायत के अंदाज़ में जोड़ा।
सावित्री जी, जो चुपचाप उनकी
बातें सुन रही थीं, उनके होंठों पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। उन्होंने अक्षरा के सिर
पर प्यार से हाथ फेरा, उनकी उंगलियाँ उसके बालों में खो गईं। माँ की यह छुअन अपने आप
में हज़ारों शब्द कह रही थी। "माँ-बाप का ही नहीं," उन्होंने धीमे और ममता
भरे स्वर में कहा, "तेरे दोनों भाई, राघव और निखिल, और तेरी दोनों भाभियाँ भी
तुझे कितना मानती हैं। उनके लिए तो तू आज भी वही नन्ही सी गुड़िया है जो घर में दौड़ती
फिरती थी, और जिसकी हर फरमाइश पूरी होती थी।"
अक्षरा थोड़ी शरमा गई, लेकिन
उसकी आँखों में परिवार के प्रति स्नेह और बंधन का भाव स्पष्ट था। "हाँ माँ,"
उसने धीमी आवाज़ में कहा, "भैय्या तो मानते ही नहीं कि मैं 23 साल की हो गई हूँ।
वो तो मुझे अभी भी छोटी बच्ची समझते हैं और हर बात पर टोकते हैं।"
"अरे वाह! बिटिया, तूने
तो खूब याद दिलाया!" ध्यानचंद जी के चेहरे पर अचानक एक नया विचार आया, जो शायद
उनके मन में पहले से चल रहा था। उन्होंने सावित्री जी की ओर देखा, उनकी आँखों में अब
पिता का कर्तव्य बोध झलक रहा था। उनका स्वर पिछले हल्के-फुल्के माहौल से थोड़ा अलग,
अधिक गंभीर था। "सावित्री," उन्होंने कहा, "समय कितनी जल्दी बीत जाता
है। देखते-देखते हमारी बिटिया 23 साल की हो गई। अब हमें इसका विवाह कर देना चाहिए।
इसका घर बसा देना चाहिए। तुम्हारा क्या विचार है?"
पिता के मुख से अचानक 'विवाह'
शब्द सुनकर अक्षरा के चेहरे का रंग ही उड़ गया। कॉलेज के दिनों में धैर्य के साथ बुने
हुए सुनहरे सपने, भविष्य की उनकी योजनाएँ... सब कुछ एक साथ उसकी आँखों के सामने घूम
गया। उसकी हंसी, उसकी चहक, सब पल भर में जम से गए। उसके गाल शर्म, घबराहट और शायद थोड़ी
सी असहजता से लाल हो गए। उसने धीरे से अपनी नज़रें नीची कर लीं, और बिना कुछ कहे, जैसे
इस चर्चा से बचना चाहती हो, कुर्सी से उठी और दबे पाँव अपने कमरे की ओर चली गई। उसके
जाने से टेबल पर एक अजीब सी खामोशी छा गई।
अक्षरा के जाते ही, सावित्री
देवी ने उसकी ओर देखा, उनके चेहरे पर माँ की समझदारी और थोड़ी चिंता थी। फिर उन्होंने
ध्यानचंद जी की ओर देखा। "हाँ जी," सावित्री देवी ने कहा, उनका स्वर अब व्यावहारिक
था, "आप ठीक कहते हैं। अब तो इसकी उम्र भी हो गई है। अच्छा ही है। आप बिरादरी
में बात चलाइए। अपने दोस्तों और जानने वालों से कहिए कि कोई अच्छा, पढ़ा-लिखा, संस्कारी
लड़का उनकी नजरों में हो तो बताएँ। ईश्वर ने चाहा तो जल्द ही कोई न कोई अच्छा रिश्ता
आ ही जाएगा।"
ध्यानचंद जी ने गहरी सांस ली।
उनकी आँखों में अब सिर्फ रिश्ते ढूंढने की बात नहीं थी, बल्कि समाज में बेटियों के
भविष्य और परिवार की इज़्ज़त से जुड़ी एक गहरी चिंता थी। उनका स्वर धीमा और सोच भरा
हो गया। "वो सब तो ठीक है सावित्री," उन्होंने कहा, जैसे कोई भारी बोझ उनके
मन पर आ गया हो। "किन्तु... आजकल का ज़माना बदल गया है। बच्चे बड़े शहरों में
पढ़ने जाते हैं, वहाँ का माहौल अलग होता है... दो साल हमारी बेटी घर से दूर, अकेले
अलग शहर में रही है।" उन्होंने रुककर सावित्री की आँखों में देखा, उनके स्वर में
एक पिता का डर था, "मुझे चिंता इस बात की है कि कहीं... कहीं कोई ऐसी बात न हो...
कोई मसला न हो जिसे हम जानते न हों...।" उन्होंने अपनी बात पूरी की, उनकी आवाज़
में समाज के दबाव और बदनामी के डर की पीड़ा थी, वो डर जो परीक्षितगढ़ जैसे कस्बों में
किसी भी परिवार के लिए बहुत वास्तविक होता है। "हमें पहले ही अपनी बेटी से साफ-साफ
पूछ लेना चाहिए। बाद में अगर कोई बात सामने आती है तो... बड़ी बदनामी होती है... परिवार
का नाम खराब होता है, बेटी का भविष्य दांव पर लग जाता है।"
सावित्री देवी ने अपने पति के
कंधे पर हाथ रखा। उनके चेहरे पर अक्षरा के प्रति विश्वास था, लेकिन पति की चिंता सुनकर
वे भी थोड़ी गंभीर हो गईं। उन्होंने पति की बात को समझा। "हमारी बेटी अक्षरा बड़ी
समझदार है जी," उन्होंने आश्वस्त करते हुए कहा। "उसने कभी ऐसा कोई काम नहीं
किया जिससे हमें सिर झुकाना पड़े। मुझे लगता नहीं कि ऐसी कोई बात होगी... उसने तो कभी
किसी लड़के का ज़िक्र भी नहीं किया।" उन्होंने थोड़ा सोचा और फिर दृढ़ निश्चय
से कहा, "किन्तु... आपकी चिंता भी अपनी जगह सही है। आजकल के समय का कुछ कहा नहीं
जा सकता। रिश्ते की बात चलाने से पहले, हाँ करने से पहले, मैं उससे बात करती हूँ। उसके
मन की थाह लेती हूँ। उससे पूछती हूँ कि क्या कोई ऐसी बात है जो वो हमसे छिपा रही है
या हमें बताना चाहती है।" उन्होंने घड़ी देखी और फिर पति की ओर देखकर कहा,
"अब आप जाइए, आराम करिए। सारे दिन आप दुकान पर मेहनत करते रहे हैं।"
ध्यानचंद जी ने एक लंबी सांस ली, जैसे सावित्री के आश्वासन से उनके
मन का कुछ भार हल्का हुआ हो। वे उठकर अपने कमरे की ओर चले गए। सावित्री वहीं बैठी रहीं,
उनकी नज़रें अक्षरा के कमरे के बंद दरवाज़े पर टिकी थीं। उनके मन में माँ की ममता,
बेटी पर अटूट विश्वास और आने वाली बातचीत की थोड़ी सी बेचैनी का मिला-जुला भाव था।
वे उठीं, और एक निर्णायक कदम के साथ, अपनी बेटी के मन की दुनिया में प्रवेश करने, उसके
रहस्य जानने और उसके भविष्य की दिशा तय करने के लिए उसके कमरे की ओर बढ़ गईं। परीक्षितगढ़
के इस शांत घर में, परंपरा और आधुनिकता के बीच, माँ और बेटी के बीच होने वाली यह बातचीत,
उनके जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होने वाली थी।
***
रात गहरी हो चली थी। बाहर शायद
कोई परिंदा रह-रह कर चहक रहा था, जिसकी आवाज़ कमरे की शांति में घुल रही थी। अक्षरा
अपने कमरे में थी, जहाँ दो साल बाहर रह कर लौटने के बाद उसे जानी-पहचानी सी खुशबू और
सुकून महसूस हो रहा था। वह बिस्तर पर पीठ के बल लेटी, कमरे की छत को यूँ ताक रही थी
मानो उसमें कोई रहस्य छिपा हो या उसके सारे सवालों के जवाब उसी पर लिखे हों। उसके मन
में विचारों का समंदर उमड़ रहा था – बीते दो सालों के अनुभव, भविष्य की चिंताएँ और
कुछ ऐसे अनकहे शब्द जो किसी भारी पत्थर की तरह उसके सीने पर रखे थे। उसे नहीं पता था
कि इन बातों के बारे में घरवालों से कैसे कहे।
तभी दरवाज़े पर बहुत ही हल्की,
संकोच भरी दस्तक हुई। इससे पहले कि अक्षरा कुछ बोल पाती, दरवाज़ा धीरे से खुला और उसकी
माँ, सावित्री देवी, अंदर आईं। उनके चेहरे पर हल्की सी चिंता और बहुत सारा स्नेह था।
"माँ आप! अभी सोई नहीं?"
अक्षरा ने फौरन उठते हुए पूछा, उसके चेहरे पर माँ को देखकर राहत और प्यार के भाव आ
गए।
सावित्री देवी धीरे से चलकर
उसके पास बैठ गईं। उन्होंने अक्षरा के माथे से हटकर बिखरे हुए बालों को सँवारा और प्यार
से उसके गाल को छुआ। "बेटी दो साल में घर लौटी है, सोचा थोड़ी देर बेटी से उसके
सुख-दुःख की तो पूछ लूँ। कैसे सो जाती माँ?" उनकी आवाज़ में ममता घुली हुई थी।
अक्षरा हँसकर बोली, "आप
भी क्या बात करती हैं माँ, मैं बीच-बीच में आती तो रही हूँ।"
सावित्री देवी ने प्यार से उसके
हाथ को अपने हाथ में ले लिया। "खैर छोड़, तू माँ के मर्म को कैसे समझेगी,"
उनकी आँखों में हल्की सी नमी थी। "जब बेटी बड़ी हो जाती है ना, तो माँ का मन अजीब
हो जाता है। एक पल लगता है कि ये हमेशा मेरे आँचल में रहे, मेरी आँखों के सामने रहे।
और अगले ही पल लगता है कि नहीं, अब इसका अपना संसार बसना चाहिए, ये अपने घर-बार में
सुखी रहे। वो जो खालीपन महसूस होता है, वो खुशी और उदासी का मिलाजुला एहसास, उसे शब्दों
में बयान करना मुश्किल है।"
सावित्री देवी की बातें सुनकर
अक्षरा थोड़ी शरमा गई। उसने धीरे से कहा, "अच्छा तो आप मुझे घर से निकालना चाहती
हैं।"
सावित्री जी हँस पड़ीं, उनकी
आँखों में शरारत थी। "हाँ भई, बेटी तो घर में मेहमान बनकर ही आती है। हमने बहुत
सेवा कर ली मेहमान की, अब मेहमान का भी तो फ़र्ज़ बनता है कि वो अपने घर जाए और हमें
कन्यादान का पुण्य कमाने का मौक़ा दे।"
"लेकिन मैं समझ नहीं पा
रही कि मेहमान को विदा करने का प्लान माताश्री का है या पिताश्री का," अक्षरा
ने भी हँसते हुए पूछा, माहौल थोड़ा हल्का हो गया था।
इस बार सावित्री जी की हँसी
थम गई। उनके चेहरे पर गंभीरता आ गई। उन्होंने अक्षरा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए
कहा, "बेटा, देखो। अब तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है। हमने और तुम्हारे पिताजी
ने सोचा है कि अब हमें अपनी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी पूरी करनी चाहिए - तुम्हारा कन्यादान।
सारा परिवार यही चाहता है।" उन्होंने गहरी सांस ली। "तुम्हारे पापा ने कहा
है कि कोई भी कदम उठाने से पहले, हमें तुम्हारी राय जाननी चाहिए। तुम्हारा मन क्या
कहता है, ये सबसे ज़रूरी है।" उन्होंने अक्षरा की आँखों में देखा। "अभी बता
दे बेटी, यदि कोई बात है तो छुपाना मत। देख, माँ-बाप से बढ़कर तेरा कोई हितैषी नहीं
हो सकता इस दुनिया में। जो भी हो, हम तेरे साथ हैं।"
सावित्री जी की बातों से अक्षरा
के भीतर का तूफान और तेज़ हो गया। उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा, मानो अभी सीने से
बाहर आ जाएगा। जिन बातों को कहने से वो डर रही थी, माँ ने खुद उनका रास्ता खोल दिया
था। उसने फौरन अपनी नज़रें झुका लीं, फर्श पर टिक गईं।
"माँ, मैं कुछ कहूँ तो
आप गुस्सा तो नहीं करोगी?" उसकी आवाज़ बेहद धीमी थी, जैसे गले में अटक रही हो।
"नहीं बेटा, नहीं। जो तेरे
मन में है बेझिझक बोल। तेरे माँ-बाप सदा तेरे साथ रहे हैं, आगे भी ऐसा ही होगा।"
सावित्री जी ने उसके कंधे पर हाथ फेरते हुए कहा।
अक्षरा ने एक गहरी साँस ली,
जैसे हिम्मत जुटा रही हो। सिर झुकाए हुए ही उसने कहा, "माँ, एक लड़का है… धैर्य, मेरे साथ ही कॉलेज में पढ़ता था...। वह बहुत अच्छा
है, स्वभाव का नेक और दिल का सच्चा।" उसने पल भर के लिए माँ की तरफ देखा और फिर
नज़रें झुका लीं। "और हाँ... वह बहुत बड़े घर का है।"
सावित्री देवी कुछ पल बिल्कुल
मौन रहीं। उनकी आँखों में कई भाव एक साथ उभरे - थोड़ी हैरानी, थोड़ी उत्सुकता, और फिर
स्नेह भरी समझदारी। उन्होंने अक्षरा के चेहरे को ऊपर उठाया। "तू उससे शादी करना
चाहती है?" उन्होंने बहुत शांत स्वर में पूछा।
"हाँ माँ," अक्षरा
की आवाज़ और भी दबी हो गई, लगभग फुसफुसाते हुए कहा। "मैं... मैं उससे बहुत प्यार
करती हूँ।"
"क्या वह भी तुझसे शादी
करना चाहता है?"
"हाँ माँ, वह भी मुझे बहुत
प्यार करता है। उसने ही मुझसे कहा था कि मैं घर पर बात करूँ। वह भी अपने पिता से बात
करेगा।"
सावित्री देवी के चेहरे पर अब
एक गहरी संतुष्टि भरी मुस्कान उभरी। यह उस माँ की मुस्कान थी जिसने अपनी बेटी को खुश
देखा और जिस पर उसे भरोसा था। "ठीक है बेटा," उन्होंने अक्षरा का हाथ थामते
हुए कहा। "यदि ऐसा है तो मैं तुम्हारे पिताजी से बात करूँगी। हम जल्द ही धैर्य
के माता-पिता से मिलेंगे और बात आगे बढ़ाएंगे।"
सावित्री देवी की बात सुनकर
अक्षरा की आँखें खुशी के आँसुओं से छलक उठीं। उसने फौरन माँ को कसकर गले लगा लिया।
"थैंक यू माँ, आप दुनिया की सबसे अच्छी माँ हैं!" माँ के कंधे पर सिर टिकाए
हुए ही, उसने आँखें बंद कीं और मन ही मन कहा, "थैंक यू गॉड, आपने मुझे इतना प्यार
करने वाला और समझने वाला परिवार दिया। मेरा इतना बड़ा बोझ हल्का हो गया।"
कुछ देर बाद, जब सावित्री देवी अक्षरा को प्यार करके कमरे से गईं, तो
अक्षरा दोबारा बिस्तर पर लेटी थी। पर अब उसके मन में कोई बोझ नहीं था। चेहरे पर एक
सुकून भरी मुस्कान थी और आँखों में सुनहरे भविष्य के सपने। वह धैर्य के बारे में, उनके
साथ बिताए पलों के बारे में, और आने वाले कल के बारे में सोचती रही।
***
माँ के जाने के बाद अक्षरा का
मन एक अप्रत्याशित राहत और खुशी से भर गया था। जिस बात का बोझ वह इतने समय से उठाए
हुए थी, वह पल भर में छूमंतर हो गया था। चेहरे पर एक संतुष्टि भरी मुस्कान लिए, वह
अपने मुलायम बिस्तर पर अंगड़ाई लेकर लेटी। कमरे में फैली पुरानी, जानी-पहचानी खुशबू
उसे और भी सुकून दे रही थी। दिन भर की थकान और मन का हल्कापन मिलकर उसे धीरे-धीरे नींद
की मीठी वादियों में खींच रहे थे। उसकी पलकें भारी होने लगीं और कुछ ही देर में वह
गहरी नींद की आगोश में चली गई।
नींद की उस दुनिया में अक्षरा
एक ऐसे जहाँ में पहुँची जहाँ सब कुछ बेहद खूबसूरत और शांत था। उसे एक बहुत ही प्यारा
सपना आया। सपने में वह और धैर्य एक विशाल, हरे-भरे पार्क में थे। पार्क इतना सुंदर
था मानो किसी पेंटिंग से निकला हो – घास मख़मली कालीन जैसी थी, चारों ओर रंग-बिरंगे
फूल खिले थे और पेड़ों की डालियों पर पंछी चहक रहे थे। वे पार्क के बीचों-बीच, एक पुरानी,
लेकिन मज़बूत लकड़ी की बेंच पर बिलकुल पास-पास बैठे थे। सुबह का वक़्त था और सूरज की
सुनहरी, कोमल किरणें पेड़ों की पत्तियों से छनकर उनके चेहरों पर पड़ रही थीं, जिससे
उनके चेहरे और भी दमक रहे थे। हवा में फूलों की धीमी खुशबू घुली थी।
अक्षरा सपने में बेहद खुश थी,
इतनी खुश कि उसकी खुशी भीतर समा नहीं रही थी। उसने धैर्य की ओर देखकर कहा, "धैर्य,
ओ मेरे प्यारे धैर्य! आज मैं दुनिया की सबसे खुश इंसान हूँ!" उसकी आवाज़ में चिड़ियों
की चहक और झरने की कलकल जैसी मिठास थी।
धैर्य ने मुस्कुराते हुए उसके
कंधे पर हाथ रखा। उसकी आँखों में प्यार और हल्की शरारत थी। "तुम्हारी खुशी तो
तुम्हारे चेहरे से छलक रही है, मेरी प्यारी अक्षरा!" उसने कहा, "लेकिन यह
तो बताओ मेरी प्यारी, इस बेशुमार खुशी का राज़ क्या है?"
अक्षरा शरारत से मुस्कुराई।
वह जानती थी कि वह उसे क्या बताने वाली है और उसे धैर्य की उत्सुकता देखकर मज़ा आ रहा
था। "जब मैं तुम्हें बताऊँगी ना, तो तुम भी खुशी से पागल हो जाओगे।"
धैर्य को और ज़्यादा इंतज़ार
नहीं हो रहा था। उसने थोड़ा अधीर होकर कहा, "तो जल्दी बताओ ना! मुझे भी खुशी से
पागल होना है।"
अक्षरा थोड़ी और इठलाकर बोली,
"जाओ, नहीं बताती। थोड़ी देर सस्पेंस में रहो।"
धैर्य ने प्यार से उसका हाथ
अपने हाथ में ले लिया। उसकी पकड़ हल्की थी, लेकिन दृढ़। "बताओ ना, मेरी अच्छी
अक्षरा। ऐसे तड़पाओ मत।"
अक्षरा अपनी कुर्सी से अचानक
उठ खड़ी हुई। उसकी आँखों में चमक और होठों पर शरारत भरी हँसी थी। "नहीं बताऊँगी,
नहीं बताऊँगी!" कहकर वह पार्क में दौड़ने लगी, उसके बाल हवा में उड़ रहे थे और
उसकी पायल की छनकार हवा में गूंज रही थी। धैर्य भी हँसता हुआ उसके पीछे दौड़ा। पार्क
की हरियाली के बीच दोनों की खिलखिलाहट गूंज रही थी। और फिर... जैसे किसी पुरानी हिंदी
फिल्म का दृश्य हो... दौड़ते-दौड़ते उनके कदम एक साथ रुक गए... और उन्होंने एक साथ
गुनगुनाना शुरू कर दिया, उनके होंठों पर वही खुशी और आँखों में वही प्यार था।
... (यहाँ उस काल्पनिक गाने
का अनुभव हो सकता है, जो पाठकों के मन में एक रोमांटिक धुन की तरह गूंज सकता है)
धड़ाम! शायद सपने में दौड़ते
हुए उसका हाथ बिस्तर से टकराया था। अचानक अक्षरा की आँख खुल गई। सपने की मधुर तान अभी
भी उसके कानों में गूंज रही थी और चेहरे पर उस सुनहरे पल की मिठास साफ दिखाई दे रही
थी। होठों पर वही शरारती, विजयी मुस्कान टिकी थी जो सपने में धैर्य को चिढ़ाते हुए
थी।
"वाह! क्या खूबसूरत सपना
था," उसने बुदबुदाया, अभी भी थोड़ी नींद में। फिर उसे रात की असली घटना याद आई
– माँ से हुई बातचीत, परिवार की सहमति। उसकी खुशी दोगुनी हो गई। सपने में भले ही उसने
धैर्य को चिढ़ाया हो, लेकिन अब तो उसे असली वाली खुशखबरी देनी थी!
उसके मन में उत्साह का ज्वार
उठ रहा था। उसे लगा जैसे वो एक पल भी इंतज़ार नहीं कर सकती। उसे तुरंत धैर्य से बात
करनी थी, उसकी आवाज़ में उस खुशी को सुनना था।
तुरंत, बिना एक पल गंवाए, उसका
हाथ बेडसाइड टेबल पर पड़े फोन की ओर बढ़ा। उसने फुर्ती से धैर्य का नंबर मिलाया। फोन
की घंटी बज रही थी, और अक्षरा का दिल तेज़ी से धड़क रहा था – उत्साह से, थोड़ी घबराहट
से भी, कि उसकी बात सुनकर धैर्य कैसा महसूस करेगा।
कुछ ही देर में फोन उठा और उधर
से धैर्य की आवाज़ आई, थोड़ी नींद भरी और थोड़ी हैरान कि अक्षरा इतनी रात फोन क्यों
कर रही है। इससे पहले कि धैर्य कुछ पूछ पाता, अक्षरा ने एक ही साँस में, उत्साह से
भर कर, अपनी माँ से हुई सारी बातचीत, परिवार की सहमति, और उनके अगले कदमों के बारे
में बता दिया। उसने बताया कि कैसे माँ ने उनकी बात सुनी और कितनी आसानी से मान गईं।
फोन के दूसरी ओर पहले कुछ पल
सन्नाटा रहा, जैसे धैर्य को विश्वास ही नहीं हो रहा हो। फिर अचानक उसकी आवाज़ आई -
पहले धीमी, अविश्वास से भरी, और फिर अचानक खुशी से फट पड़ी, जो ज़ोरदार हँसी में बदल
गई। उसकी आवाज़ में जो खुशी की लहर दौड़ी थी, वो अक्षरा यहाँ तक महसूस कर सकती थी।
"सच? ये सच कह रही हो अक्षरा? माँ मान गईं? पापा से भी बात हो गई?" उसकी
आवाज़ खुशी और हैरानी का अद्भुत मिश्रण थी।
दोनों की आवाज़ें खुशी से कांप रही थीं। रात के उस पहर में, दो दिलों
की खुशी फोन की तारों से होते हुए एक-दूसरे तक पहुँच रही थी, उनके बीच की दूरी को मिटा
रही थी। फोन रखने के बाद भी अक्षरा के चेहरे पर वही मुस्कान टिकी रही। अब सपना और हकीकत
एक हो गए थे, और दोनों ही बेहद खूबसूरत थे।
***
(अध्याय दो)
सुबह के दस बजे होंगे जब सेठ
ध्यानचंद अपने बड़े बेटे राघव के साथ शहर के सबसे पॉश इलाके में स्थित सेठ अधिराज जुनेजा
के महल नुमा आलीशान बंगले में पहुंचे। यह बंगला केवल ईंट और पत्थर का ढाँचा नहीं था,
बल्कि अधिराज जुनेजा की असीमित दौलत, बेहिसाब ताकत और अहंकारी व्यक्तित्व का जीता जागता
प्रतीक था। इसकी भव्यता देखने वालों को हैरत में डाल देती थी, और उन्हें उनकी अपनी
मामूली हैसियत का एहसास करा देती थी।
बंगले के अंदर, विशाल लिविंग
रूम में, जो किसी शाही दरबार से कम नहीं लग रहा था, एक अजीब सा तनाव पसरा हुआ था। कमरे
की हर चीज़ बेशकीमती थी – दीवारों पर टंगी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकारों की
पेंटिंग्स, फर्श पर बिछा फ़ारसी कालीन जिस पर पैर रखने में भी संकोच हो, और सेंटर टेबल
पर रखी सोने की कलाकृतियाँ। फर्नीचर भी आम नहीं था, बल्कि विशेष रूप से बनवाया गया
शानदार और भव्य था। इस सब के बीच, अधिराज जुनेजा, एक विशालकाय, रोबदार, चमड़े की कुर्सी
पर किसी सम्राट की तरह विराजमान थे। उनका डील-डौल भारी था और चेहरे पर पैसे और सत्ता
का स्थायी गुरूर टिका हुआ था। उनके हाथ में सुबह का महंगा अख़बार था, जिसे वह अब तक,
शायद समय बिताने या सामने बैठे लोगों को इंतज़ार कराने के लिए, बेपरवाही से पलट रहे
थे।
उनके ठीक सामने, कमरे के शानदार
माहौल से बिलकुल विपरीत, एक सोफ़े पर, ध्यानचंद जी और उनका बेटा राघव बैठे थे। दोनों
ही थोड़े सहमे हुए लग रहे थे, मानो किसी पराई दुनिया में आ गए हों। वे सोफ़े के एक
कोने में इस तरह सिमटे बैठे थे, जैसे कमरा उन्हें निगल न ले। उनके चेहरे पर घबराहट
थी, लेकिन आँखों में एक पिता और भाई का दृढ़ संकल्प भी था।
अधिराज ने आख़िरकार अख़बार से
अपनी नज़रें हटाईं। उनकी नज़रें सीधी नहीं, बल्कि थोड़ी तिरछी थीं, मानो सामने बैठे
लोग उनकी आँखों में आँखें डालने के लायक भी न हों। उन्होंने उपेक्षा भरे, बर्फ़ जैसे
ठंडे स्वर में पूछा, "कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?" उनकी आवाज़
में ज़रा भी नरमी नहीं थी, बल्कि एक अजीब सी अधिकार भरी ठंडक थी जो सामने वाले को उसकी
जगह दिखा देती थी।
ध्यानचंद जी ने गहरी साँस ली।
उनके गले में जैसे काँटे उग आए थे, जो बोलने की हर कोशिश को मुश्किल बना रहे थे। उनका
हाथ बार-बार गले तक जा रहा था। लेकिन उन्हें अपनी बेटी अक्षरा की हँसी, उसकी खुशी याद
आई, और उस याद ने उन्हें हिम्मत दी। उन्होंने शब्दों को व्यवस्थित किया और शांत, संयत
स्वर में कहा, "जुनेजा साहब, मैं आपका ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा... मैं सीधा मुद्दे
पर आता हूँ।" उन्होंने एक और बार गला साफ़ किया। "मैं... मैं अपनी बेटी,
अक्षरा, का रिश्ता आपके बेटे धैर्य के लिए लेकर आया हूँ। दोनों बच्चे एक-दूसरे को बहुत
पसंद करते हैं... और... और शादी करना चाहते हैं।"
जैसे ही ध्यानचंद जी के मुँह
से 'शादी' और 'रिश्ता' जैसे शब्द निकले, अधिराज के चेहरे का रंग बदल गया। उन्होंने
अख़बार को एक झटके से एक तरफ फेंका, जिसकी आवाज़ कमरे की खामोशी में गूंज गई। उन्होंने
ध्यानचंद जी को ऐसे घूरा जैसे उन्होंने कोई बेहद अपमानजनक या नापाक बात कह दी हो, जिसका
जुनेजा परिवार के सामने ज़िक्र भी नहीं होना चाहिए। उनके चेहरे पर धीरे-धीरे एक व्यंग्यात्मक,
क्रूर मुस्कान फैलने लगी। "ध्यानचंद जी," वह हँसते हुए बोले, उनकी हँसी किसी
तेज़ धार वाले हथियार की तरह थी, जिसमें ज़हर घुला हुआ था। "आप होश में तो हैं?
अपनी बेटी का रिश्ता... मेरे बेटे धैर्य के लिए? आप... आप किस दुनिया में जी रहे हैं?"
ध्यानचंद जी का दिल किसी ने
मुट्ठी में भींच लिया हो, ऐसा महसूस हुआ। उन्हें लगा जैसे उनके सीने से हवा निकल गई
हो। उनकी आवाज़ लड़खड़ा गई, "जी... इसमें गलत क्या है? बच्चे एक-दूसरे से प्यार..."
"प्यार?" अधिराज की
आवाज़ अचानक ऊँची हो गई, किसी दहाड़ की तरह जो पूरे कमरे में गूँजने लगी। "प्यार
पेट नहीं भरता, ध्यानचंद जी। प्यार से घर नहीं चलता। प्यार से खानदान की इज़्ज़त नहीं
बनती।" उसकी आँखें अंगारे जैसी लाल हो रही थीं। "रिश्ते बराबरी वालों में
होते हैं! स्टेटस देखना पड़ता है! हैसियत देखनी पड़ती है! और आपकी और मेरी हैसियत में
ज़मीन-आसमान का फ़र्क है! आप मेरे सामने बैठकर बात कर रहे हैं, यही बहुत है! इससे ज़्यादा
की उम्मीद मत रखिएगा!"
ध्यानचंद जी की आँखों के कोनों
में नमी तैरने लगी। उनके चेहरे पर दर्द साफ झलक रहा था। "जुनेजा साहब," उनकी
आवाज़ में थोड़ी दृढ़ता लाने की कोशिश थी, "आप मेरी दौलत पर मत जाइए... आप मेरी
बेटी के संस्कारों पर जाइए। वह पढ़ी-लिखी है, समझदार है, गुणवान है। वह आपके घर को...
स्वर्ग बना देगी।"
"हमें ऐसे स्वर्ग की ज़रूरत
नहीं है," अधिराज अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, उसका कद और उसकी नाराजगी दोनों
और भी बड़े लग रहे थे। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था, नसें तन गई थीं।
"जिसकी नींव कमज़ोर हो! जिसकी बुनियाद में हमारी बराबरी करने का झूठा सपना हो!"
वह धीरे-धीरे ध्यानचंद जी की ओर बढ़ा। "जाइए और अपनी बेटी के लिए अपनी 'हैसियत'
का कोई लड़का देखिए। अपनी दुकान के गल्ले पर बैठने वाला कोई बनिया लड़का।" उसकी
आवाज़ में चरम तिरस्कार था। "जुनेजा परिवार की बहू बनने के सपने... देखना भी मत!
यह नाम बहुत बड़ा है, ध्यानचंद। इसकी इज़्ज़त का तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं।" वह
अचानक पलटा और अपने हाथ से दरवाज़े की ओर इशारा किया। "दरवाज़ा खुला है।"
ध्यानचंद जी के कानों में जैसे
किसी ने पिघला हुआ सीसा डाल दिया हो। अपमान की गर्मी उनके पूरे शरीर में फैल गई। उनका
चेहरा तमतमा रहा था। उन्होंने खुद को सँभाला। "सेठ जी," उनकी आवाज़ में थोड़ी,
बहुत थोड़ी, दृढ़ता और आत्म-सम्मान की झलक आई। "माना कि आप बहुत बड़े सेठ हैं...
बहुत दौलतमंद हैं। लेकिन हम भी तो इज़्ज़त रखते हैं। हमारा भी समाज में नाम है। हम
भी तो व्यापारी ही हैं... कोई सड़क छाप टटपूंजिए नहीं।"
अधिराज ज़ोर से हँसा, उसकी हँसी
किसी ज़हरीले कोड़े की तरह लग रही थी जो सीधे ध्यानचंद जी के आत्म-सम्मान पर पड़ रही
थी। "हाँ हाँ, व्यापारी," उसने व्यंग्य से कहा। "मेरे नादान बेटे ने
बताया था... ध्यानचंद... तुम्हारी कपड़े की दुकान है न? एक छोटी सी दुकान... गली-मोहल्ले
में।" उसने रुककर ध्यानचंद जी को ऊपर से नीचे तक देखा। "और तुम... तुम मेरी
बराबरी करने चले हो? मेरे साम्राज्य से अपनी छोटी सी दुकान की तुलना कर रहे हो?"
ध्यानचंद जी का चेहरा एकदम उतर
गया। शब्दों ने जैसे उनका साथ छोड़ दिया था। वे बेबस, अपमानित और आहत खड़े रह गए।
अधिराज अब उनके चारों ओर धीरे-धीरे
घूमते हुए बोला, जैसे किसी कमज़ोर शिकार के आसपास घूम रहा हो। "देखो ध्यानचंद,
यह दुनिया का उसूल है। रिश्ते बराबरी वालों में होते हैं। तुम चाहे कितना भी हाथ-पैर
मार लो, कितनी भी इज़्ज़त की दुहाई दे लो, तुम्हारी कुल संपत्ति... तुम्हारी पुश्तों
की कमाई... मेरे एक दिन के मुनाफे के बराबर भी नहीं है। अपनी औकात देखो! और फिर सपने
देखो! मेरे बेटे... मेरे इकलौते बेटे... धैर्य की ज़िंदगी... किसी मामूली... बनिये की
बेटी के साथ... बर्बाद करने के लिए नहीं है।" उसकी आवाज़ में क्रूरता और उपहास
था।
फिर उसने अपना हाथ उठाया और
पूरी ताक़त से बंगले के विशाल दरवाज़े की ओर इशारा किया। "दरवाज़ा खुला है! गेट
आउट!" उसकी आवाज़ दहाड़ जैसी थी। "और सुन लो! आइंदा... इस गेट के अंदर क्या...
इस बंगले के बाहर भी... मेरी नज़र के सामने मत आना! समझ गए?"
ध्यानचंद जी काँपते हुए, किसी
घायल परिंदे की तरह, उठे। उनका चेहरा अपमान और क्रोध से तमतमा रहा था, लेकिन उस पर
गहरा आघात और एक पिता की बेबसी साफ झलक रही थी जो अपनी बेटी के लिए कुछ नहीं कर पा
रहा था। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन वे उन्हें छुपाने की व्यर्थ कोशिश कर रहे थे।
वह बिना एक शब्द कहे, भारी, लड़खड़ाते कदमों से उस आलीशान, लेकिन अपमानजनक जगह से बाहर
निकल गए। उनका बेटा राघव, जिसने पूरे समय अपने पिता का अपमान चुपचाप देखा था, अपने
चेहरे पर अपने पिता की पीड़ा और अपनी बेबसी का दर्द लिए, चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल
दिया।
अधिराज जुनेजा अपनी जगह पर खड़ा रहा। उसने ध्यानचंद जी और राघव को तिरस्कार
भरी, विजयी नज़रों से देखा, जब तक वे उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गए। उसके चेहरे पर
अपनी अमीरी, अपनी ताकत और अपने असीमित अहं का वही गुरूर कायम था। उसके लिए यह सिर्फ
एक 'मामूली बनिया' था जिसे उसकी 'औकात' दिखा दी गई थी। उसने महसूस नहीं किया कि उसने
सिर्फ दो लोगों का अपमान नहीं किया, बल्कि दो परिवारों के रिश्तों, दो बच्चों के प्यार
और मानवता की बुनियादी गरिमा को भी रौंद दिया था। उसका बंगला रोशनी से नहाया हुआ था,
लेकिन उसके दिल में सिर्फ अँधेरा और अहंकार भरा था।
***
अधिराज जुनेजा के आलीशान बंगले
से बाहर निकलकर, ध्यानचंद जी और राघव सड़क पर चले जा रहे थे। दोपहर का सूरज मानो आग
बरसा रहा था। और ध्यानचंद जी के भीतर अपमान की आग दहक रही थी। उनके कान अधिराज के कटु
शब्द और ज़हरीली हँसी अभी भी गूँज रहे थे।
राघव ने सदैव अपने पिता का सम्मान
ही देखा था। उनके अपने उस छोटे से नगर में उसके पिता सर्वाधिक सम्मानित व्यक्तियों
में थे। और आज इतना इतना अपमान! उसके पिता पर क्या बीत रही होगी, वह समझ सकता था। उसके
पिता बराबर की सीट पर सर झुकायें बैठे थे और वह मोन होकर ड्राईविंग किये जा रहा था।
जब वे घर लौटे, तो उनकी दशा
देखकर सावित्री देवी और अक्षरा के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। राघव ने अक्षरा
को कमरे में भेजा और फिर काँपते स्वर में अपनी माँ को सारी बात बताई – अधिराज जुनेजा
के आलीशान बंगले का वैभव, उनके पिता का वहाँ पहुँचने का साहस और फिर कैसे भरी सभा में,
हर चीज़ की शानो-शौकत के बीच, सेठ अधिराज ने उनके पिता का तिरस्कार किया था, कैसे उन्हें
'औकात' दिखाई थी और किस तरह अपमानित करके बाहर निकाल दिया था।
यह सुनकर सावित्री देवी का हृदय
भी व्यथित हो उठा। उनकी आँखों में आँसू आ गए। उनके पति, जो हमेशा उनके लिए हिम्मत का
प्रतीक रहे थे, आज पराजित और टूटे हुए लग रहे थे। उन्होंने तुरंत पति के पास जाकर उनके
कंधे पर प्यार से हाथ रखा। उनकी आवाज़ में ममता और सांत्वना घुली हुई थी। "आप
दुखी मत होइए, प्राणनाथ। ऐसे लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है। आप हिम्मत मत हारिए।
भगवान पर भरोसा रखिए, सब ठीक होगा। यह विपत्ति के बादल हैं, घने ज़रूर हैं, लेकिन छँट
ज़रूर जाएँगे।"
किंतु सावित्री देवी के शब्द
ध्यानचंद के जले पर मरहम नहीं लगा पा रहे थे। उनके मन को शांति कहाँ मिलनी थी! अधिराज
के शब्द उनके कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे – "औकात देखो... मामूली बनिया...
मेरे एक दिन का मुनाफा..." उन्हें लगा जैसे उनकी पूरी ज़िंदगी, उनकी सारी मेहनत,
उनकी सारी ईमानदारी उस एक पल के अपमान के सामने बौनी हो गई थी। वे भारी कदमों से उठे,
उनकी चाल में निराशा और पीड़ा साफ झलक रही थी। वे बिना किसी से कुछ कहे, सीधे अपने
कमरे में चले गए।
कमरे का द्वार भीतर से बंद करते
हुए, उन्होंने सावित्री देवी को आवाज़ दी, "सावित्री, मुझे अकेला छोड़ दो। किसी
को अंदर मत आने देना। मुझे थोड़ी देर एकांत चाहिए।" सावित्री जी समझ गईं कि उनके
पति का मन कितना उद्वेलित है।
कमरे के भीतर, ध्यानचंद जी अपने
बिस्तर पर नहीं बैठे। वे फर्श पर बैठ गए, उनका मस्तिष्क विचारों के बवंडर में घूम रहा
था। एक ही विचार, एक ही कड़वी सच्चाई उनके दिमाग में बार-बार दस्तक दे रही थी –
"यह सब मेरी कमज़ोर आर्थिक स्थिति का नतीजा है!" उन्हें लगा जैसे उनकी सारी
परेशानियाँ, उनका सारा अपमान सिर्फ़ और सिर्फ़ धन की कमी के कारण है। "अगर मैं
अधिराज से अधिक धनवान होता," वे मन ही मन बड़बड़ाए, उनकी आवाज़ में दर्द था,
"अगर मेरे पास भी अधिराज जुनेजा जैसी दौलत होती, तो आज मुझे अपनी बेटी का रिश्ता
उसके प्रेमी से करने के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने या यूँ विवश होने की ज़रूरत न
पड़ती। उस अभिमानी अभिराज की हिम्मत न होती... नहीं होती उसकी हिम्मत... मुझे आँख दिखाने
की! मुझे मेरी 'औकात' बताने की!"
उन्होंने अपनी आँखें बंद कीं,
और फिर आकाश की ओर, उस अदृश्य शक्ति की ओर देखकर अपनी शिकायतें ज़ाहिर करने लगे। उनकी
आवाज़ अब बुदबुदाहट से बढ़कर एक दर्द भरी पुकार बन गई थी। "हे प्रभु! हे मेरे
ईश्वर! आपने मुझे इतना धन क्यों नहीं दिया? क्यों? क्या मैंने जीवन भर कोई पाप किया
था? क्या यही मेरी तुम्हारी भक्ति का सिला है? मेरी ईमानदारी, मेरी मेहनत, मेरा सीधापन...
क्या इन सबका यही प्रतिफल है?"
सारी रात ध्यानचंद को नींद का
एक झोंका भी नहीं आया। कमरे का द्वार भीतर से बंद था, बाहर सावित्री जी और राघव चिंता
में जाग रहे थे, लेकिन भीतर ध्यानचंद जी अपने ईश्वर से, अपने भाग्य से, अपने आप से
लड़ रहे थे। वे एकांत में ईश्वर से अपनी व्यथा कह रहे थे, उनसे अपनी शिकायतें ज़ाहिर
कर रहे थे। उनका मन उद्वेलित था, भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था।
"हे भगवान! मैंने जीवन
भर कोई पाप नहीं किया," उनकी आवाज़ में पीड़ा थी, लेकिन साथ ही एक दृढ़ विश्वास
भी था। "मैंने कभी किसी को सताया नहीं, न किसी का दिल दुखाया, न कभी किसी का अपमान
किया। मैंने हमेशा अपनी मेहनत की रोटी खाई है।" उनकी आँखों से अश्रु की धारा बह
निकली, जो उनके चेहरे की झुर्रियों में समा रही थी। "फिर जीवन की इस संध्या में,
जब मुझे अपनी बेटी का घर बसाना है, मुझे यह घोर अपमान क्यों सहना पड़ा? क्यों मेरी
ईमानदारी और मेरे आत्म-सम्मान को पैसों के तराजू पर तोला गया?"
उन्होंने अपने आँसू पोंछे। उनकी
आवाज़ अब और भी दृढ़ हो गई थी, उसमें एक अजीब सा संकल्प था। "मेरी शिकायत केवल
तुमसे है, प्रभु! मैंने सदैव तुम्हारी भक्ति की है। मैंने तुम्हारे नाम का जाप किया
है, तुम्हारी पूजा की है। आज... आज मैं उस भक्ति का प्रतिफल चाहता हूँ!" उनकी
आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई थी, जो अपमान की आग से पैदा हुई थी। "मुझे इतनी
संपत्ति दो, इतनी दौलत दो, इतनी शोहरत दो... कि वह अहंकारी अभिराज जुनेजा स्वयं चलकर
मेरे द्वार पर आए! आए वो मेरे घर और गिड़गिड़ाकर... हाँ गिड़गिड़ाकर... अपने बेटे धैर्य
के लिए... मेरी बेटी अक्षरा का हाथ माँगे! यही चाहिए मुझे, प्रभु! यही मेरा संकल्प
है!"
इसी प्रबल संकल्प के साथ, ध्यानचंद जी ने अपने आँसू पोंछे। उन्होंने
कमरे के कोने में रखे लकड़ी के छोटे से पटरे को उठाया, उसे साफ़ किया और उस पर ध्यानासन
में बैठ गए। कमरे में केवल एक छोटा सा दीपक टिमटिमा रहा था, जिसकी लौ ध्यानचंद के चेहरे
पर पड़ रही थी, जो अब दृढ़ता और संकल्प से चमक रहा था। उन्होंने अपनी आँखें बंद कीं
और अपने मन, अपनी आत्मा और अपनी सारी ऊर्जा को एक जगह केंद्रित कर लिया। उनकी दृढ़
आवाज में, जो अब किसी याचक की नहीं, बल्कि एक दृढ़ निश्चयी साधक की थी, एक ही मंत्र
गूंजने लगा – “ॐ लक्ष्मिपतये नमः” (धन के देवता भगवान विष्णु का मंत्र)। यह केवल मंत्र
नहीं था, यह उनकी पीड़ा, उनका अपमान, उनका गुस्सा, उनका संकल्प और उनकी सारी आशाओं
का प्रतीक था। उनका पूरा अस्तित्व उस एक प्रार्थना में सिमट गया था, मानो वे अपनी सारी
पीड़ा और आकांक्षा को उस मंत्र की शक्ति के माध्यम से सीधे ब्रह्मांड में, ईश्वर तक
भेज रहे हों। उस रात, ध्यानचंद जी ने सिर्फ़ धन की देवी लक्ष्मी से प्रार्थना नहीं
की, उन्होंने अपने टूटे हुए आत्म-सम्मान और अपनी बेटी के भविष्य के लिए एक युद्ध का
शंखनाद किया था।
***
सेठ ध्यानचंद के भव्य ड्राइंगरूम
में पसरी खामोशी इतनी गहरी थी कि जैसे उसने कमरे की हर वस्तु को अपने आगोश में ले लिया
हो। यह कोई सामान्य शांति नहीं थी, बल्कि एक घुटन भरी चुप्पी थी, जिसे तोड़ रही थीं
केवल कभी-कभार किसी की दबी हुई सिसकी या फिर किसी सदस्य की भारी, अनियंत्रित सांसों
की आवाज़। कमरे की मंद रोशनी, जो पर्दों से छनकर आ रही थी, दीवारों पर अजीब सी परछाइयाँ
बना रही थी, मानों वे भी इस घर में छाए दुख और चिंता की मूक गवाह हों। उस धुंधले उजाले
में, कमरे के कोने में सिमटे बैठे सावित्री देवी, उनके दोनों जवान बेटे राघव और निखिल,
और उनकी लाडली बेटी अक्षरा के चेहरों पर, बीते तीन दिनों की यातना और अनिश्चितता की
गहरी लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थीं। हर पल भारी, हर सांस बोझिल।
यह घर, जो कभी ध्यानचंद जी की
हंसी-ठिठोली और उनकी जीवंत उपस्थिति से गुलज़ार रहता था, पिछले बहत्तर घंटों से एक बंदीखाने
जैसा महसूस हो रहा था। ध्यानचंद जी ने खुद को अपने कमरे की चारदीवारी में कैद कर लिया
था, जैसे उन्होंने सिर्फ बाहरी दुनिया से ही नहीं, बल्कि अपनों से भी नाता तोड़ लिया
हो। उनकी चहलकदमी नहीं थी, उनकी बुलंद आवाज़ नहीं थी, उनका स्नेह भरा स्पर्श नहीं था।
बस थी यह सिसकियों और भारी सांसों से भरी खामोशी।
इस असहज शांति को तोड़ते हुए,
सावित्री देवी ने अपने बड़े बेटे राघव की ओर देखा। उनकी आँखों में सूजी हुई लालिमा और
आवाज़ में एक दर्दनाक बेबसी थी। "बेटे राघव," उन्होंने धीमी, कंपकंपाती आवाज़
में कहा, "आज पूरे तीन दिन हो गए... तुम्हारे पिता ने कमरे का दरवाज़ा तक नहीं
खोला है। उनकी प्यारी दुकान... जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा था, जिसे वो
अपनी जान कहते थे... वहाँ भी जाना बंद कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने सिर्फ
दुनिया से ही नहीं, बल्कि जीने की इच्छा से भी नाता तोड़ लिया हो। बस... बस किसी रोबोट
की तरह अपनी सामान्य दिनचर्या के ज़रूरी काम निपटाते हैं, निवाले दो-चार निगलते हैं
और फिर उसी अज्ञातवास में लौट जाते हैं। मेरी तो... मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि
क्या करूँ... हम क्या करें।" उनकी आवाज़ अंतिम शब्दों तक आते-आते कांपने लगी।
राघव ने एक गहरी, हताश सांस
ली। उसकी चौड़ी छाती भी चिंता से सिकुड़ी हुई लग रही थी। "हाँ माँ," उसने कहा,
उसकी आवाज़ भी भारी थी, "मैंने भी कई बार कोशिश की। दरवाज़ा खटखटाया, विनती की,
आवाज़ दी... उन्हें पुकारा। लेकिन हर बार... हर बार उनका एक ही जवाब होता है, एक बेजान
आवाज़ में - 'बेटा, तुम अपना काम करो... और मुझे मेरा काम करने दो।' मुझे समझ नहीं आता
कि वो 'अपना काम' क्या कर रहे हैं उस कमरे में? उनके कमरे से बस कभी-कभी... कुछ मंत्र
जाप जैसी धीमी, एक जैसी, रहस्यमयी आवाज़ें सुनाई देती हैं। माँ, मुझे तो सच में डर लग
रहा है... कहीं पापा... कहीं पापा मानसिक रूप से अस्वस्थ तो नहीं हो गए हैं? उनका ऐसा
व्यवहार... यह तो सामान्य नहीं है।" राघव की आँखों में अपने पिता के लिए गहरी
पीड़ा और आशंका साफ़ झलक रही थी। वह अपने पिता को ऐसे टूटते हुए कभी नहीं देख सकता था।
यह सुनते ही अक्षरा, जो अब तक
कोने में दुबकी, सिर झुकाए बैठी थी, जिसकी आँखे लगातार नम थीं, अचानक फफक पड़ी। उसका
छोटा सा शरीर दुख और ग्लानि से कांप उठा। "भैया..." उसकी आवाज़ सिसकियों में
डूब रही थी, "यह सब... यह सब मेरी वजह से हुआ है... सिर्फ मेरी वजह से।"
वह अपने आँसू पोंछने की कोशिश भी नहीं कर रही थी, बस उन्हें गालों पर बहने दे रही थी।
"अगर मैं धैर्य के प्यार में न पड़ती... अगर मैंने वह रिश्ता बनाने की कोशिश न
की होती... अगर मैंने पापा की बात मान ली होती... तो आज यह सब नहीं होता! पापा को...
मेरे पापा को इतना अपमान... इतना बड़ा दुख... मेरी वजह से सहना पड़ा। मैं कितनी... कितनी
बुरी बेटी हूँ! मैंने अपने प्यारे पापा को... उनका दिल इतना दुखाया..." शब्द उसके
गले में फंस गए, और वह सिर्फ सिसकती रह गई।
सावित्री ने तुरंत अक्षरा को
अपनी बाँहों में खींच लिया, उसे सीने से लगाया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दिलासा
देने लगी। "नहीं मेरी बच्ची... ऐसा मत कह। खुद को इस तरह दोष मत दे। तेरी क्या
गलती इसमें? प्यार करना कोई गुनाह है क्या? मुझे तो लगता है..." सावित्री की आँखों
में एक अजीब सी चमक आई, जो विश्वास और अंधविश्वास का मिश्रण थी, "मुझे तो लगता
है कि उस दुष्ट अधिराज ने... हाँ! उसी ने... तेरे पापा पर कोई टोना-टोटका करवा दिया
है। कोई काला जादू! ताकि यह रिश्ता सिरे न चढ़ सके... ताकि तेरा घर न बसे। वरना ऐसे
अचानक कोई इतना कैसे बदल सकता है? बिल्कुल अजनबी की तरह... यह सामान्य नहीं है।"
निखिल, जो अब तक कोने में खड़ा,
चुपचाप सब सुन रहा था, अपनी माँ की बातों से थोड़ा झुंझला गया। उसने कलाई पर बंधी घड़ी
देखी, फिर खीझ भरे स्वर में बोला, "माँ! आप भी कैसी बातें करती हैं! इस इक्कीसवीं
सदी में, जब दुनिया चाँद और मंगल पर पहुँच रही है, आप अभी भी भूत-प्रेत और टोने-टोटके
की बातों में उलझी हैं? यह सब बकवास है! पापा को किसी ने कुछ नहीं कराया। सच तो यह
है कि उस दिन जो अपमान उन्हें सहना पड़ा... वह इतना गहरा था कि उसके कारण वह अपना मानसिक
संतुलन खो बैठे हैं। उन्हें गहरा सदमा लगा है! हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचना चाहिए,
माँ!"
सावित्री देवी निखिल की बात
सुनकर कुछ पल चुप रहीं। उनके चेहरे पर थोड़ी नाराज़गी और थोड़ी बेचारगी थी। फिर उन्होंने
गहरी सांस छोड़ी। "ठीक है बेटा... तुम मेरी बात नहीं मानते तो मैं ज़िद नहीं करूँगी।
लेकिन मेरा दिल... मेरा दिल कहता है कि कुछ तो गड़बड़ है। यह स्वाभाविक नहीं है। तुम
लोग... तुम लोग अपने पापा को किसी अच्छे डॉक्टर को तो दिखाओ। किसी मनोवैज्ञानिक को...
या कम से कम हमारे फैमिली डॉक्टर, डॉ. शर्मा, को ही बुला लो। मुझसे अब यह सब देखा नहीं
जा रहा... बर्दाश्त नहीं हो रहा। अगर उन्हें... अगर तुम्हारे पापा को कुछ हो गया,"
कहते-कहते उनकी आवाज़ फिर भर आई, और आँसू बह निकले, "तो मैं भी... मैं भी जी नहीं
पाऊँगी... उनके बिना मैं कैसे रहूंगी?"
अक्षरा ने भी तुरंत आँसू भरी
आँखों से अपने बड़े भाई राघव की ओर देखा। उसकी आवाज़ में घबराहट और प्रार्थना का मिश्रण
था। "हाँ भैया... माँ ठीक कह रही हैं। प्लीज़ भैया... आप अभी... अभी डॉक्टर शर्मा
को फोन करके घर बुलाइए। उनसे बात कीजिए। अगर पापा को कुछ हो गया... अगर उन्हें कुछ
भी हो गया तो हम सब कहीं के नहीं रहेंगे। हमारा क्या होगा?"
राघव ने अपने आस-पास पसरी इस
गहरी निराशा, चिंता और डर को महसूस किया। उसने एक क्षण के लिए अपनी माँ और बहन के बेचैन
चेहरों को देखा, फिर निखिल की तार्किक चिंता को समझा। वह जानता था कि अब और देर करना
ठीक नहीं। उसने सबको शांत करने वाले अंदाज़ में कहा, "ठीक है। तुम लोग चिंता मत
करो। घबराओ मत। मैं अभी डॉक्टर साहब को फोन करता हूँ। उन्हें घर बुलाता हूँ। देखते
हैं वह क्या कहते हैं... क्या सलाह देते हैं।" यह कहकर राघव उठा। उसके कंधे पर
ज़िम्मेदारी का भार साफ दिख रहा था, लेकिन उसकी आँखों में एक संकल्प था। वह तुरंत फोन
करने के लिए कमरे से बाहर चला गया।
पीछे छूटे सावित्री देवी, निखिल और अक्षरा के चेहरों पर एक हल्की सी उम्मीद की किरण जरूर आई थी, कि शायद डॉक्टर कोई रास्ता दिखा दें। लेकिन उस उम्मीद के साथ-साथ, ध्यानचंद जी के बंद कमरे के पीछे छिपी अनिश्चितता और उनके स्वास्थ्य को लेकर गहरी चिंता अब भी बदस्तूर कायम थी। कमरे की खामोशी थोड़ी कम हुई थी, लेकिन दिल की धड़कनें अब भी तेज़ थीं, भविष्य की चिंता से भरी हुईं।
***
(अध्याय तीन )
सेठ ध्यानचंद का भव्य ड्राइंगरूम, जो सामान्य दिनों
में चहल-पहल और ठहाकों से गूंजा करता था, आज एक अजीब सी, भारी खामोशी की चादर ओढ़े हुए
था। कमरे की शानदार साज-सज्जा, रेशमी पर्दे और पॉलिश किए हुए फर्नीचर भी इस उदास माहौल
को तोड़ नहीं पा रहे थे। इस सन्नाटे को अगर कुछ भंग कर रहा था, तो वह थी दीवार पर टंगी
पुरानी, नक्काशीदार घड़ी की लगातार टिक-टिक, मानों बीता हुआ हर पल एक दर्दनाक याद दिला
रहा हो, और डॉक्टर राकेश शर्मा के उपकरणों की हल्की-हल्की खड़खड़ाहट – एक स्टेथोस्कोप
का कोल्ड टच, एक रक्तचाप मापने वाली पट्टी की सरसराहट।
कमरे के केंद्र में रखे आरामदायक,
भारी-भरकम सोफे पर सेठ ध्यानचंद बैठे थे, लेकिन उनके बैठने का तरीका बिल्कुल निढाल
और ऊर्जाहीन था। उनका कद-काठी वाला शरीर झुका हुआ था, और चेहरे पर कभी खिलने वाली मुस्कान
की जगह एक गहरी, अथाह उदासीनता और दुनिया से कटी हुई खीज का भाव पसरा हुआ था। डॉ. शर्मा,
जो न केवल उनके पारिवारिक चिकित्सक थे बल्कि दशकों से उनके स्वास्थ्य के विश्वसनीय
साथी भी, पूरी तन्मयता और पेशेवर गंभीरता के साथ उनकी जांच कर रहे थे। उनकी उंगलियाँ
ध्यानचंद की कलाई पर पल्स टटोल रही थीं, उनके कान स्टेथोस्कोप से धड़कनें सुन रहे थे,
और आँखों में चिकित्सकीय जांच के साथ-साथ वर्षों पुराने स्नेह की चिंता भी तैर रही
थी।
पास ही एक दूसरे सोफे पर, सावित्री
देवी और उनके बड़े बेटे राघव इस मौन परीक्षा के मूक गवाह बने बैठे थे। दोनों के चेहरे
पर चिंता की गहरी लकीरें थीं, आँखें डॉ. शर्मा की हर छोटी से छोटी गतिविधि पर टिकी
हुई थीं, मानों उनकी हर क्रिया में किसी जादुई समाधान की तलाश कर रहे हों। हवा में
तनाव इतना घना था कि सांस लेना भी भारी लग रहा था।
अचानक, ध्यानचंद ने एक गहरी,
बोझिल सांस ली, जिसने कमरे की खामोशी को चीर दिया। उन्होंने अपनी लगभग बंद आँखों को
खोला और सीधे डॉक्टर की ओर देखा। उनकी आवाज़ रुखी, कटी हुई और स्पष्ट झुंझलाहट से भरी
थी। "डॉक्टर साहब," उन्होंने कहा, शब्दों में कोई गरमाहट नहीं थी,
"आप बेकार ही इतनी मेहनत कर रहे हैं। मुझे... मुझे कुछ नहीं हुआ है। मैं कई बार
कह चुका हूँ... बार-बार कह चुका हूँ कि मैं बीमार नहीं हूँ! नहीं, बिल्कुल नहीं! फिर
भी मेरी कोई बात सुनने को तैयार नहीं है... कोई विश्वास ही नहीं करता।" उनके स्वर
की तीखी धार ने सावित्री और राघव को जैसे अंदर तक भेद दिया।
डॉ. राकेश शर्मा ने अपना स्टेथोस्कोप
सावधानी से कान से हटाया। उन्होंने ध्यानचंद की झुंझलाहट को समझा और एक अनुभवी चिकित्सक
की सहजता से प्रतिक्रिया दी। उनके चेहरे पर एक शांत, स्नेहपूर्ण मुस्कान थी, जो आश्वस्त
करने वाली थी। "सेठ जी," उन्होंने धीमे और नरम लहजे में कहा, "आप थोड़ी
देर आराम से बैठिए। मुझे अपना काम तो पूरा करने दीजिए। मैं आपका डॉक्टर हूँ, आपका शुभचिंतक।
यदि आप सचमुच बीमार नहीं हैं, तो मैं आपको ज़बरदस्ती बीमार बना नहीं दूँगा, इस बात पर
मुझ पर विश्वास रखें। बस, मुझे जांच पूरी करने दीजिए।"
ध्यानचंद ने एक और गहरी, थकी
हुई सांस ली, जैसे प्रतिरोध करने की शक्ति भी जाती रही हो। उनकी आँखों में एक पल के
लिए हताशा का भाव आया। "ठीक है भाई," उन्होंने लगभग बड़बड़ाते हुए कहा, आवाज़
में हार मानने की बेबसी थी, "जब कोई मुझ पर विश्वास करने के लिए तैयार ही नहीं
है... जब सबको लगता है कि मैं झूठ बोल रहा हूँ... तो बोलने से क्या लाभ? ठीक है डॉक्टर
साहब, खूब जांच करिए। जितनी चाहे जांच कर लीजिए। मैं... मैं कुछ नहीं बोलूंगा।"
यह कहकर, उन्होंने अपने शरीर को सोफे पर और ढीला छोड़ दिया। उन्होंने अपनी आँखें लगभग
मूंद लीं, जैसे वे सिर्फ डॉक्टर से ही नहीं, बल्कि इस पल से, इस कमरे से और पूरी दुनिया
से अपना वास्ता तोड़ लेना चाहते हों। उनके चेहरे पर फिर से वही गूढ़ उदासीनता छा गई।
डॉ. शर्मा ने कुछ और देर तक
विभिन्न शारीरिक जांचें कीं। उन्होंने कुछ सवाल पूछने की कोशिश की – नींद कैसी आई,
भूख लगी या नहीं, मन कैसा महसूस हो रहा है। लेकिन ध्यानचंद का जवाब या तो एक-दो शब्दों
में संक्षिप्त होता, या फिर वे सिर्फ मौन साध लेते। डॉक्टर की हर कोशिश उस बंद दरवाज़े
से टकराकर लौट आती थी, जो ध्यानचंद ने अपने भीतर खींच लिया था।
अंततः, अपनी सारी जांचें पूरी
करने के बाद, डॉक्टर राकेश ने अपने उपकरण समेटे। उन्होंने अपने चश्मे को ठीक किया और
सीधे ध्यानचंद की ओर देखा। उनके चेहरे पर अब पेशेवर गंभीरता थी, लेकिन आँखों में एक
अनसुलझी पहेली का भाव था।
"आप ठीक कहते हैं सेठ जी,"
डॉ. शर्मा ने शांत स्वर में कहा, "चिकित्सकीय दृष्टि से... शारीरिक रूप से आपको
कोई गंभीर बीमारी नहीं है। आपकी पल्स सामान्य है, रक्तचाप सामान्य है। आपकी सारी रिपोर्ट्स...
जितनी मैंने अभी जांच की हैं, सब सामान्य हैं।" उनकी आवाज़ में थोड़ा विस्मय था।
"लेकिन... मुझे आश्चर्य है कि आप इतने कमजोर क्यों होते जा रहे हैं। पिछले तीन
दिनों में आपका वज़न कम हुआ लगता है। ऐसा लगता है, मानों आपके भीतर कोई ऐसी गहरी टीस
है... कोई अनकहा दर्द है... कोई भारी बोझ है जो आप अपने परिवार से छुपा रहे हैं, और
शायद... शायद मुझसे भी। सेठ जी, यदि कोई ऐसी बात है जो आपको परेशान कर रही है, तो कृपया
उसे साझा करें। मुझसे कहें... या अपने परिवार से कहें। बेझिझक बताइए। विश्वास करें,
हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है।" डॉक्टर ने एक पल रुककर अपनी बात
पूरी की, "और हाँ, खाना-पीना बिल्कुल मत छोड़िए। ठीक से भोजन करिये, वरना... वरना
आप सच में बीमार पड़ जाएँगे।"
ध्यानचंद ने जैसे यह सुनने के
लिए ही अपनी आधी मुंदी आँखें पूरी तरह खोली थीं। डॉक्टर की बात पूरी होते ही उनके चेहरे
पर एक तीखी, व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर गई – एक ऐसी मुस्कान जिसमें दर्द और कटुता छिपी
थी। "चलो," उन्होंने कहा, आवाज़ में विजय का एक कड़वा भाव था, "अब तो
आपको विश्वास हुआ डॉक्टर साहब? अब तो आपको यकीन हो गया कि मैं बीमार नहीं हूँ? और मेरे
परिवार को भी विश्वास होना चाहिए कि मुझे कुछ नहीं हुआ है। मैं बस... बस कुछ दिन अकेले
में रहना चाहता हूँ। मुझे आराम करना है। इसलिए... इसलिए मुझे परेशान ना किया जाये।
जब मुझे भूख लगेगी, मैं स्वयं खाना खा लूँगा। जब मुझे बाहर जाना होगा, मैं चला जाऊंगा।"
इतना कहकर, उन्होंने बिना किसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए, एक झटके में, हॉकी की
तरह फुर्ती से सोफे से उठे। उनके चेहरे पर वही झुंझलाहट और दुनिया से कटी हुई उदासी
थी। बिना सावित्री या राघव की ओर देखे, तेज़ी से अपने बेडरूम की ओर बढ़ गए। कमरे का दरवाज़ा
खुला और बंद होने की हल्की, निर्णायक आवाज़ आई, जैसे कोई अंतिम फैसला सुनाया गया हो।
उनके जाते ही, ड्राइंगरूम की
हवा और भी भारी हो गई। सावित्री देवी का धैर्य टूट गया। वे लगभग रो पड़ीं। आँखों में
आंसू और आवाज़ में बेबसी लिए उन्होंने डॉ. शर्मा की ओर देखा। "देख रहे हैं डॉक्टर
साहब," वे रुंधे गले से बोलीं, "यह कैसा व्यवहार कर रहे हैं! आप तो इन्हें
वर्षों से जानते हैं... इन्हें बचपन से देख रहे हैं। पहले कितने जीवंत थे... कितनी
अच्छी-अच्छी बातें किया करते थे। हर किसी से कितने स्नेह और आदर से मिलते थे। इनका
जीवन तो दुकान और हम लोगों के इर्द-गिर्द घूमता था। लेकिन अब... आप कहते हैं कि यह
शारीरिक और मानसिक रूप से ठीक हैं, पर मैं कहती हूँ... नहीं! यह बिल्कुल भी ठीक नहीं
हैं। इनका यह बदला हुआ रूप... यह सन्नाटा... यह उदासी... मुझसे देखा नहीं जाता डॉक्टर
साहब! मेरा दिल बैठा जा रहा है।"
डॉ. शर्मा ने गहरी सांस ली,
जैसे इस अनसुलझी पहेली से वे भी हताश हों। उन्होंने सावित्री देवी के कंधे पर स्नेहपूर्वक
हाथ रखा। "आप ठीक कहती हैं, भाभी जी," उन्होंने नरम आवाज़ में कहा।
"उनका व्यवहार निश्चित रूप से बदला हुआ है। यह सामान्य नहीं है। लेकिन... उनकी
सारी रिपोर्ट्स नॉर्मल हैं। चिकित्सकीय दृष्टि से... उनका शरीर और मस्तिष्क स्वस्थ
दिखाई दे रहे हैं। मैं स्वयं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा क्या हुआ है जिससे यह इस प्रकार
का व्यवहार कर रहे हैं।" डॉक्टर ने कुछ देर सोचा, फिर सलाह दी, "मेरा विचार
है कि आप कुछ दिन... इनके खान-पान का... और ज़रूरी चीजों का तो ध्यान रखें। लेकिन...
कोई ऐसा व्यवहार ना करें, कोई ऐसी बात या ज़िद न करें जो इन्हें और ज़्यादा बुरा लगे
या ये और चिढ़ जाएं। उन्हें अकेलापन चाहिए, शायद यह उसी तरह अपने भीतर की उथल-पुथल से
निपट रहे हैं। मैं समझता हूँ... शायद कुछ दिन के बाद... जब इस सदमे या बोझ का असर कम
होगा, तो यह स्वयं ही सामान्य हो जाएँगे। शायद... बस इन्हें कुछ समय... कुछ एकांत चाहिए।"
राघव, जो अब तक चुपचाप अपने
पिता के व्यवहार और डॉक्टर की बातों को सुन रहा था, बीच में बोला। उसकी आवाज़ शांत थी,
लेकिन आँखों में चिंता की छाप थी। "ठीक है डॉक्टर साहब," उसने कहा,
"आप जैसा कहें। हम ध्यान रखेंगे। उनके कमरे की ओर ज़्यादा जाएंगे नहीं, और ज़रूरी
बात ही करेंगे। आइए, मैं आपको बाहर तक छोड़ देता हूँ।" उसने डॉक्टर की ओर इशारा
किया। "फिर मुझे भी दुकान पर जाना है। पिताजी के न होने से सारा काम रुका हुआ
है।"
डॉक्टर शर्मा ने सहमति में सिर
हिलाया। उन्होंने अपना बैग उठाया और राघव के साथ ड्राइंगरूम से बाहर निकल गए। ड्राइंगरूम
में पीछे सावित्री देवी अकेली रह गईं। वह उसी सोफे पर बैठी रहीं, उनकी आँखें पति के
बंद कमरे के दरवाज़े पर टिकी थीं। उस भारी, खामोश कमरे में, उनकी आँखों में चिंता, अनिश्चितता
और गहरे दुख का समंदर लहरा रहा था। ध्यानचंद के बंद दरवाज़े के पीछे क्या चल रहा था,
यह रहस्य अब भी कायम था, और इस अनसुलझी पहेली ने पूरे घर को अपने आगोश में ले रखा था।
***
ज्ञानचंद जी के शांत घर में
सुबह की सुनहरी किरणें खिड़कियों से छनकर ड्राइंग रूम के महंगे कालीनों पर फैल रही
थीं, लेकिन इस प्राकृतिक सौंदर्य का उस घर के भीतर पसरी गहरी उदासी और बेचैनी पर कोई
असर नहीं पड़ रहा था। हवा में अभी भी पिछले कई दिनों की चिंता और अनिश्चितता का भारीपन
घुला हुआ था।
सेठ ज्ञानचंद के बड़े बेटे राघव
ने, जो अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा गंभीर और ज़िम्मेदार नज़र आ रहे थे, अपना नाश्ता लगभग
बेमन से समाप्त किया। उनकी आँखों में भी नींद की कमी और पिता की चिंता साफ झलक रही
थी। अपने छोटे भाई निखिल के साथ, जो हमेशा की तरह थोड़ा चंचल था लेकिन जिसके चेहरे पर
भी इस समय तनाव की छाया थी, वे दुकान पर जाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। जाने से पहले,
यह जानते हुए भी कि शायद कोई समाधान न मिले, राघव की आदत थी कि वह अपनी माँ से मिलकर
जाए।
वह ड्राइंग रूम में गया, जहाँ
उसकी माँ, सावित्री देवी, उस आलीशान सोफे पर बैठी थीं, जो कभी उनके पति की पसंदीदा
जगह हुआ करती थी। आज वह अकेली थीं, उनकी भंगिमा उदास और चिंतामग्न थी। उनके चेहरे पर
पिछले कई दिनों की नींद की कमी, आँखों के नीचे काले घेरे और दिल में एक अनकहा, असहनीय
बोझ साफ पढ़ा जा सकता था। राघव ने उनके पास जाकर झुका और श्रद्धापूर्वक उनके चरण स्पर्श
किए। यह उनकी दिनचर्या का एक अटूट हिस्सा था, एक छोटा सा पल जो सामान्य दिनों में सुकून
देता था, लेकिन आज उस उदास माहौल में यह क्रिया भी भारी लग रही थी।
"माँ, हम दुकान पर जा रहे
हैं," राघव ने धीमे और स्नेह भरे स्वर में कहा, कोशिश कर रहा था कि उसकी अपनी
चिंता उसकी आवाज़ में न आए। "आप पिताजी का ध्यान रखिएगा... कोशिश करते रहिएगा।"
सावित्री देवी के चेहरे पर एक
फीकी, दर्द भरी मुस्कान उभरी – एक ऐसी मुस्कान जो दर्द को छुपा नहीं पा रही थी। उनकी
आवाज़ में गहरी निराशा, लाचारी और एक अजीब सी टूटन थी। "बेटा," उन्होंने कहा,
आवाज़ कांप रही थी, "मैं क्या उनका ध्यान रखूँगी? मुझसे तो... मुझसे तो उन्होंने
बात करना भी छोड़ दिया है। कमरा खोलते ही नहीं। जब मैं दरवाज़े पर जाकर खड़ी होती हूँ...
जब उनसे दरवाज़ा खोलने के लिए कहती हूँ, तो उनका एक ही उत्तर होता है... वही रुखा, बेजान
जवाब... 'मुझे परेशान ना करें।' मानों मैं कोई अजनबी हूँ।" उन्होंने एक गहरी,
हताश सांस ली। "मैं तो कह रही हूँ बेटा... तुम उनसे एक बार फिर पूछ लेते... प्यार
से समझाते। अगर वह तुम्हारे साथ दुकान पर चले जाएँ... तो उनका कुछ हवा-पानी बदलेगा।
लोगों से मिलेंगे... थोड़ी बातचीत होगी... इससे उनका शरीर कुछ तो स्वस्थ होगा और वहाँ
लोगों के बीच रहकर मन भी लगा रहेगा। यहाँ तो वह सारे दिन बस उस बंद कमरे में बैठे...
न जाने क्या... बस मंत्र ही पढ़ते रहते हैं।"
राघव ने एक और गहरी, थकी हुई
साँस ली, जैसे उसके कंधों पर दुनिया भर का बोझ आ गया हो। उसने गर्दन हिलाते हुए कहा,
"माँ, मैंने... मैंने कोशिश तो की थी। कल रात भी... और सुबह भी। कई बार दरवाज़ा
खटखटाया। विनती की... लेकिन उन्होंने मेरी एक बात नहीं मानी। साफ़ कह दिया... 'वह अपना
काम करें और मुझे अपना काम करने दें।' उनकी ज़िद के आगे... इस चुप्पी के आगे मैं क्या
कर सकता हूँ, माँ?" उसकी आवाज़ में भी लाचारी थी।
यह सुनकर सावित्री देवी की आँखों
से जो आँसू वे अब तक रोके हुए थीं, छलक आए। उन्होंने अपने आँचल के कोने से उन्हें जल्दी
से पोंछने की कोशिश की, जैसे किसी को दिखाना न चाहती हों। "बेटा, ऐसे... ऐसे कब
तक चलेगा?" उनकी आवाज़ भर्रा गई थी, दर्द और अनिश्चितता से भरी हुई। "हम उन्हें
इस तरह... इस तरह कैसे देख सकते हैं? वह तो घर जान हैं।"
राघव भी अपनी माँ की तरह ही
परेशान था, दिल ही दिल में घुट रहा था, लेकिन एक बड़े बेटे होने के नाते उसे घर और दुकान
दोनों की ज़िम्मेदारी संभालनी थी। वह अपनी भावनाओं को दबाए रखने की कोशिश कर रहा था।
"क्या करें माँ?" उसने कहा, उसकी आवाज़ में निराशा थी। "डॉक्टर... डॉक्टर
भी तो कुछ नहीं बता पा रहे। तीन-तीन डॉक्टर तो बदल चुका हूँ... शहर के बड़े-बड़े डॉक्टर
दिखा दिए। जो भी डॉक्टर आता है, वही एक ही बात कहता है कि सेठ जी शारीरिक रूप से पूरी
तरह स्वस्थ हैं... बिल्कुल फिट हैं। कोई बीमारी नहीं है उन्हें। और अपनी फीस लेकर चला
जाता है। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा कि आखिर उन्हें हुआ क्या है। मुझे भी समझ
नहीं आ रहा... बिल्कुल समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ... कहाँ जाऊँ।"
सावित्री देवी ने अपने बहते
आँसू पोंछे और कुछ संयत होने का प्रयास किया। उनके चेहरे पर अब भी दुख था, लेकिन उनकी
आँखों में एक नई, अजीब सी दृढ़ता उभर आई थी। "ठीक है बेटा, तुम दुकान पर जाओ,"
उन्होंने कहा। "परेशान मत हो। मुझे कुछ ज़रूरत पड़ी तो मैं तुम्हें फोन कर लूँगी।"
उनके लहज़े में कुछ ऐसा था जो राघव ने पहले महसूस नहीं किया था। "मैं ही कुछ सोचती
हूँ... इसका हल।"
राघव को माँ की आवाज़ में यह
अजीब सी दृढ़ता स्पष्ट महसूस हुई। उसके मन में कुछ आशंका हुई। "क्या कोई मन में
बात है माँ?" उसने जिज्ञासावश पूछा, थोड़ी चिंता के साथ।
सावित्री देवी ने कुछ पल हिचकिचाया,
उनकी आँखें दूर किसी अज्ञात बिंदु पर टिक गईं, जैसे कोई गहरा विचार कर रही हों। फिर,
एक निश्चय के साथ, जो उनके चेहरे पर और भी स्पष्ट हो गया, उन्होंने कहा, "हाँ
बेटा... बात तो है।" उन्होंने थोड़ा झुककर कहा, आवाज़ थोड़ी धीमी कर ली, जैसे कोई
रहस्य साझा कर रही हों। "मैं सोच रही हूँ... मैं सोच रही हूँ कि तेरी मौसी कलावती
से बात करूँ।" उन्होंने सीधे राघव की आँखों में देखा। "मुझे तो... मुझे तो
पक्का लगता है... बेटा, मेरा दिल कहता है कि तेरे पिताजी पर सच में उस दुष्ट अधिराज
ने... हाँ, उसी ने... कोई टोना-टोटका कराया है। कोई ऊपरी बाधा है।" उनकी आवाज़
में विश्वास था, एक अंधविश्वास भरा विश्वास। "वरना भला चंगा आदमी... हँसता-खेलता,
सबसे घुलने-मिलने वाला आदमी अचानक ऐसे कैसे बदल सकता है? यह उनकी प्रकृति नहीं है!
यह हालत बिना किसी बाहरी असर के नहीं हो सकती।" उन्होंने अपनी बात पर ज़ोर दिया।
"तेरी मौसी कलावती... वह इन मामलों में ज़्यादा जानकारी रखती है। वह इन सब चीजों
को मानती है... और समझती है। मुझे लगता है... वह कोई ना कोई उपाय... कोई ना कोई समस्या
का समाधान ज़रूर बताएगी।"
राघव का चेहरा यह सुनकर एकदम
से गंभीर हो गया। उसकी आशंका सही निकली थी। उसे इस बात का अंदेशा था कि जब विज्ञान
और तर्क काम नहीं आएंगे, तो उसकी माँ ऐसे रास्ते तलाशेंगी। "माँ!" उसने लगभग
विनती भरे स्वर में कहा, उसका चेहरा तनावग्रस्त था। "कलावती मौसी को तो रहने ही
दो, प्लीज़! उनके आने से तो समस्या सुलझने के बजाय... और अधिक बढ़ जाएगी। आप जानती हैं
उनका स्वभाव... और उनके विचार। और फिर माँ... मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि ये टोना-टोटका...
भूत-प्रेत... ये सब कुछ नहीं होते। ये सब मन के वहम हैं... पुराने ज़माने की बातें हैं!
इस वैज्ञानिक युग में हमें इन सब मामलों में नहीं फँसना चाहिए। डॉक्टर कह चुके हैं
कि उन्हें कोई बीमारी नहीं है!"
सावित्री देवी ने अपने बेटे
की बात को बीच में ही काट दिया। उनकी दृढ़ता अब एक अटल विश्वास में बदल गई थी।
"निखिल," उन्होंने गलती से राघव को निखिल बोल दिया, उनकी बात सुनते हुए ध्यान
कहीं और था। फिर तुरंत सुधारा, "नहीं बेटा... राघव... तू नहीं समझेगा बेटा। दुनिया
में जिस चीज़ का भी नाम लिया जाता है... जिनका ज़िक्र होता है, उनका अस्तित्व भी होता
है। चाहे तू माने या न माने, ये अलग बात है।" उनकी आवाज़ में अब तर्क नहीं, बल्कि
व्यक्तिगत अनुभव का दावा था। "मैंने अपनी आँखों से देखा है... बहुत से लोगों को
भूत बाधा होती है... उन पर ऊपरी साया होता है। और उनका इलाज भी इन्हीं तरीकों से होता
है! यह सबको मन का भ्रम नहीं होता। मुझे तो... मुझे तो पक्का लगता है... कि कुछ ना
कुछ किसी प्रकार की ऊपरी बाधा... या कोई नकारात्मक शक्ति तेरे पिताजी के भी साथ है।
वही उन्हें परेशान कर रही है... वही उन्हें हमसे दूर कर रही है।"
तभी निखिल, जो अब तक चुपचाप
कोने में खड़ा अपने बड़े भाई और माँ की गंभीर बातें सुन रहा था, इस गंभीर माहौल में अपनी
हँसी नहीं रोक पाया। शायद वह तनाव कम करने की कोशिश कर रहा था या शायद उसे वाकई कलावती
मौसी और इन सब बातों पर हंसी आ रही थी। "हाँ माँ," उसने शरारत भरी, दबी हुई
हंसी के साथ कहा, "कलावती मौसी को देखकर यह तो पक्का लगता है कि भूत-प्रेत हों
या ना हों, लेकिन चुड़ैल ज़रूर होती है।"
सावित्री देवी ने निखिल को हल्की
डांट लगाई, लेकिन उनके चेहरे पर एक स्नेह भरी मुस्कान भी थी। इस कठिन समय में बेटे
की शरारत उन्हें थोड़ी देर के लिए ही सही, हंसी दे गई थी। "नहीं बेटा," उन्होंने
कहा, "अपने से बड़ों का मज़ाक नहीं उड़ाते। चचेरी ही सही, लेकिन वह मेरी बहन है।
और तेरी मौसी लगती है, और मौसी माँ जैसी होती है। मौसी का मज़ाक नहीं उड़ाते।" उनकी
आवाज़ में स्नेह, नसीहत और पारिवारिक बंधन का भाव था।
राघव ने इस पल को संभाला। उसने
माँ की दृढ़ता को समझा और कलावती मौसी के विषय पर बहस करने का कोई फायदा नहीं देखा।
अभी सबसे ज़रूरी था दुकान जाना। "ठीक है माँ," उसने विनम्रता और समझदारी के
साथ कहा, अपनी आवाज़ में अपनी चिंता को छिपाते हुए। "जैसा तुम चाहो। हम दुकान पर
चलते हैं। आप चिंता मत करना। कोई बात हो... कोई भी ज़रूरत हो... तो हमें तुरंत फोन कर
देना, हम आ जाएँगे।" वह जानता था कि माँ को इस समय सहारे की ज़रूरत है, चाहे वह
कितना भी परेशान हो।
"ठीक है बेटा, जाओ। ध्यान
से जाना।" सावित्री देवी ने उन्हें विदा किया, उनकी आँखों में अभी भी चिंता और
एक अजीब सा नया विश्वास था।
दोनों भाई घर से निकलकर अपनी दुकान की ओर चल पड़े। सुबह की धूप अब तेज़ हो रही थी, लेकिन उनके मन में चिंता का घना बादल छाया हुआ था। पीछे सावित्री देवी उसी ड्राइंग रूम में बैठी रह गईं, अपने मन में कलावती मौसी को बुलाने के निश्चय को और भी दृढ़ करती हुईं। उनके चेहरे पर अब लाचारी के साथ-साथ एक योद्धा जैसा भाव था, जो अपने पति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो। ड्राइंग रूम में एक बार फिर वही भारी खामोशी और अनिश्चितता पसर गई, लेकिन इस बार इसमें आने वाले तूफान की आहट भी छिपी हुई थी।
***
(अध्याय चार)
सावित्री देवी के मन में कलावती
की बात बैठ गई थी। हर तरफ से निराश होकर, डॉक्टरों की बेबसी देखकर, और अपने पति की
उस डरावनी चुप्पी और उदासी से त्रस्त होकर, उन्हें उस दूर के तांत्रिक बाबा की बात
ही अंतिम सहारे की तरह लग रही थी। कलावती ने उन्हें बताया था कि वह बाबा किसी वीरान
इलाके में रहते हैं, शहर की भीड़ और शोर से दूर, और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी
कि उन्होंने असाध्य बीमारियों और उन समस्याओं का भी अंत किया है जिन्हें विज्ञान हल
नहीं कर पाता। सावित्री देवी ने, एक डूबते हुए व्यक्ति की तरह तिनके का सहारा लेते
हुए, इस अलौकिक और रहस्यमय रास्ते को आज़माने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
उन्होंने अपने बेटों, राघव और
निखिल, को इस बारे में बताया। राघव, बड़ा होने के नाते, माँ की चिंता और बेबसी को गहराई
से समझता था। यद्यपि उसे इन तांत्रिक बातों और टोने-टोटके पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं
था, लेकिन पिता की यह हालत देखकर और माँ की आँखों में आँसू देखकर, वह कुछ भी करने को
तैयार था, चाहे वह कितना भी तर्कहीन लगे। छोटे निखिल का स्वभाव थोड़ा आधुनिक था, उसे
यह सब ढकोसला और पाखंड लगता था। लेकिन माँ के आँसुओं और घर में छाई उदासी के आगे उसकी
सारी आपत्तियाँ और तर्क हवा हो गए। आख़िरकार, सारे मतभेदों और आशंकाओं को परे रखकर,
वे सब उस अज्ञात, वीरान इलाके में तांत्रिक बाबा की खोज में जाने के लिए तैयार हो गए।
शाम का धुंधलका गहराने लगा था,
मानों प्रकृति भी आने वाली रात की रहस्यमयता का संकेत दे रही हो। उनकी कार शहर की रोशनी
और शोर से दूर एक वीरान, सुनसान रास्ते पर सरपट दौड़ रही थी। धीरे-धीरे पक्के रास्ते
कच्चे होते गए और अंत में उनकी कार एक ऐसे स्थान पर आकर रुकी जहाँ सिर्फ घनी, कंटीली
झाड़ियाँ, ऊँचे-नीचे टीले और दूर तक पसरा सन्नाटा था। हवा में एक अजीब सी नमी और मिट्टी
की गंध थी, जिसे केवल झींगुरों की लगातार, एकांत झंकार ही भंग कर रही थी। आकाश में
तारे धीरे-धीरे दिखाई देने लगे थे, एक विशाल, खामोश छत की तरह।
कार को उनका बड़ा बेटा राघव चला
रहा था, उसके चेहरे पर तनाव और दृढ़ संकल्प का मिश्रण था। आगे की सीट पर निखिल बैठा
हुआ खिड़की से बाहर झाँक रहा था, उसकी आँखों में बेचैनी और थोड़ा डर साफ़ झलक रहा था।
पीछे की सीट पर सेठ ध्यानचंद अपनी पत्नी सावित्री देवी के साथ बैठे थे। ध्यानचंद जी
की आँखें बाहर की दुनिया पर नहीं, बल्कि अपने भीतर किसी अज्ञात शून्य पर टिकी थीं।
उनके चेहरे पर वही गहरी उदासीनता, थकान और एक अजीब सी अनिच्छा का भाव था।
राघव ने कार का इंजन बंद किया।
सन्नाटा और भी गहरा हो गया। उसने दरवाज़ा खोला और उतरकर पीछे का द्वार खोला। सावित्री
देवी और सेठ ध्यानचंद धीरे-धीरे कार से नीचे आए। जैसे ही उनके पैर उस अनजानी, ऊबड़-खाबड़
ज़मीन पर पड़े, सावित्री देवी ने चारों ओर एक नज़र दौड़ाई। उनके होंठों पर एक दबी हुई,
घबराहट भरी आवाज़ आई, "बड़ी सुनसान सी जगह है।"
ध्यानचंद जी, जो अब तक लगभग
निर्जीव से बैठे थे, अपनी पत्नी की ओर मुड़े। उनकी आवाज़ में एक गहरी, दबी हुई वेदना
और झुंझलाहट थी। "सावित्री," उन्होंने कहा, स्वर में याचना और क्रोध का मिश्रण
था, "तुम... तुम यह अच्छा नहीं कर रही हो। यह रास्ता ठीक नहीं है।" उनकी
आँखों में एक क्षण के लिए पुरानी चमक दिखी, जो चिंता से भरी थी। "मैं अभी भी कह
रहा हूँ, वापस चलो। इस अनजानी जगह पर किसी मुसीबत में फँस जाओगे। मैं... मैं ठीक हूँ।
मुझे कुछ नहीं हुआ है। यह सब बेकार है। मुझे वापस घर ले चलो।"
सावित्री देवी ने उनकी बात काट
दी, उनके चेहरे पर अब भी वही दृढ़ता थी जो एक माँ और पत्नी के दुख से आई थी। "आप
चुप रहो जी," उन्होंने कहा, आवाज़ में थोड़ा खिंचाव था, "आप खुद नहीं जानते
कि आप कितनी बड़ी परेशानी में हैं। आपका यह चुप रहना, यूँ कमरे में बंद रहना... यह सामान्य
नहीं है। हम जो कर रहे हैं, हमें करने दो। यह आपके लिए ही कर रहे हैं।" उन्होंने
कलावती का हवाला दिया, "कलावती ने बताया कि यहाँ पर जो तांत्रिक बाबा रहते हैं,
वह बड़े पहुँचे हुए हैं। उनकी विद्या सिद्ध है। उन्होंने अच्छे-अच्छों को ठीक कर दिया
है। आपको भी कोई अंदरूनी बीमारी है... कोई ऊपरी बाधा है... जिसे केवल बाबा ही ठीक कर
सकते हैं। डॉक्टर तो कुछ बता नहीं पाए।"
ध्यानचंद ने लगभग चीखते हुए
कहा, उनकी आवाज़ में दर्द और आक्रोश था, "कितनी बार कहूँ सावित्री! मुझे कुछ नहीं
हुआ है! कुछ नहीं हुआ है! मैं बीमार नहीं हूँ! लेकिन ना तो तुम मानती हो... ना यह बच्चे!"
उन्होंने हताशा से राघव और निखिल की ओर देखा। "मैं कह रहा हूँ कि मुझे कुछ दिन
एकांत में छोड़ दो! बस! मैं केवल... मैं केवल भगवान का भजन कर रहा हूँ। मेरी कुछ शिकायतें
हैं... कुछ बातें हैं भगवान से... जब वह पूरी हो जाएँगी, मैं खुद पहले की तरह हो जाऊंगा!
लेकिन तुम मानती नहीं!" उन्होंने एक गहरी, भरी हुई सांस ली। "ठीक है! जो
करना है, कर लो! पर मैं बताए देता हूँ कि इस सब में... किसी बड़ी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
उनकी आवाज़ में निराशा की अंतिम परत और एक अनजानी चेतावनी दोनों थी।
निखिल, जो अब तक सहमा हुआ खड़ा
था, इस सुनसान माहौल और पिता की बातों से और भी डर गया। वह अपनी माँ से बोला, उसकी
आवाज़ में थोड़ी घबराहट थी, "हाँ माँ... पापा ठीक कह रहे हैं। देखो ना, कितनी डरावनी
जगह है। चारों ओर अँधेरा... कोई नहीं... सच में हम किसी मुसीबत में ना फँस जाएँ। मुझे
तो इन तांत्रिक लोगों पर ज़रा भी भरोसा नहीं। ये न जाने क्या कर दें... कैसा पाखंड करें।"
राघव ने निखिल को झिड़कते हुए
कहा, उसका स्वर थोड़ा तीखा था, "तू चुप रह! और आगे देख कि हमें किधर जाना है।"
उसने एक गहरी सांस ली, "अब जो होगा, देखा जाएगा। हमें बस... बस हमारे पापा ठीक
हो जाएँ। यही हमारी प्राथमिकता है।" उसकी आवाज़ दृढ़ थी, लेकिन रात के अँधेरे में
उसकी आँखों में भी चिंता की गहरी लकीरें साफ़ देखी जा सकती थीं। "यहीं कहीं पर
बाबा की कुटिया होनी चाहिए... कलावती मौसी ने यही बताया था।"
तभी निखिल की नज़र कुछ दूर पर,
बिलकुल सन्नाटे के बीच, टिमटिमाते एक क्षीण प्रकाश पर पड़ी। उसकी आवाज़ में थोड़ी राहत
और उत्साह आया, "हाँ! देखो भैया! उधर से कुछ प्रकाश दिखाई दे रहा है! लगता है
वही उस बाबा की कुटिया है। चलो, उधर ही चलते हैं!"
निखिल, सबसे ज़्यादा उत्सुक और
शायद डर को भगाने की कोशिश में, यह कहकर आगे-आगे चल दिया। उसके पीछे सेठ ध्यानचंद और
सावित्री देवी धीरे-धीरे अनमने से, भारी क़दमों से बढ़ने लगे। और सबसे पीछे उनका बड़ा
बेटा राघव, उस रहस्यमयी प्रकाश की दिशा में अनिश्चित क़दमों से आगे बढ़ने लगा। उस डरावने
सन्नाटे में सिर्फ उनके क़दमों की आहट... सूखी पत्तियों के नीचे दबने की आवाज़... और
हवा की सरसराहट ही गूँज रही थी। वे एक अनजाने रास्ते पर चल रहे थे, एक अनजाने डर और
एक अनजानी उम्मीद के साथ।
***
उस अँधेरे में, टॉर्च की एक
अकेली, कंपकंपाती रोशनी आगे-आगे चल रही थी। निखिल उस रोशनी के साथ, थोड़े सहमे हुए क़दमों
से रास्ता बना रहा था। उसके ठीक पीछे उसका बड़ा भाई राघव था, जिसके चेहरे पर चिंता की
गहरी लकीरें और इस अपरिचित सफर का तनाव साफ दिख रहा था। उनके पीछे उनकी माँ, सावित्री
देवी, थीं, जिनकी आँखों में वर्षों की पीड़ा, बेबसी और एक अजीब सा डर घुला हुआ था। और
सबसे पीछे थे सेठ ध्यानचंद जी, जिनका कद-काठी वाला शरीर इस समय बेहद कमज़ोर और थका हुआ
लग रहा था। उनकी चाल धीमी थी, आँखें खाली थीं, और वे किसी रोबोट की तरह बस चले जा रहे
थे।
वे शहर और आबादी से बहुत दूर
निकल आए थे। हवा में नमी थी, सूखी पत्तियों की चरमराहट उनके क़दमों की आहट के साथ मिल
रही थी, और झींगुरों की लगातार झंकार इस वीरान रात के सन्नाटे को और भी गहरा बना रही
थी। दूर... बहुत दूर, उस अथाह अँधेरे में, एक क्षीण सा प्रकाश स्रोत दिखाई दे रहा था।
एक उम्मीद की किरण, या एक और गहरा गड्ढा – वे नहीं जानते थे।
जैसे-जैसे वे उस प्रकाश के करीब
आते जा रहे थे, वह प्रकाश तीव्र होता गया। शुरू में यह सिर्फ एक टिमटिमाती लौ जैसा
लग रहा था, लेकिन अब यह एक स्थिर, चमकता हुआ गोला बन गया था। धीरे-धीरे, प्रकाश के
इर्द-गिर्द कुछ अस्पष्ट आकृतियाँ भी नज़र आने लगीं। बीहड़ के बीच, एक अग्निकुंड जल रहा
था। उसकी लपटें धीमी थीं, लेकिन उनका प्रकाश आसपास के अँधेरे को चीर रहा था। उसी आग
के चारों ओर, तीन व्यक्ति बैठे थे। उनमें से एक के हाथ में चिलम जैसी कोई वस्तु थी,
जिसे वह फूंकता, एक गहरा कश लेता और फिर अपने साथियों को दे रहा था। धुएँ के अजीब से
छल्ले हवा में घुल रहे थे। उनकी धीमी-धीमी बातचीत के स्वर, जो पहले सिर्फ भुनभुनाहट
थे, अब हवा के साथ बहकर उन तक पहुँचने लगे थे।
राघव ने निखिल के कंधे पर हाथ
रखते हुए, बेहद धीमी, फुसफुसाती आवाज़ में कहा, "निखिल, लगता है... लगता है हम
सही जगह आ गए हैं।" उसकी आवाज़ में अनिश्चितता थी।
निखिल ने भी धीरे से उत्तर दिया,
उसकी आँखें सामने टिकी थीं। "यह सही-गलत जगह का तो पता नहीं भैया, लेकिन हम वहाँ
ज़रूर पहुँच गए हैं जहाँ हमें आज जाना था। मौसी ने यहीं कहीं बताया था।" उसने अग्निकुंड
के पास बैठे लोगों की ओर देखा। "लगता है... लगता है यही वे तांत्रिक बाबा हैं।"
तभी, एक व्यक्ति (पहला व्यक्ति),
जिसने अभी-अभी चिलम में एक गहरा दम लगाया था, धुएँ का गुबार छोड़ते हुए, ज़ोर से बोला,
उसकी आवाज़ रात के सन्नाटे में गूँजी और डरावनी लगी, "चिलम चमेली फूंक दे दुश्मन
की हवेली!"
“लगा दम मिटा गम, कमायेगी दुनिया
आयेंगे हम” दूसरे व्यक्ति ने नारा लगाया और हाथ में थमी चिलम जो कि पहले व्यक्ति ने
उसे थी, उसमें दम लगाने ही वाला था कि उसकी नज़र उस अँधेरे में अपनी ओर बढ़ते चार लोगों
पर पड़ी। उसने तुरंत चिलम नीचे रखी और पास बैठे तीसरे व्यक्ति, जो स्पष्ट रूप से उन
सब का मुखिया 'उस्ताद' था, से कहा, उसकी आवाज़ में थोड़ी घबराहट थी, "उस्ताद...
लगता है कोई हमारी ओर आ रहा है।"
वह व्यक्ति, जिसे 'उस्ताद' कहकर
संबोधित किया गया था, तांत्रिक बाबा। उसने अपनी लाल, नशेड़ी आँखों से उनकी ओर घूरा।
उसके चेहरे पर एक अजीब सी कठोरता और रौब था। उसने अपनी कमर सीधी की और कड़क, गरजती हुई
आवाज़ में कहा, जिसने सबको चौंका दिया, "वहीं रुक जाओ! एक कदम भी आगे मत बढ़ाना!
वरना... वरना इसी क्षण भस्म कर दूंगा! राख बना दूंगा!"
यह डरावनी, अचानक आई धमकी सुनकर
सेठ ध्यानचंद का पूरा परिवार भयभीत होकर वहीं ठिठक गया, जैसे ज़मीन में जम गए हों। ध्यानचंद
जी, जो पहले से ही कमज़ोर और थके हुए थे, इस धमकी से और भी कांप उठे। निखिल ने अपने
डर पर काबू पाने की कोशिश की। उसने साहस बटोरकर, ऊँची, थोड़ी कांपती आवाज़ में कहा,
"तांत्रिक बाबा! बाबा! हमें आपके पास कलावती मौसी ने भेजा है! हम... हम अपने पापा
का इलाज कराने आपके पास आए हैं!"
तांत्रिक बाबा ने कुछ क्षणों
तक उन्हें अँधेरे में घूरा, उनकी आँखों में किसी चीज़ का मूल्यांकन करने का भाव था।
फिर उसकी आवाज़ अपेक्षाकृत नरम हुई, लेकिन उसमें अभी भी एक अधिकार था। "ठीक है
बच्चा," उसने कहा। "वहीं रुको। जब तक मैं न कहूँ, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना।"
उसने हवा में हाथ घुमाते हुए कुछ बुदबुदाया। "मैं आसपास के भूत, प्रेत, जिन्न,
चुड़ैलों को आदेश देता हूँ कि वह तुम्हें आने दें... वे तुम्हारा रास्ता छोड़ दें। लेकिन...
जब तक मैं न कहूँ, मेरे पास आने की जुर्रत मत करना।"
निखिल ने फौरन सहमति में सिर
हिलाया, "ठीक है बाबा।"
तांत्रिक बाबा ने फिर आँखें
बंद कर लीं और जोर-जोर से कुछ अस्पष्ट, रहस्यमय मंत्र बुदबुदाने लगा। उसकी आवाज़ कभी
धीमी होती, कभी तेज़, और उसमें एक अजीब सा खिंचाव और लय थी। कुछ देर तक यह क्रम चलता
रहा, फिर वह रुका और आँखें खोलीं। उसके चेहरे पर एक बनावटी गंभीरता थी।
"अब तुम निडर होकर आगे
बढ़ो," उसने कहा। "अब यहाँ कोई तुम्हारी राह नहीं रोकेगा। कोई तुम्हारा कुछ
नहीं बिगाड़ सकता।" उसने अग्निकुंड की ओर इशारा किया। "लेकिन... पहले तांत्रिक
बाबा का जयकारा लगाओ!"
राघव, निखिल और सावित्री देवी
ने एक-दूसरे की ओर देखा। इस अजीब सी जगह पर, इस अजीब सी मांग पर उन्हें थोड़ी झिझक हुई,
लेकिन वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। एक साथ, उन्होंने अपनी आवाज़ें मिलाईं और ज़ोर
से नारा लगाया, "तांत्रिक बाबा की जय हो!"
ध्यानचंद जी ने अपने परिवार
को इस तरह जयकारा लगाते हुए आश्चर्य और कुछ हद तक अविश्वास से देखा। उनके चेहरे पर
वही पुरानी पीड़ा और झुंझलाहट लौट आई थी, मानों यह सब उनके लिए एक मज़ाक या यातना हो।
वे सब धीरे-धीरे आगे बढ़े और उन व्यक्तियों के पास पहुँच गए, जहाँ अग्निकुंड की गर्मी
अब महसूस होने लगी थी।
तांत्रिक बाबा ने अग्निकुंड
के पास बिछे घास-फूस के एक मोटे, आसन की ओर इशारा करते हुए कहा, "यहाँ बैठ जाओ
सब। अग्निकुंड के पास... यहीं बैठकर समस्या बताओ।"
उसके दोनों चेले तुरंत उठकर
खड़े हो गए, मानों मेहमानों के लिए जगह बना रहे हों। ध्यानचंद का पूरा परिवार उस अस्थायी
आसन पर बैठ गया। हवा में अब धुएँ और जलती लकड़ी की गंध घुल गई थी।
तांत्रिक बाबा ने अपनी चिलम
में एक और गहरा दम लगाया, धुएँ के गाढ़े छल्ले हवा में उड़ाते हुए उसने सावित्री देवी
की ओर देखा। "कलावती का फोन आया था," उसने कहा, उसकी आवाज़ में एक पेशेवर
गंभीरता थी। "उसने बताया कि उसकी बहन के पति को... यानि तुम्हारे पति को... कुछ
ऊपरी समस्या है। कोई बाधा है। तुम मुझे सारी बात विस्तार से बताओ ताकि मैं समस्या की
जड़ तक पहुँच सकूँ और उसका ठीक से पता लगा सकूँ।"
सावित्री देवी ने रुंधे गले
से, अपनी सारी पीड़ा और चिंता उड़ेलते हुए, अपने पति की बिगड़ती हालत, डॉक्टरों की नाकामी,
उनकी चुप्पी, कमरे में बंद रहना और कलावती मौसी द्वारा उनके बारे में बताए जाने तक
की सारी घटनाएँ विस्तार से बताईं। उनकी आवाज़ बीच-बीच में भर्रा जाती थी, और वे आँसू
पोंछती रहती थीं। तांत्रिक बाबा बड़ी गंभीरता और ध्यान से सब सुनता रहा, बीच-बीच में
रहस्यमय ढंग से सिर हिलाता रहा, मानों हर बात को समझ रहा हो। जब सावित्री देवी ने अपनी
बात समाप्त की, तो वह सीधा हुआ और कड़क कर बोला, उसकी आवाज़ में एक निर्णायक भाव था,
"हम्म... मैं सब समझ गया। सब समझ गया!" उसके चेहरे पर आत्मविश्वास आ गया
था। "चिंता मत करो बच्चा, आज... बल्कि अभी इसी क्षण... सेठ जी यहाँ से बिल्कुल
ठीक होकर जाएँगे। मैं अभी पता लगाता हूँ कि वह कौन सी दुष्ट शक्ति है... कौन है जो
तुम्हारे परिवार को दुखी कर रहा है... जिसने सेठ जी को जकड़ रखा है।" उसने एक पल
रुककर, अपनी बात पर ज़ोर दिया, "लेकिन... पहले ही बता देता हूँ, इसमें खर्चा थोड़ा
ज़्यादा हो जाएगा। प्रेत बाधा का इलाज सस्ता नहीं होता।" उसने हवन कुंड की ओर इशारा
किया। "हवन भी करना पड़ेगा... और प्रेत बिरादरी को प्रसन्न करने के लिए भंडारा
भी। वरना प्रेत नाराज़ हो जाएंगे... और जब भूत-प्रेत नाराज़ हो जाते हैं... तो तुम्हारा
सब कुछ बर्बाद कर देंगे... जो कुछ कमाया है, सब मिट्टी में मिल जाएगा।"
राघव ने तुरंत, बिना किसी हिचकिचाहट
के कहा, "आप पैसे की चिंता मत करिए तांत्रिक बाबा। जो भी आप कहेंगे, जितना कहेंगे,
हम दे देंगे।" उसके लिए इस समय पिता का स्वास्थ्य सबसे ऊपर था। "लेकिन...
लेकिन हमारे पिताजी ठीक हो जाने चाहिए। पैसा कोई हमारे पिताजी से अधिक कीमती थोड़ा ही
नहीं है। उनकी जान बच जाए... बस। आप बताइए... कितना खर्च होगा?"
तांत्रिक ने रहस्यमयी, थोड़ी
लालची आवाज़ में, जैसे कोई बड़ा राज खोल रहा हो, कहा, "बस यही कोई... एक लाख रुपये।
इससे कम में काम नहीं होगा।" उसने राघव की ओर देखा। "आपके लिए तो यह मामूली
रकम है। कलावती ने बताया था कि आप तो नगर के बड़े सेठ हैं... धनवान हैं।"
सावित्री देवी ने बिना किसी
हिचकिचाहट के, तुरंत सहमति दी। उनके लिए एक लाख रुपये उस समय पति की सेहत के आगे कुछ
नहीं थे। "ठीक है बाबा," उन्होंने कहा। "आप इलाज शुरू करिए। हम एक लाख
रुपये देने के लिए तैयार हैं। आप बस हमारे पति को ठीक कर दीजिए।"
"ठीक है, तो फिर शुरू करते
हैं," तांत्रिक ने संतोष के भाव से कहा और अपने दोनों साथियों की ओर देखकर आदेश
दिया, "चेलो! चलो हवन की तैयारी करो। सामग्री निकालो! मैं... मैं भूत-प्रेतों
का आह्वान करता हूँ। उन्हें बुलाता हूँ।"
तांत्रिक बाबा के साथी तुरंत
सक्रिय हो गए। उन्होंने पास पड़ी लकड़ियों का ढेर अग्निकुंड में डाला और घी डालकर आग
को और तेज़ प्रज्वलित किया। लपटें ऊँची उठने लगीं। तांत्रिक बाबा आँखें बंद करके बैठ
गया और जोर-जोर से कुछ बुदबुदाने लगा। उसकी आवाज़ कभी धीमी होती, कभी तेज़, और उसमें
एक अजीब सा नाटकीय खिंचाव था। वह मंत्रों का जाप कर रहा था, जो अटपटे और समझने में
मुश्किल थे।
"जय काली कलकत्ते वाली,
तेरा वचन न जाए खाली!" वह नाटकीय ढंग से चिल्लाया। "दौड़ के जा! दौड़ के जा!
ओ भूतों के राजा, जल्दी दौड़ के आजा! जिसने इसको सताया है... जिसने सेठ को जकड़ा है...
उसका पता बता जा!"
उसने हवन सामग्री से एक मुट्ठी
उठाई और तेज़ी से अग्निकुंड में झोंक दी। आग और तेज़ हो गई। "अगड़म बगड़म दही चटाका,
अगड़म बगड़म दही चटाका," वह बुदबुदाया, "दौड़ के जा, दौड़ के आ! अगड़म बगड़म दही
चटाका, दौड़ के जा, दौड़ के आ!" उसका शरीर हिलने लगा था।
"पकड़ा जकड़ा, पड़ा जकड़ा,
पड़ा जकड़ा," वह और ज़ोर से चिल्लाया, उसकी आवाज़ में अब एक उन्माद था। "दौड़
के आजा! "दौड़ के आजा! कुण्डी ताले तोड़
के आजा!"
अचानक वह रुका, आँखें आधी खोलीं,
और उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान उभरी, जैसे किसी अदृश्य शक्ति से बात कर रहा हो।
"आ गया! हाँ! आ गया!" वह विजयी भाव से बोला। "ठीक बोल... हाँ हाँ...
मेरे कान में बोल! बोल दे... बोल दे... मैं सब समझ गया! बोल दे... सब बोल दे... सब
बोल दे! शाबाश मेरे प्रेतराज! तूने सही बताया! मैं सब जान गया... समझ गया!" उसने
एक पल रुककर, जैसे किसी अदृश्य शक्ति को संबोधित कर रहा हो, "चल अब तू पहरे पर
खड़ा हो जा। मैं सब ठीक कर दूँगा! मुझसे ज़्यादा बलशाली तांत्रिक कोई नहीं! जो मुझसे
टकराएगा... चूर-चूर हो जाएगा!"
फिर उसने हवा में फूंक मारी,
"जा... जा... जा! फू, फू, फू!"
तांत्रिक बाबा ने धीरे-धीरे
अपनी आँखें पूरी खोलीं और सामने डरे-सहमे बैठे परिवार की ओर देखा। उसके चेहरे पर एक
भयानक गंभीरता थी, जो उसके अभिनय का हिस्सा थी। "मुझे सब पता लग गया," उसने
कहा, आवाज़ में एक निर्णायक रौब था। "वही दुष्ट है तुम्हारा दुश्मन। वही नहीं चाहता
कि तुम्हारा परिवार सुखी रहे। वही दुष्ट अधिराज... जिसके बेटे से तुम रिश्ता करना चाहते
थे अपनी बेटी का... वही! उसने सेठ जी पर जिन्न छुड़वाया है! बड़ा शक्तिशाली जिन्न है...
बहुत जिद्दी! लेकिन... लेकिन मुझसे ज़्यादा शक्तिशाली नहीं। मैं आज ही... अभी इसी क्षण...
उसे भगा दूँगा!"
राघव ने सहमी हुई आवाज़ में,
लगभग फुसफुसाते हुए कहा, "ठीक है बाबा... आप हमारे पिताजी को ठीक करिए।"
"देखो भाई," बाबा
ने गंभीरता से कहा, उसकी आवाज़ में अब एक आदेश था। "अब मैं सेठ जी का इलाज शुरू
करूँगा। यह क्रिया बहुत कठिन है। और यहाँ बहुत सारे भूत-प्रेत अब उपस्थित होने वाले
हैं... यह जिन्न उन्हें बुलाएगा। आपको किसी भी बात से डरना नहीं है। जब तक मैं यहाँ
हूँ, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। डर लगे... बहुत डर लगे तो आँखें बंद कर लेना।
लेकिन..." उसने अपनी आँखें बड़ी कीं और ज़ोर दिया, "सेठ जी को यहीं छोड़ दो
और आप सब वहाँ दूर जाकर बैठो। अपना स्थान मत छोड़ना... बिलकुल मत हिलना... वरना कुछ
गड़बड़ हो जाएगी। प्रेत तुम्हें जकड़ सकते हैं।"
फिर अपने चेलों से बोला,
"अरे तुम लोग! चलो! इन्हें ले जाओ और वहाँ दूर बैठा दो। और जगह को मंत्र पूरित
कर देना... एक घेरा बना देना ताकि कोई प्रेत... कोई बुरी आत्मा इनको नुकसान न पहुँचा
दे।"
तांत्रिक के दोनों साथी तुरंत
सक्रिय हो गए। उन्होंने राघव, निखिल और सावित्री देवी को लगभग उठाकर अपने साथ कुछ दूरी
पर ले गए। वहाँ घास-फूस का एक और आसन बिछा था, जो पहले वाले से छोटा और कच्चा था, जिस
पर उन्होंने तीनों को बिठा दिया। फिर उनमें से एक चेला, आँखों में अजीब भाव लिए, कुछ
मंत्र पढ़कर उनके चारों ओर उंगली से ज़मीन पर एक काल्पनिक रेखा खींचने लगा, जैसे कोई
सुरक्षा कवच बना रहा हो।
सेठ ध्यानचंद जी अकेले उस धधकते हवन कुंड के पास, उस भयानक तांत्रिक
के सामने असहाय और शायद भयभीत से बैठे रह गए। उनका परिवार कुछ दूरी से... अँधेरे में...
चिंता, भय और अनिश्चितता के साथ यह सब देखता रहा। हवा में तंत्र-मंत्र की अजीब ध्वनियाँ,
आग की लपटों का शोर और उनके अपने दिल की धड़कनें घुल गई थीं। उन्हें नहीं पता था कि
आगे क्या होने वाला है, लेकिन उनके मन में एक गहरी आशंका घर कर गई थी।
***
वातावरण में एक अजीब सी रहस्यमयता
और तनाव घुला हुआ था, जिसे कभी-कभी दूर से आती बिल्लियों के म्याऊं-म्याऊं करने की
डरावनी आवाज़ या फिर किसी अज्ञात पक्षी की चीख... और कभी दूर कहीं से आती उल्लू की मनहूस
हुआं-हुआं और भी गहरा कर रही थी। इस विशाल, खुले अँधेरे आसमान के नीचे, धरती पर एक
अग्निकुंड धधक रहा था, जिसकी लपटें ऊपर उठकर रात के अँधेरे को काट रही थीं और अजीब
सी परछाइयाँ बना रही थीं।
अग्निकुंड की एक ओर, एक व्यक्ति
बैठा था जिसके माथे पर भस्म और सिंदूर का गाढ़ा लेप था, जिससे उसका चेहरा और भी भयावह
लग रहा था। उसकी आँखें मूंदी थीं और वह कुछ बुदबुदा रहा था, पूरी तरह से अपनी तंत्र
क्रिया में लीन। उसके ठीक सामने, कुछ दूरी पर, सेठ ध्यानचंद पालथी मारे बैठे थे। उनका
चेहरा उदासीन था, लेकिन उनकी आँखें अपलक उस तांत्रिक पर टिकी थीं, मानो वे उसके हर
हाव-भाव, हर क्रिया को अपने भीतर सोखकर समझने की कोशिश कर रहे हों। ध्यानचंद के पीछे,
तांत्रिक के दो हृष्ट-पुष्ट सहायक किसी भयानक प्रहरी की भांति खड़े थे। उनकी आँखों में
भी तांत्रिक की क्रियाओं के प्रति गहरा कौतूहल था, और शायद अपने गुरु के शक्ति प्रदर्शन
का विश्वास भी।
कुछ और दूरी पर, जहाँ अग्निकुंड
का ताप सीधे उन तक नहीं पहुँच रहा था, सेठ ध्यानचंद की पत्नी सावित्री देवी, और उनके
दो युवा पुत्र राघव व निखिल, सहमे हुए बैठे थे। तांत्रिक की चेतावनी कि 'अपने स्थान
से मत हिलना' उनके कानों में गूँज रही थी। वे भी बड़ी उत्सुकता और भय के साथ तांत्रिक
को देख रहे थे, परन्तु दूरी अधिक होने के कारण तांत्रिक के मुख से निकलती विचित्र,
कर्कश ध्वनियाँ उन तक स्पष्ट रूप से नहीं पहुँच पा रही थीं, केवल एक अस्पष्ट भुनभुनाहट
ही सुनाई दे रही थी, जो हवा के साथ बहकर आ रही थी।
अग्निकुंड के पास एक बड़ी सी
पीतल की परात रखी थी, जिसमें नाना प्रकार की हवन सामग्री – जड़ी-बूटियाँ, अनाज, और कुछ
अजीब सी वस्तुएँ रखी थीं। तांत्रिक ने अचानक उस परात में से एक मुट्ठी सामग्री उठाई
और तेज़ी से धधकते अग्निकुंड में झोंक दी। सामग्री पड़ते ही अग्नि प्रचंड वेग से भड़क
उठी, उसकी लपटें पहले से भी ऊँची उठने लगीं और चारों ओर प्रकाश फैल गया। इसके साथ ही
तांत्रिक और भी ज़ोर-ज़ोर से, एक अजीब सी कर्कश और उन्मादी आवाज़ में बड़बड़ाने लगा।
"अरे दुष्ट जिन्न!"
वह चीखा, उसकी आवाज़ में नशा और धमकी थी। "जल्दी से बाहर आ! बाहर निकल उसके शरीर
से!" उसकी आँखें अब आधी खुली थीं और लाल दिख रही थीं। "अगर तू शीघ्र प्रकट
नहीं हुआ तो ऐसी मार लगाऊँगा... ऐसी मार लगाऊंगा कि जीवन भर किसी मनुष्य के शरीर में
घुसने का साहस नहीं कर पाएगा! मेरी शक्तियाँ... मेरा मंत्र... तुझे भस्म कर देगा!"
उसने फिर एक मुट्ठी सामग्री
अग्निकुंड में डाली और उन्मादी स्वर में चिल्लाया, "पकड़! पकड़ मेरे प्रेत राजा!
पकड़ कर ला उस दुष्ट जिन्न को! मेरी सारी शक्तियाँ... मेरे सारे गण जाओ और उस दुष्ट
को पकड़ कर लाओ! मेरे समक्ष उसकी नाक रगड़वा दो! जल्दी आ! जल्दी आ! जल्दी आ!" उसकी
साँस फूलने लगी थी।
वह हाँफने लगा, फिर हवन कुंड
में और अधिक सामग्री झोंकी और पहले से भी अधिक ऊँचे स्वर में, किसी पागलों की तरह चिल्लाना
शुरू कर दिया, "प्रेत नहीं... तो डाकिनी... पिशाचिनी! तुम सब भी जाओ! जाओ और उस
जिन्न को अभी पकड़ कर लाओ! वह बच नहीं सकता! मैं आज उसे पकड़ कर बोतल में बंद कर दूँगा!
गहरे समुद्र में... सातवें पाताल में डुबो दूँगा! इसी अग्नि में... इसी अग्नि में भस्म
कर दूँगा!" उसका पूरा शरीर कांप रहा था, या शायद वह अभिनय कर रहा था।
अचानक उसके चेहरे पर एक कुटिल,
विजयी मुस्कान उभरी। "अच्छा... अच्छा... डर गया? आ गया... आ गया!" वह विजयी
भाव से बोला, जैसे किसी अदृश्य शक्ति से बात कर रहा हो। "हाँ... आ गया!"
उसने एक पल रुककर, जैसे किसी अदृश्य शक्ति को शाबाशी दे रहा हो, फुसफुसाया, "शाबास!
शाबास! जल्दी आ जा! बैठ जा उसकी गर्दन पर!"
फिर वह सीधे ध्यानचंद की ओर
मुखातिब हुआ, उसकी आँखें लाल अंगारे सी दहक रही थीं और आवाज़ पहले से भी ज़्यादा भारी
और डरावनी थी। "बोल! कौन है तू?" उसने ध्यानचंद की ओर उंगली उठाई।
ध्यानचंद शांत रहे, उनकी आँखों
में अभी भी वही अविश्वास और कुछ झुंझलाहट थी। उन्हें चुप देखकर तांत्रिक पुनः गरज उठा,
उसका क्रोध अब वास्तविक लगने लगा था, "अरे बोल दुष्ट! जल्दी बोल कौन है तू? मैं
तुझसे ही कह रहा हूँ! बोल जा... वरना इसी क्षण भस्म कर दूँगा! राख कर दूंगा!"
"मेरा नाम ध्यानचंद है,"
ध्यानचंद ने शांत किन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, जैसे तांत्रिक के नाटक से तंग आ
गए हों। "और यह पूरा नगर मुझे सेठ ध्यानचंद के नाम से जानता है। आप चाहें तो सुबह
किसी से भी पूछ सकते हैं।"
"अच्छा! अच्छा! अभी भी
नहीं डर रहा तू?" तांत्रिक ने अपनी लाल-लाल आँखें और बड़ी करते हुए कहा, आवाज़ में
अविश्वसनीयता थी। "मैं कह रहा हूँ सच बोल जा! तू ध्यानचंद के शरीर में है! तू
ध्यानचंद नहीं है! तू जिन्न है! मैं तुझसे बात कर रहा हूँ, जिन्न! सच बोल! अपना नाम
बता!"
"मैं सच बोल रहा हूँ,"
ध्यानचंद ने अब स्पष्ट झुंझलाहट के साथ कहा। उनका चेहरा कुछ तमतमा गया था। "मैं
कोई जिन्न नहीं हूँ। मैं ध्यानचंद हूँ। सेठ ध्यानचंद। और अब... अब यह अग्निकुंड से
निकलने वाला धुआँ मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है। मेरी आँखें जल रही हैं। इसको बंद
कर!" उनका स्वर अब नाराजगी से भर गया था। यह सब नाटक उनकी सहनशक्ति से बाहर होता
जा रहा था।
"अच्छा! तू... तू तांत्रिक
बाबा झूमरू दास को धमकाता है?" तांत्रिक का अहंकार जैसे बुरी तरह आहत हो गया।
उसकी आँखों में भयानक क्रोध था। "अरे, तेरे जैसे हज़ारों जिन्नों को अब तक मैं
इस अग्निकुंड में भस्म कर चुका हूँ! राख बना चुका हूँ! तू किस खेत की मूली है? तेरी
औकात क्या है?" उसने पास ही रखे लोहे के एक बड़े से, भारी चिमटे को उठाया और उसे
हवा में लहराकर ध्यानचंद की ओर बढ़ा। "जल्दी बोल हरामखोर जिन्न! तू कौन है और तुझे
किसने भेजा है? वरना... वरना मेरा यह चिमटा... मेरे मंत्रों से सिद्ध किया हुआ यह चिमटा
तेरे बदन के आर-पार हो जाएगा! तेरे टुकड़े-टुकड़े कर देगा!" तांत्रिक ने चिमटे को
नीचे रखा और ध्यानचंद के सर के बालों को जोर से पकड़ कर उसके सर को चारों ओर घुमाने
लगा।
सेठ ध्यानचंद का धैर्य अब सचमुच
जवाब दे चुका था। उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, उनकी आँखों में वर्षों का संयम टूटता
नज़र आया। इस अपमान... इस धमकी ने उनके भीतर दबे हुए क्रोध और पीड़ा को ज्वालामुखी की
तरह विस्फोटित कर दिया। किसी प्रकार उन्होंने अपनी गर्दन तांत्रिक के हाथों की पकड़
से छुड़ाई, जो उन्हें खींचने की कोशिश कर रहा था। और फुर्ती से... हाँ, उस शरीर में
अप्रत्याशित फुर्ती आई थी... उन्होंने पास रखा वही भारी चिमटा उठा लिया जिसे तांत्रिक
ने अभी रखा था।
यह उस अपमान, पीड़ा और शायद कुछ
अज्ञात आंतरिक शक्ति का प्रभाव था, किन्तु सेठ ध्यानचंद के शरीर में जो शक्ति और स्फूर्ति
आई, वह देखने लायक थी। वह आदमी, जो पिछले कई दिनों से निढाल और उदासीन बैठा था, अचानक
एक योद्धा जैसा लगने लगा। उन्होंने पूरी ताकत से चिमटा घुमाया और तांत्रिक की कमर में
दे मारा। चिमटा इतनी ज़ोर से पड़ा था कि तांत्रिक के मुँह से एक दर्दनाक, अस्फुट चीख
निकल गई। वह अपनी कमर पकड़कर चिल्लाने लगा, "अरे मार डाला! ओए! बचाओ! कोई बचाओ!
वरना ये... ये जिन्न मेरी जान ले लेगा!"
सेठ ध्यानचंद रुके नहीं। उनका
हाथ रुका नहीं। क्रोध की ज्वाला उनके भीतर धधक रही थी। उन्होंने पुनः चिमटा ऊपर उठाया
और पूरी ताकत से तांत्रिक को दे मारा। इस बार चिमटा उसके बाएँ कंधे पर पड़ा। जैसे ही
दूसरा चिमटा पड़ा, वह और ज़ोर से... और भयानक तरीके से चिल्ला उठा, "मार दिया रे!
मार दिया! भागो रे!" वह अपने चेलों की ओर देखकर गिड़गिड़ाया, "अरे बचाओ! मुझे
बचाओ रे!"
तांत्रिक के चेले भी पहली बार
यह अजूबा देख रहे थे। उन्होंने अपने गुरु को जिन्नों और प्रेतों से लड़ते देखा था, पर
किसी आदमी को ऐसे भयानक रूप में, अपने ही गुरु को मारते हुए कभी नहीं देखा था। उन्होंने
भी यही समझा कि वास्तव में सेठ के शरीर में कोई अत्यंत शक्तिशाली जिन्न हाज़िर हो गया
है और वही उनके गुरु को मार रहा है। उनमें से एक चेला तो इतना डरा कि पलक झपकते ही
उल्टे पाँव भागा और दूर अँधेरे में... टीलों के पीछे कहीं गुम हो गया। लेकिन दूसरे
चेले ने कुछ हिम्मत दिखाई। जैसे ही वह सेठ ध्यानचंद की ओर बढ़ा, ध्यानचंद ने पलक झपकते
ही चिमटा घुमाया और उसकी टाँगों पर दे मारा। तांत्रिक का चेला "हाय-हाय"
करता हुआ वहीं ज़मीन पर लोटपोट हो गया, दर्द से कराहने लगा। किन्तु ध्यानचंद का क्रोध
शांत नहीं हुआ था। वह चिमटे से उन पर बार-बार वार कर रहे थे, उनकी आँखों में बदले की
आग जल रही थी।
उन्होंने फिर तांत्रिक पर चिमटे
से दो बार और ज़ोरदार वार किया। तांत्रिक पूरी तरह से हिम्मत हार चुका था। उसे समझ आ
गया था कि यहाँ रुकना अपनी जान गँवाना है। उसने भागकर जान बचाने में ही अपनी भलाई समझी।
वह किसी प्रकार लंगड़ाता हुआ उठा और तेज़ी से अँधेरे की ओर भागने लगा। ध्यानचंद ने उसे
भागते देखा और क्रोध में उसकी ओर दौड़े। कुछ ही क्षणों में उन्होंने उसे पकड़ लिया तथा
पुनः चिमटे से अंधाधुंध वार करना शुरू कर दिया। तांत्रिक चीखता-चिल्लाता, अपनी जान
की भीख मांगता किसी प्रकार ध्यानचंद की पकड़ से छूटकर भागा और घने अँधेरे में विलीन
हो गया। तांत्रिक का दूसरा चेला भी कब का दर्द से कराहना बंद करके चुपचाप नौ दो ग्यारह
हो चुका था।
सेठ ध्यानचंद हाँफते हुए वापस
अग्निकुंड के पास आए। चिमटा उनके हाथ में था, और उनका चेहरा क्रोध तथा उत्तेजना से
तमतमा रहा था।
उनके दोनों बेटे राघव व निखिल
और पत्नी सावित्री देवी दूर बैठे हुए यह सब कुछ अविश्वसनीय नज़रों से देख रहे थे। भय
के मारे उनकी आँखें फटी रह गई थीं। उन्होंने भी यही समझा कि सच में ही उनके पिता के
शरीर में छिपा हुआ जिन्न बाहर आ गया है और वह तांत्रिक से ज़्यादा शक्तिशाली था, इसीलिए
उसने तांत्रिक व उसके साथियों को इतनी बेरहमी से मार कर भगा दिया। उनके मन में अपने
ध्यानचंद के पास जाने की तीव्र इच्छा हुई, किन्तु जिन्न का भय और तांत्रिक की अंतिम
चेतावनी कि 'अपने स्थान से मत हिलना, वरना कुछ गड़बड़ हो जाएगी' याद करके वे अपनी जगह
से उठे नहीं और भय से एक-दूसरे की बाँहों को कसकर पकड़े वहीं पत्थर की मूर्तियों की
तरह जमे रहे।
सेठ ध्यानचंद ने चारों ओर देखा।
अब वहाँ न तो वह ढोंगी तांत्रिक था, न उसके कपटी शिष्य। केवल अग्निकुंड था, जिसमें
लकड़ियाँ अभी भी तेज़ी से जल रही थीं और उसकी लपटें रात के अँधेरे को चीरकर भयावह दृश्य
बना रही थीं। उन्होंने पास रखे हुए एक बर्तन से पानी उठाया और धधकते अग्निकुंड में
डालकर उसे बुझा दिया। 'चsssss' की आवाज़ के साथ अग्नि बुझ गई और वहाँ घना अँधेरा छा
गया। अँधेरे का लाभ उठाकर ध्यानचंद चुपचाप एक ओर बढ़े... बिना किसी की ओर देखे, बिना
कुछ कहे। और चलते-चलते उसी अथाह अँधेरे में कहीं गायब हो गए।
***
यह सब भयावह दृश्य देखने के
बाद भी ध्यानचंद की पत्नी सावित्री देवी व बेटे राघव तथा निखिल भयभीत अवस्था में बहुत
देर तक अपने स्थान पर मूर्तिवत स्थिर रहे। उनके दिल तेज़ी से धड़क रहे थे और साँसें भारी
हो गई थीं। उस सन्नाटे में अपने पिता के लापता होने का एहसास धीरे-धीरे उन पर हावी
होने लगा। अंत में निखिल ने, डर के बावजूद, थोड़ी हिम्मत बटोरी। उसकी आवाज़ कांप रही
थी। "माँ... भैया..." उसने कहा, "पिताजी... पिताजी तो दिखाई नहीं दे
रहे... वह कहाँ चले गए?" उसने चारों ओर अँधेरे में देखने की कोशिश की। "वह
तांत्रिक व उसके साथी तो शायद... शायद भाग गए हैं। अब यहाँ... यहाँ इस अँधेरे के कारण
कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है।" उसने माँ से पूछा, उसकी आवाज़ में अब चिंता थी,
"आप ही बताइए, माँ... कब तक हम यहाँ बैठे रहेंगे? चलो... चलो चलकर पिताजी को देखते
हैं। कहीं उनके साथ... कहीं अँधेरे में उनके साथ कुछ अनहोनी न हो जाए।"
राघव ने, जो अभी भी सदमे में
था, अपने छोटे भाई को समझाने की कोशिश की, हालाँकि उसकी अपनी आवाज़ भी अनिश्चित थी।
"निखिल... अभी... अभी हमें यहीं बैठना चाहिए। तांत्रिक ने चेतावनी दी थी... याद
है ना? कि अगर हमने अपना स्थान छोड़ा तो कुछ भी हो सकता है। तुम देख रहे हो... पिताजी
के शरीर में छिपा हुआ... छिपा हुआ जिन्न बाहर आ चुका है। वह हमें भी... हमें भी नुकसान
पहुँचा सकता है।" उसने उस भयानक दृश्य को याद किया जब ध्यानचंद ने तांत्रिक को
मारा था।
निखिल ने फिर हिम्मत करके, अपने
मन में उठे एक तर्क को ज़ोर से कहा, "नहीं भैया... मेरा तो विचार यह है कि... वह
तांत्रिक पिताजी के साथ जो बदतमीज़ी कर रहा था... जिस तरह उन्हें अपमानित कर रहा था...
पिताजी उसे बर्दाश्त नहीं कर पाए। उनका गुस्सा फूट पड़ा। इसलिए उन्होंने ऐसा किया।"
उसकी आवाज़ में आश्चर्य था, "लेकिन मैं भी आश्चर्यचकित हूँ कि मेरे पिता में इतनी
ताकत कहाँ से आई! जबकि वह कई दिनों से ठीक प्रकार से खाना भी नहीं खा रहे हैं... कमज़ोर
हो गए थे। कुछ न कुछ तो गड़बड़ है... यह सब सामान्य नहीं था।" उसने फिर आग्रह किया,
"चलो... उठकर देखते हैं।"
राघव ने भी निखिल की बात में
कुछ सच्चाई महसूस की। पिता का वह अचानक फूटा हुआ क्रोध... वह असाधारण शक्ति... क्या
वह वाकई जिन्न था? या कुछ और? इस अनिश्चितता के बावजूद, अपने पिता के प्रति उनका प्यार
उनके भय पर हावी हो गया। हिम्मत करके तीनों ही उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने मोबाइल फोन
की टॉर्च ऑन की और उसकी टिमटिमाती रोशनी में उस वीरान इलाके में इधर-उधर अपने पिता
की तलाश करने लगे। वे बहुत डरे हुए थे, हर आहट से चौंक रहे थे, लेकिन "पिताजी!
पिताजी!" की आवाज़ें उनके गले से निकल रही थीं। लगभग एक घंटे तक वे भटकते रहे,
ऊंची-नीची ज़मीन पर ठोकरें खाते रहे, लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। वह विशाल, शांत अँधेरा
उन्हें चिढ़ा रहा था।
अंततः हारकर, सावित्री देवी
रुआँसी होकर एक टीले पर बैठ गईं। "बेटा राघव..." उनकी आवाज़ में गहरा दुख
था, "तुम्हारे पिताजी... तुम्हारे पिताजी हमसे रूठ कर कहीं चले गए हैं... या उन्हें...
उन्हें वही जिन्न... वही भूत कहीं ले गया है। हमें छोड़कर चले गए।" उनके आँसू बहने
लगे। "अब... अब कुछ सोचो कि क्या किया जाए। ऐसे कैसे होगा?"
निखिल तुरंत बोला, उसका मन अब
पूरी तरह तर्क की ओर मुड़ गया था। "भैया, पिताजी के साथ कोई और अनहोनी न हो जाए...
इस अँधेरे में... इस सुनसान जगह में... इसलिए जल्दी से जल्दी पुलिस को खबर कर दो! शायद
पुलिस उन्हें ढूँढ़ निकाले।" उसने हताशा से कहा, "हम इस मोबाइल फोन की टिमटिमाती
रोशनी में इस निर्जन स्थान में उन्हें कैसे ढूँढ़ पाएँगे? यहाँ तो अँधेरा ही अँधेरा
है। पिताजी सारे दीपक... और अग्निकुंड की अग्नि को पहले ही बुझा कर चले गए हैं। इस
अँधेरे में कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा। यदि आसपास कहीं पिताजी होंगे भी... तो भी हमें
नहीं मिलने वाले। पिताजी यहाँ आने के लिए पहले ही तैयार नहीं थे... बिलकुल नहीं आना
चाहते थे। हम ही उन्हें ज़बरदस्ती लाए थे... कलावती मौसी की बातों में आकर। और यहाँ
आकर जो उनके साथ हुआ है... वह तांत्रिक जो कर रहा था... कोई भी समझदार व्यक्ति... कोई
भी स्वाभिमानी व्यक्ति उसे कैसे बर्दाश्त करेगा? इसलिए मुझे तो लगता है कि पिताजी हमसे
नाराज़ होकर कहीं चले गए हैं।"
राघव की समझ में भी निखिल की
बात आ गई थी। उसके मन से जिन्न का भय अब धीरे-धीरे कम हो रहा था और पिता के प्रति चिंता
और आत्मग्लानि बढ़ रही थी। उसने तत्काल अपना फोन निकाला और पुलिस को फोन किया। कुछ देर
बात करने के बाद उसने अपनी माँ से कहा, "माँ... पुलिस... पुलिस थोड़ी देर में यहाँ
पहुँच जाएगी। उन्होंने कहा है कि... हमारा
यहाँ इस निर्जन स्थान पर... रात को अकेले रहना उचित नहीं है। यहाँ खतरा हो सकता है।
इसलिए... इसलिए हम घर चलते हैं। पुलिस... पुलिस पिताजी को तलाश कर घर पहुँचा देगी।"
उसकी आवाज़ में राहत कम और हताशा ज़्यादा थी।
तीनों हताश, निराश और भयभीत मन से, अपनी करनी को कोसते हुए, अपनी कार
की तरफ बढ़े। रात का अँधेरा उन्हें और भी डरावना लग रहा था। उनके दिलों में एक अनजाना
डर समाया हुआ था और अपने प्रियजन के लिए चिंता की गहरी लकीरें उनके चेहरों पर स्पष्ट
थीं। वह रात उनकी ज़िंदगी की सबसे लंबी और डरावनी रातों में से एक बन गई थी।
***
(अध्याय पांच)
रात की कालिमा इतनी सघन थी कि ऐसा लगता था मानो स्वयं
अंधकार भी उसकी गहराई में डूबकर कहीं खो गया हो। तारे भी इस स्याह चादर को भेदने का
साहस नहीं कर पा रहे थे। इसी भयानक अंधकार को चीरते हुए, सेठ ध्यानचंद, एक सफल और चतुर
व्यापारी, किसी अज्ञात, अनिर्धारित दिशा में तूफ़ानी गति से कदम बढ़ाए जा रहे थे। उनके
माथे की चौड़ाई उनकी गहन सोच और व्यापारिक दांव-पेंच की सूचक थी, पर इस समय वह पसीने
की बूंदों से लथपथ थी। ये बूंदें उनकी घनी, झुकी हुई भौंहों से रिसकर कभी-कभी आंखों
में उतर आतीं और जलन पैदा करतीं, पर इस क्षण उन्हें किसी भी शारीरिक कष्ट का भान न
था। उनका चेहरा क्रोध, अपमान और एक अनियंत्रित, जलती हुई उत्तेजना के मिश्रण से तमतमा
रहा था, अंगारे की तरह दहकता हुआ। जबड़े इतने कसे हुए थे कि हड्डियों में दर्द महसूस
हो रहा होगा, और नथुने किसी क्रुद्ध बैल की तरह फड़क रहे थे, मानो भीतर का उबलता लावा
बाहर आने को आतुर हो।
उनके दाहिने हाथ में एक भारी-भरकम,
लोहे का चिमटा किसी जीवन-रेखा की तरह मजबूती से जकड़ा हुआ था। उसकी पकड़ इतनी ज़ोरदार
थी कि उंगलियों की पोरें सफेद पड़ गई थीं और मांस अंदर धंस गया था। यह चिमटा मात्र
एक वस्तु नहीं था; यह उस धोखे और अपमान का प्रतीक था जिसे सेठ ध्यानचंद ने कुछ घंटे
पहले ही झेला था। यह वही चिमटा था जिसे उन्होंने एक कपटी, मक्कार तांत्रिक के धधकते,
धुएँ से भरे हवन कुंड के पास से उठाया था – शायद गुस्से में, शायद प्रतिशोध के आवेश
में, या शायद उस क्षण उस कठोर लोहे में उन्हें कोई सहारा दिखा था।
सेठ ध्यानचंद, जो अपनी कुशाग्र
बुद्धि, दूरदर्शिता और व्यापारिक कौशल के लिए दूर-दूर तक जाने जाते थे, जिनकी पहचान
बाज़ार में उनके निर्णायक कदमों और ठंडे दिमाग से होती थी, आज उसी बुद्धि के बावजूद
एक ढोंगी तांत्रिक के चिकने जाल में बुरी तरह फंसते-फंसते बचे थे। तांत्रिक ने उन्हें अपनी ठगी का शिकार बना ही लिया था। आखिरी
क्षण में वह उस दलदल से बाहर निकल आए, पर
जो अपमान और आक्रोश उन्हें मिला, उसने भीतर आग लगा दी।
उस अपमानजनक मुठभेड़ के बाद,
धोखाधड़ी की कड़वाहट और आत्म-ग्लानि की आग में भीतर ही भीतर जलते हुए, सेठ ध्यानचंद
ने जैसे होश ही खो दिए थे। बिना सोचे-समझे, बिना किसी योजना के, बस वह चलते जा रहे
थे। न उन्हें दिशा का कोई ज्ञान था, न ही मन में किसी विशेष स्थान पर पहुंचने का कोई
तर्कसंगत लक्ष्य। यह एक अंधी, बेतहाशा दौड़ थी – खुद से दूर भागने का प्रयास, अपने
भीतर के प्रचंड उबाल को किसी भी तरह शांत करने की कोशिश। उनके पैरों के नीचे सड़क के
नुकीले कंकड़-पत्थर चुभ रहे थे, रास्ते की जंगली झाड़ियाँ उनके महंगे कपड़ों को खरोंचकर
फाड़ रही थीं और शरीर पर निशान बना रही थीं, पर उनके कदम रुकने का नाम नहीं ले रहे
थे, मानो किसी अदृश्य शक्ति द्वारा धकेले जा रहे हों। प्रतिशोध की तीव्र भावना, जिसने
शुरू में उन्हें दौड़ाया था, अब धीरे-धीरे शिथिल पड़ रही थी, और उसकी जगह एक अजीब सी,
भयावह शून्यता और गहरी उदासी लेती जा रही थी। मन में विचारों का कोलाहल थम रहा था,
और उसकी जगह एक शांत, ठंडी निराशा पसर रही थी।
चलते-चलते सारी रात बीत गई,
रात की काली चादर धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। जब पूरब के आकाश में उषा की पहली लालिमा
क्षितिज पर फैली और अंधकार अपनी पकड़ ढीली करके धीरे-धीरे छंटने लगा, तब सेठ ध्यानचंद
के थके हुए, लड़खड़ाते कदमों की गति कुछ धीमी हुई। जैसे ही प्रातः काल का कोमल प्रकाश
धरती पर उतरा, उन्होंने स्वयं को एक घने, अनजाने वन के मध्य में पाया। यह वन इतना गहरा
था कि दिन के प्रकाश में भी रहस्यमय प्रतीत हो रहा था। ऊँचे-ऊँचे, विशालकाय वृक्ष सदियों
से वहीं खड़े थे, मानो आसमान को छूने की होड़ में लगे हों। उनकी विशाल शाखाओं पर बैठे
असंख्य पक्षी भोर का स्वागत कर रहे थे – उनका चहचहाना, उनका मधुर कलरव वन की शांति
में एक जीवंत संगीत घोल रहा था, मानो प्रकृति स्वयं प्रभात का स्वागत गान कर रही हो।
पेड़ों की घनी पत्तियों के झुरमुटों के बीच से छनकर सूर्य की सुनहरी, हल्की किरणें
अब सेठ ध्यानचंद के पसीने से लथपथ, थके हुए, पर चेहरे पर एक नई, धीमी दृढ़ता के साथ
पड़ने लगी थीं।
वह एक विशाल, सदियों पुराने
बरगद के वृक्ष के नीचे आकर ठिठक कर रुक गए। उस वृक्ष का विशाल तना और ज़मीन तक लटकती
जड़ें उसकी आयु और विशालता की गवाही दे रही थीं। उन्होंने चारों ओर विस्मय भरी दृष्टि
घुमाई। दूर-दूर तक, जहाँ तक नज़र जा रही थी, सिवाय हरे-भरे पेड़ों, उलझी हुई लताओं
और वन्य जीवन की आहटों के कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। अपने आप को इस निर्जन, शांत
वन के बीच में पाकर उन्हें एक अनोखा, पहले कभी न अनुभव किया गया अहसास हुआ। यह न तो
उस रात का भय था, न ही तांत्रिक के धोखे से उपजा आक्रोश, न ही इस अकेलेपन का आश्चर्य।
यह एक गहरी शांति और अप्रत्याशित जिज्ञासा का मिला-जुला भाव था। मानो प्रकृति की गोद
में आकर उनकी आत्मा को वर्षों बाद विश्राम मिला हो। उन्होंने अपनी लड़खड़ाती आवाज़
में, जो रात भर की दौड़ से सूखी हुई थी, मन ही मन में कहा, "अरे! मैं यह कहाँ
आ गया? यह तो कोई बहुत घना और पवित्र वन लगता है। यहाँ तो कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता।"
फिर एक क्षण रुककर, जब उस शांत
वातावरण का प्रभाव उनके मन पर गहरा हुआ, उनके भीतर एक सर्वथा नया और क्रांतिकारी विचार
बिजली की तरह कौंधा। "चलो, अच्छा ही हुआ जो मैं यहाँ आ पहुँचा। प्राचीन काल में
भी तो हमारे ऋषि-मुनि और ज्ञानीजन सांसारिक कोलाहल से दूर, शांति और आत्म-ज्ञान की
गहन खोज में ऐसे ही एकांत वनों में आकर कठोर तपस्या करते थे। क्यों न मैं भी इसी वन
में रहकर अपने जीवन का हिसाब-किताब करूँ, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानूँ और परमात्मा
की आराधना करूँ? यहाँ मेरे बच्चे और पत्नी भी मुझे परेशान करने नहीं आएँगे, व्यापार
का झंझट भी नहीं होगा। यहाँ केवल मैं होऊंगा – मेरी आत्मा और मेरा परमात्मा। इस एकांत
और निर्मल वातावरण में शायद मुझे जीवन का वास्तविक, गहरा अर्थ मिल जाए जिसकी तलाश में मैं अनजानें में रात भर
भागता रहा।" यह विचार आते ही उनके पूरे अस्तित्व में एक अद्भुत शांति और स्थिरता
फैल गई, जैसे कोई भटका हुआ, खोया हुआ पथिक सदियों बाद सही और सुरक्षित मार्ग पा गया
हो। उनके अशांत मन को जैसे एकाएक किनारा मिल गया था।
इस नवीन, पवित्र संकल्प से उनके
भीतर एक अकल्पनीय, नई ऊर्जा का संचार हुआ। शरीर की सारी थकान, रात भर की दौड़ का दर्द,
सब जैसे पल भर में गायब हो गया। वह उत्साह से थोड़ा आगे बढ़े और अपनी आने वाली आध्यात्मिक
यात्रा के लिए एक उपयुक्त, शांत स्थान खोजने लगे। उनकी दृष्टि कुछ ही दूरी पर खड़े
एक घने, हरे-भरे पीपल के पेड़ पर पड़ी। उसकी पत्तियाँ हवा में सरसरा रही थीं और उसकी
छाया अत्यंत शीतल तथा विशाल थी, जो किसी भी यात्री को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर ले।
पीपल का पेड़ भारतीय संस्कृति में अत्यंत पवित्र माना जाता है, और सेठ ध्यानचंद को
लगा कि इससे बेहतर स्थान उनकी साधना के लिए हो ही नहीं सकता। उन्होंने इसी पवित्र पेड़
के नीचे अपना आसन जमाने का निश्चय किया।
अपने दाहिने हाथ में अब भी मजबूती
से पकड़े हुए उस लोहे के चिमटे को, जो कुछ समय पहले तक क्रोध और प्रतिशोध का प्रतीक
था, उन्होंने अब एक औजार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। उसी चिमटे की सहायता
से उन्होंने पेड़ के नीचे की भूमि को साफ करना प्रारंभ कर दिया। सूखी पत्तियाँ जो सदियों
से जमा हो रही थीं, कंटीली झाड़ियाँ जो उनके कपड़ों में उलझ रही थीं, और छोटे-मोटे
पत्थर जो पैरों को चुभ रहे थे – सब कुछ उन्होंने उस भारी चिमटे की नोक से हटाया। यह
कार्य उन्होंने पूरे मनोयोग से किया, मानो यह उनकी पुरानी, अशुद्धियों से भरी ज़िंदगी
को साफ करने का पहला कदम हो।
कुछ देर की कड़ी मेहनत और समर्पण
के बाद, पीपल के पेड़ के नीचे एक साफ-सुथरा, समतल और पवित्र स्थान तैयार हो गया था।
अब साधना के लिए आसन की बारी थी। उन्होंने आसपास से गिरी हुई सूखी, मुलायम घास और पेड़ों
के गिरे हुए पत्ते इकट्ठे किए और फिर उसी लोहे के चिमटे का उपयोग करके कुशलतापूर्वक
उनका एक साधारण किन्तु अत्यंत आरामदायक आसन तैयार कर लिया। यह आसन बाहरी रूप से भले
ही साधारण हो, पर यह उनके भीतर के दृढ़ संकल्प और वैराग्य का प्रतीक था।
फिर, उस स्वयं द्वारा निर्मित
पवित्र आसन पर वह पूरी स्थिरता और शांति के साथ पद्मासन में विराजमान हो गए। उस भारी
लोहे के चिमटे को, जो सुबह तक उनके क्रोध और भागने का साथी था, अब उन्होंने अपने आसन
के ठीक बगल में, पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ ज़मीन में गाड़ दिया, मानो वह उनके
इस नए जीवन, इस महान संकल्प और उनकी भविष्य की तपस्या का अविचल साक्षी हो। चिमटे का
वह खुरदरा, ठंडा लोहा अब प्रतिशोध का हथियार नहीं, बल्कि आत्म-शुद्धि की यात्रा का
एक पवित्र प्रतीक बन गया था।
यह आश्चर्य की बात थी कि सारी
रात जागने, मीलों अनवरत पैदल यात्रा करने, और फिर शारीरिक श्रम करने के बाद भी उनके
शरीर में न तो थकान का कोई चिह्न था, और न ही मन में बीती रात की घटनाओं को लेकर कोई
निराशा, भय या उद्विग्नता। उनका चेहरा एक अनोखी, दिव्य आभा से चमक रहा था, जैसे किसी
गहन उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पूर्णतः तैयार और समर्पित हों। उनकी आँखें शांत
थीं, और होंठों पर एक हल्की, संतोष भरी मुस्कान थी।
आसन पर पूरी तरह स्थिर होकर,
सेठ ध्यानचंद ने बाहरी दुनिया से ध्यान हटाकर अपनी आँखें धीरे से बंद कर लीं। उन्होंने
एक गहरी सांस ली, जैसे भीतर की सारी अशांति को बाहर निकाल रहे हों, और फिर अपने हृदय
में विराजमान अपने आराध्य देव का स्मरण करते हुए, एकाग्रचित्त होकर मंत्र जाप प्रारंभ
कर दिया। उनके आराध्य लक्ष्मीपति थे, धन और समृद्धि के देवता।
"ओम लक्ष्मीपतये नमः...
ओम लक्ष्मीपतये नमः... ओम लक्ष्मीपतये नमः..."
उनकी गंभीर और भक्तिपूर्ण ध्वनि,
वन में पक्षियों के मधुर कलरव और पीपल की पत्तियों की सरसराहट के साथ मिलकर उस स्थान
के वातावरण को और अधिक पवित्र, शांत तथा आध्यात्मिक बना रही थी। प्रारंभ में मंत्र
का उच्चारण धीमा, स्पष्ट और सचेत था, पर जैसे-जैसे समय बीतता गया और उनका ध्यान बाहरी
दुनिया से हटकर भीतर की गहराइयों में उतरता गया, उनका मन एकाग्र होता गया और मंत्रोच्चार
की गति स्वतः ही तीव्र होती गई, अधिक लयबद्ध और शक्तिशाली होती गई। सेठ ध्यानचंद पूरी
तरह से अपनी तपस्या में तल्लीन हो गए, अपने अस्तित्व को अपने आराध्य को समर्पित करते
हुए।
अब उनके मन में न कोई भय था,
न कोई चिंता, न ही बीती रात की कड़वी स्मृतियाँ उन्हें विचलित कर रही थीं। सांसारिक
मोह-माया, धन-दौलत का लोभ, मान-अपमान, व्यापारिक दांव-पेंच – सब कुछ उनके मन से तिरोहित
हो चुका था, जैसे कभी उनका अस्तित्व था ही नहीं। अब बस वह थे, उनका अपने आराध्य पर
अटूट, अडिग विश्वास था, और उनके आराध्य थे, जिनका वह अपने हृदय की गहराइयों से, अपनी
आत्मा की पूरी शक्ति से मंत्र जाप द्वारा आह्वान कर रहे थे। वन की नैसर्गिक शांति,
उनकी अद्वितीय एकाग्रता और पवित्र मंत्रों की शक्ति ने मिलकर उस पीपल के पेड़ के नीचे
एक ऐसा शक्तिशाली और निर्मल प्रभामंडल रच दिया था, जहाँ केवल आध्यात्मिकता का ही वास
था। सेठ ध्यानचंद ने अपनी ज़िंदगी की एक नई और सबसे महत्वपूर्ण यात्रा पर कदम रख दिया
था – परमात्मा से मिलन की यात्रा, परम शांति की ओर बढ़ने की यात्रा। उनका अतीत पीछे
छूट गया था, और भविष्य उस पवित्र वन की तरह अनिश्चित था, पर वर्तमान में उन्हें वह
मिल गया था जिसकी उन्हें तलाश भी नहीं थी – स्वयं की पहचान और आंतरिक शांति।
***
सेठ ध्यानचंद का आलीशान ड्राइंगरूम,
जो सामान्य दिनों में सुबह दस बजे तक जीवन की चहल-पहल और समृद्धि की आभा से जगमगा उठता
था, आज एक गहरे, दुखद सन्नाटे में डूबा था। भारी, मखमली पर्दों ने बाहरी दुनिया और
सूरज की सुनहरी रोशनी को पूरी तरह रोक रखा था, जैसे कमरा अपने भीतर दुख और चिंता को
कैद किए हुए हो। इस कृत्रिम अंधकार को भेदकर आती हल्की सी, मटमैली रोशनी कमरे में मौजूद
तीन चेहरों पर पड़ रही थी – सेठ जी की धर्मपत्नी, सावित्री देवी, उनका बड़ा बेटा राघव,
और छोटा बेटा निखिल। तीनों के चेहरे पिछली रात की भयानक बेचैनी, अथाह निराशा और एक
अनजाने, ठंडे भय की परछाइयों से ढके थे। सूजी हुई आँखें, झुके हुए कंधे और होठों पर
जमी खामोशी उनकी यंत्रणा की कहानी कह रही थी। कमरे में इतनी खामोशी थी कि सिवाए दीवार
पर टंगी प्राचीन घड़ी की धीर-गंभीर 'टिक-टिक' और कभी-कभी सावित्री देवी की दबी हुई,
हृदय-विदारक सिसकियों के और कोई आवाज़ नहीं थी। समय जैसे थम सा गया था, और घड़ी की
हर टिक-टिक एक भारी हथौड़े की तरह उनके दिल पर पड़ रही थी।
सावित्री देवी ने अपनी लाल,
आँसुओं से सूजी हुई आँखों से अपने बड़े बेटे राघव की ओर देखा। उनकी आवाज़ रात भर के
अविरल रुदन और चिंता की वजह से कांप रही थी और उसमें एक गहरा भारीपन था। "तुम्हारे
पिता के बारे में क्या पुलिस से कुछ और सूचना मिली, राघव? अब तो सुबह के दस बज चुके
हैं...! रात भर तो आँखें पथरा गईं राह देखते-देखते, एक पल को भी पलकें नहीं झपकीं।"
उनके स्वर में उम्मीद की आखिरी किरन भी बुझती सी लग रही थी।
राघव ने एक गहरी, बेचैन कर देने
वाली सांस ली, जैसे अपने अंदर उठ रहे निराशा और बेबसी के बवंडर को किसी तरह दबाने की
कोशिश कर रहा हो। उसकी आँखों में भी रात भर की नींद की कमी और चिंता की गहरी लकीरें
थीं। "माँ, अभी थोड़ी देर पहले ही इंस्पेक्टर साहब का फोन आया था। पुलिस ने सारी
रात उस निर्जन स्थान पर छानबीन की है... जहाँ कल पिताजी उस तांत्रिक के साथ गए थे।
उन्होंने चप्पा-चप्पा छान मारा है... गाँवों में पूछा है, रास्तों पर देखा है, पर...
किंतु न तो पिताजी का कोई सुराग मिला है और न ही उस धूर्त तांत्रिक व उसके साथियों
में से कोई पकड़ में आया है। ऐसा लगता है जैसे... जैसे धरती उन्हें निगल गई हो या आसमान
खा गया हो।" राघव का स्वर निराशा में इतना डूबा हुआ था कि शब्द भी भारी लग रहे
थे।
यह सुनते ही सावित्री देवी का
पहले से ही टूटा हुआ संयम पूरी तरह जवाब दे गया। उनके आँसू जैसे थमने का नाम ही नहीं
ले रहे थे, वे फिर से बह निकले और उनका शरीर कांपने लगा। "यह सब मेरी वजह से हुआ
है बेटा... सब मेरी वजह से! मैं ही इतनी मूर्ख, इतनी अंधविश्वासी क्यों बन गई! काश...
काश मैं उन बातों में न आती... ना हम उनको
उस पाखंडी तांत्रिक के पास ले जाते और ना ही यह भयानक अनर्थ हुआ होता।" वह अपनी
साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछते हुए फूट-फूटकर बिलख पड़ीं, उनका रुदन कमरे के सन्नाटे
को चीर रहा था, "पता नहीं कहाँ भटक रहे होंगे बेचारे! उस उम्र में... इस बीमारी
की हालत में... कुछ खाया-पिया भी होगा या नहीं... कैसे होंगे मेरे स्वामी!" उनके
मन में सेठ जी की बीमार, कमजोर काया, उनका अकेलापन और उनकी संभावित तकलीफों का ख्याल
आ रहा था, जिसके इलाज के लिए ही वे उस ढोंगी के झांसे में आई थीं। धन-दौलत के मालिक
होकर भी उनकी बीमारी ने उन्हें कितना असहाय बना दिया था।
छोटे बेटे निखिल ने अपनी माँ
के कांपते हुए कन्धों पर प्यार से हाथ रखा। उसकी अपनी आँखों में भी नींद और चिंता की
कमी स्पष्ट थी, चेहरा उदास था, पर वह माँ को किसी भी तरह ढाढ़स बंधाने की कोशिश कर रहा
था। "माँ, आप ऐसे हिम्मत मत हारिए। अब खुद को या किसी दूसरे को दोष देने से कुछ
नहीं होगा। जो होना था, वह हो चुका... इसे शायद नियति समझ लीजिए। पुलिस अपनी पूरी कोशिश
कर रही है... उन्होंने सर्च ऑपरेशन जारी रखा है। और हम भी चुप नहीं बैठे हैं। पिताजी
के सभी दोस्तों, व्यापारियों, और जान-पहचान वाले रिश्तेदारों को फोन करके लगातार जानकारी
ले रहे हैं, आसपास के इलाकों में भी पता करवा रहे हैं। भगवान ने चाहा तो सब कुछ ठीक
हो जाएगा, पिताजी ज़रूर मिलेंगे। आप बस हिम्मत रखिए... हमें आपकी हिम्मत की ज़रूरत
है।"
लेकिन सावित्री देवी का मन इस
समय किसी भी तर्क या सांत्वना को स्वीकार करने को तैयार न था। उनका दुख इतना गहरा था
कि उसमें केवल निराशा ही थी। "पता नहीं किस बैरी नज़र लग गई मेरे हँसते-खेलते परिवार
को! मेरा स्वर्ग जैसा घर... कुछ ही दिनों में सब बर्बाद हो गया। पहले उनकी वह बीमारी,
और अब यह... उनका इस तरह अचानक गायब हो जाना... हे भगवान! हमने किसी का क्या बिगाड़ा
था जो मेरा बसा-बसाया परिवार इस तरह उजड़ा जा रहा है? क्या मैंने पूजा-पाठ में कोई
कमी रखी थी?" उनका रुदन और तीव्र हो गया, उनका हृदय विलाप से फट रहा था।
राघव ने माँ के और करीब बैठकर
उन्हें सहारा दिया, उनका सिर अपने कंधे से लगाया। "माँ, आप ऐसे दुखी होकर अपनी
तबियत मत खराब कीजिए। देखिए, हम दोनों भाई फिर से जा रहे हैं... बाहर... खोजने के लिए।
शहर में भी पता करेंगे, शायद कहीं कोई खबर मिल जाए। जब तक पिताजी नहीं मिल जाते, तब
तक हम चैन से नहीं बैठेंगे, हम हार नहीं मानेंगे।" उन्होंने थोड़ा रुककर आगे जोड़ा,
"हमने दुकान पर कर्मचारियों से कह दिया है कि वह दुकान खोल लें और ग्राहकों को
संभाल लें, आज हम दोनों भाई व्यापार के लिए नहीं आ पाएँगे। इस समय हमारे लिए पिताजी
से बढ़कर कुछ नहीं है। आप बस भगवान पर भरोसा रखिए और हमारे लौटने का इंतज़ार कीजिए।"
तभी कमरे का दरवाज़ा धीरे से,
लगभग खामोशी से खुला और ध्यानचंद परिवार की छोटी बहू नेहा, जो कि निखिल की पत्नी थी,
एक ट्रे में चाय और कुछ नाश्ते का सामान लेकर अंदर आई। उसके चेहरे पर भी चिंता की गहरी
लकीरें थीं, आँखें लाल थीं, पर वह खुद को बड़े साहस और संयम से संभाले हुए थी। उसने
ट्रे को सोफे के सामने रखी मेज पर रखा, जहाँ अखबारों और फाइलों का अंबार लगा था। उसने
एक चाय का कप उठाया और अपनी सास सावित्री देवी की ओर बढ़ाते हुए अत्यंत कोमलता और स्नेह
से कहा, "माँजी, चाय पी लीजिए। रात भर से आपने कुछ नहीं खाया-पिया है... आप बहुत
थक गई होंगी।"
सावित्री देवी ने थके हुए भाव
से, बिना नज़रें उठाए, सिर हिलाया। "नहीं बहू, मेरा मन नहीं कर रहा। मेरे गले
से कुछ नीचे नहीं उतर रहा। तुम राघव और निखिल को चाय दे दो... ये नाश्ता करके अपने
पिता को तलाश करने जा रहे हैं। मेरा जब मन करेगा... तब मैं पी लूँगी।" उनकी आवाज़
में अस्वीकृति थी, पर उसमें एक माँ की बच्चों के लिए चिंता भी छिपी थी।
नेहा ने अपनी सास के पास बैठकर
उनके हाथ को हल्के से छुआ और अत्यंत आग्रहपूर्ण किन्तु शांत स्वर में कहा, "नहीं
माँजी, ऐसा कैसे चलेगा? यदि आप ही कुछ खाएँगी-पिएँगी नहीं, तो हम कैसे कुछ खा सकते
हैं? इस तरह से तो आप खुद बीमार हो जाएँगी... और यदि आप बीमार पड़ गईं, तो पिताजी की
चिंता कौन करेगा? उन्हें कौन तलाशेगा? आपको तो हम सबके लिए मजबूत रहना है... हम सबकी
हिम्मत आप ही हैं। आप हमारी ओर देखिए... हम तभी कुछ खाएँगे जब आप खाएँगी।" उसकी
आँखों में सच्चा स्नेह और चिंता थी।
निखिल ने भी नेहा की बात का
तुरंत समर्थन किया। "हाँ माँ, नेहा बिलकुल ठीक कह रही है। देखिए ना, हम भी कब
से भूखे-प्यासे हैं। यदि आप कुछ नहीं खाएँगी, तो हमें भी खाने का मन नहीं करेगा। और
फिर खाना-पीना छोड़ने या भूखे रहने से पिताजी तो वापस नहीं आ जाएँगे... बल्कि हमारी
शक्ति कम हो जाएगी। आप हमारा मन रखने के लिए ही सही, थोड़ा सा कुछ खा लीजिए और चाय
पी लीजिए ताकि हम भी चाय पीकर जल्दी निकल सकें... खोजने के लिए।"
अपने बेटों और बहू के अटूट स्नेह,
उनकी चिंता और उनके विनम्र आग्रह के आगे सावित्री देवी का मन थोड़ा पसीजा। उन्होंने
एक गहरी सांस ली, जैसे अपनी सारी शक्ति बटोर रही हों, और नेहा के हाथ से चाय का कप
ले लिया। "ठीक है, ला बहू, मैं चाय पी लेती हूँ।" उन्होंने धीरे-धीरे, छोटी-छोटी
घूंटों में चाय पीना शुरू किया। चाय की हल्की गरमाहट उनके ठंडे पड़ चुके शरीर में थोड़ी
जान फूँक रही थी। फिर उन्होंने अपने बेटों की ओर देखा, उनकी आँखों में अभी भी नमी थी,
पर थोड़ा सा संकल्प भी आ गया था। उन्होंने कहा, "बेटा, तुम दोनों भी कुछ खा-पीकर
ही घर से बाहर जाना। खाली पेट कब तक भागदौड़ करोगे। और सावधान रहना।"
राघव और निखिल ने भी राहत की
सांस ली। उन्हें पता था कि माँ का कुछ खा-पी लेना उनकी मानसिक स्थिति में सुधार का
पहला संकेत है। उन्होंने भी अपने-अपने चाय के कप उठा लिए। नेहा चुपचाप खड़ी रही, उनके
कप में चाय दोबारा भरने के लिए तैयार। फिर वह धीरे से रसोई की ओर वापस चली गई, शायद
उनके लिए कुछ और लाने या आगे की व्यवस्था करने।
कमरे में एक बार फिर खामोशी छा गई, लेकिन इस बार उसमें केवल निराशा
और भय नहीं था। इस बार उसमें चाय की हल्की सी गरमाहट, नाश्ते की महक, और सबसे बढ़कर,
एक-दूसरे के प्रति स्नेह और सहारे की एक महीन सी, लेकिन मज़बूत डोर भी शामिल थी। परिवार
की नाव भयानक तूफान में फँसी थी, पर वे एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे, इस उम्मीद में
कि शायद यह तूफान जल्द ही थम जाए और उनके 'स्वामी', उनके 'पिता' सुरक्षित घर लौट आएं।
उस अँधेरे कमरे में, दुख के बीच, उनके साझी खामोशी में एक नई, नाजुक उम्मीद ने जन्म
ले लिया था।
***
नगर के एक शांत, प्रतिष्ठित
छोर पर स्थित, 'शांति निकुंज' नामक वह रमणीय पार्क अपनी पूरी नैसर्गिक आभा बिखेर रहा
था। यह स्थान नगरवासियों के लिए सुकून और सुकून के पल बिताने का पसंदीदा केंद्र था।
ढलते सूरज की सुनहरी, नारंगी किरणें पश्चिम दिशा के आकाश को रंग रही थीं, और पेड़ों
के घने झुरमुटों से छन-छनकर आती रोशनी पार्क की हरी घास पर सुनहरे धब्बे बना रही थी।
हवा में चंपा, गुलाब और रातरानी जैसे फूलों की मनमोहक, मादक सुगंध घुली हुई थी, जो
मन को शांति और तरोताजगी प्रदान कर रही थी। पेड़ों पर बैठे पक्षियों का मधुर कलरव किसी
अनजाने संगीत की तरह बज रहा था, और ठंडी, मंद हवा के झोंके पत्तियों को सरसराते हुए
बह रहे थे, मानो प्रकृति स्वयं एक शांत शाम का लोरी सुना रही हो। पार्क में कुछ प्रेमी
जोड़े दुनिया से बेखबर, एकांत कोनों में बैठे एक-दूसरे के हाथों में हाथ डालकर भविष्य
के सुनहरे, अनिश्चित सपने बुन रहे थे, तो कुछ परिवार अपने छोटे बच्चों के साथ खिलखिलाते
हुए चहलकदमी का आनंद ले रहे थे, बच्चों की हंसी वातावरण में और अधिक जीवंतता घोल रही
थी।
किंतु इस मनमोहक, शांत और खुशनुमा
वातावरण के ठीक विपरीत, एक पुरानी, लकड़ी की बेंच पर बैठे अक्षरा और धैर्य के दिलो-दिमाग
में एक भयानक, विनाशकारी तूफ़ान मचा हुआ था। उनके बाहरी शरीर शांत थे, पर भीतर भावनाओं
का ज्वार उमड़ रहा था। उनके कंधे झुके हुए थे, मानो किसी भारी बोझ के तले दबे हों,
और चेहरों पर उदासी की गहरी, स्थायी छाया पड़ गई थी, जो उस ढलते सूरज की रोशनी में
और भी स्पष्ट दिख रही थी। दोनों के बीच एक भारी, असहनीय खामोशी पसरी हुई थी, जो उनके
अनकहे दुखों और पछतावे से भरी थी। इस खामोशी को कोई तोड़ना तो चाहता था, पर शब्द जैसे
गले में ही सूखकर अटक गए थे, बाहर आने का साहस ही नहीं जुटा पा रहे थे। हर बीतता पल
भारी लग रहा था।
आखिरकार, धैर्य ने ही मौन को
भंग करने का साहस जुटाया। उसने धीरे से अक्षरा की ओर देखा, जिसकी आँखें सामने शून्य
में ताक रही थीं, मानो किसी भयानक सपने में खो गई हों। "कुछ बोलो ना अक्षरा,"
धैर्य की आवाज़ में एक गहरी पीड़ा, बेचैनी और मार्मिक आग्रह था, "तुम्हारी यह खामोशी
मुझे अंदर तक... बिल्कुल भीतर तक बेचैन कर रही है। मैं इसे सह नहीं पा रहा।"
अक्षरा ने एक गहरी, कंपकंपाती
सांस ली, जैसे शब्दों को बाहर निकालने के लिए अपनी पूरी शक्ति, अपनी पूरी हिम्मत बटोर
रही हो। उसकी आवाज़ रुदन मिश्रित थी, टूटी हुई और कोमल। "क्या बोलूं धैर्य? मेरी
तो जैसे... जैसे दुनिया ही उजड़ गई है। मेरे कदम के कारण... सिर्फ मेरे कारण... मेरे
पूरे परिवार को न जाने क्या-क्या सहना पड़ रहा है। उनका जीवन नरक बन गया है।"
उसकी आँखों से आँसू बिना किसी रोकटोक के छलक पड़े, गर्म धारों की तरह गालों पर बहते
हुए। "मेरे प्यारे पिता... मेरे पूज्य पिताजी... जो मुझे अपने दोनों बेटों, राघव
और निखिल से भी ज़्यादा प्यार करते थे... हर बात में मेरा साथ देते थे... आज मेरी वजह
से न जाने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खा रहे होंगे... उस उम्र में... उस बीमारी की हालत में।"
उसका गला रुंध गया, शब्द होठों पर आकर फंस गए, "जिस इंसान की इज्जत पूरा नगर करता
था, जिसका नाम सम्मान से लिया जाता था... आज अपनी ही बेटी के कारण वह कितना अपमानित
हुए हैं... कितने दुख में हैं। और आज... आज तो यह भी नहीं पता कि वह कहाँ हैं... किस
हाल में हैं... जीवित भी हैं या नहीं..." अक्षरा का गला भावनाओं के सैलाब से पूरी
तरह रुंध गया, आगे शब्द निकलना असंभव था। "इस सबकी दोषी सिर्फ मैं हूँ... अकेली
मैं हूँ। काश... काश मैंने तुमसे प्यार न किया होता... काश हम मिले ही न होते... तो
न मेरे पिता का... और न ही मेरे प्यारे परिवार का यह हाल होता..."
धैर्य ने अक्षरा की कांपती आवाज,
उसके बहते आँसू और उसकी दर्द भरी आँखों को देखा। उसका अपना हृदय भी अपराध बोध और पश्चाताप
की भारी चट्टान के नीचे दब गया। "इसमें तुम अकेली दोषी नहीं हो अक्षरा,"
उसने धीरे से अक्षरा के ठंडे, कांपते हुए हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, "मैं...
मैं तुमसे कहीं अधिक दोषी हूँ। यह सब मेरी वजह से हुआ है।" उसकी आवाज़ में भी गहरी
पीड़ा और आत्म-भर्त्सना थी। "मेरे ही पिता ने... मेरे अपने पिता ने... तुम्हारे
पूज्य पिता का अपने घर में... हमारे घर में... अपमान किया था। यह वही घर था जहाँ दुश्मन
भी आ जाए तो उसका सत्कार किया जाता है। तुम्हारे पिता ने तो तुम्हारे प्यार की लाज
रखी थी... उन्होंने तो सामाजिक मर्यादाओं का पालन करते हुए तुम्हारा रिश्ता मांगने
हमारे घर तक पहुँचने का साहस दिखाया था। लेकिन मेरे पिता ने... उन्होंने न मेरी परवाह
की... न तुम्हारी भावनाओं की... और न ही समाज के उन बुनियादी नियमों की, जो कहते हैं
कि अपने घर आए अतिथि का... भले ही वह दुश्मन ही क्यों न हो... अपमान नहीं करना चाहिए।"
धैर्य की आवाज़ में अपने पिता के प्रति तीव्र क्षोभ, आक्रोश और निराशा स्पष्ट थी।
"लेकिन मेरे पिता ने तुम्हारे पिता का इतना घोर अपमान किया... जिसके कारण तुम्हें
निर्दोष होते हुए भी... उस अपमान का सारा बोझ उठाना पड़ रहा है... यह सब कुछ सहना पड़
रहा है। और तुम खुद को दोष दे रही हो! नहीं अक्षरा, नहीं! इस सबका असली दोषी मैं हूँ...
मेरा परिवार है... मेरा पिता है। तुम्हारा कोई दोष नहीं... तुम तो पूरी तरह से निर्दोष
हो अक्षरा।" धैर्य ने बड़ी ही मार्मिक और टूटी हुई आवाज़ में कहा, जैसे वह अक्षरा
को नहीं, बल्कि स्वयं को इस भयानक सच से जूझने की शक्ति दे रहा हो।
अक्षरा ने अपने आँसू पोंछे,
उसकी साँसें अब भी भारी थीं। "लेकिन मेरे पिता... जब से तुम्हारे घर से अपमानित
होकर वापस आए थे... एक दिन भी चैन से नहीं सो पाए... रात-रात भर जागते थे... उनकी तबियत
और बिगड़ गई थी। और अब तो कल रात से यह भी मालूम नहीं कि वह कहाँ हैं... किस हालत में
हैं... ज़िंदा हैं या..." उसका वाक्य अधूरा रह गया। "अब क्या होगा, धैर्य?
हम उन्हें कैसे ढूंढेंगे? क्या कभी सब कुछ पहले जैसा हो पाएगा?" उसकी आवाज़ में
भविष्य की अनिश्चितता का गहरा डर और चिंता व्याप्त थी।
"सब ठीक हो जाएगा अक्षरा,"
धैर्य ने पूरी शक्ति बटोरकर उसे ढाढ़स बंधाने की कोशिश की, "हमें उम्मीद नहीं
छोड़नी चाहिए। भगवान सब ठीक कर देंगे।" उसने एक गहरी सांस ली और अपने संकल्प को
दोहराया, "मैं... मैं अपना घर छोड़ कर आ गया हूँ... कल रात ही। और जब तक सब कुछ
ठीक नहीं हो जाता... जब तक तुम्हारे पिताजी मिल नहीं जाते... मैं वापस भी नहीं जाऊंगा।"
उसने अक्षरा का हाथ थामकर उसे हल्का सा दबाया और दृढ़ता से कहा, "मैंने यहीं,
तुम्हारे इस नगर के एक छोटे से होटल में कमरा ले लिया है। मैं अब रात-दिन... हर पल...
तुम्हारे पिता की तलाश करूंगा। मैं पुलिस के साथ संपर्क में रहूंगा... लोगों से बात
करूंगा... और जब तक यह सब कुछ ठीक नहीं हो जाता, जब तक तुम्हारे चेहरे पर पुरानी मुस्कान
वापस नहीं आ जाती, मैं यहाँ से नहीं जाऊंगा।"
"ठीक है धैर्य... जैसा
तुम उचित समझो," अक्षरा ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ में अभी भी निराशा और उदासी
का स्वर था, पर धैर्य के दृढ़ संकल्प ने उसे थोड़ी हिम्मत दी थी। "मैं तो यह भी
नहीं समझ पा रही कि हमने ऐसा कौन सा... कौन सा इतना बड़ा गुनाह किया है... जिसकी हमें
इतनी बड़ी सजा मिल रही है। क्या प्यार करना गुनाह है, धैर्य? क्या हमें प्यार में नहीं
पड़ना चाहिए था?" उसकी आँखों में एक भोलापन और एक प्रश्न था जिसका उत्तर शायद
किसी के पास नहीं था।
"नहीं अक्षरा, नहीं,"
धैर्य ने तुरंत कहा, "प्यार करना कोई गुनाह नहीं होता... कभी नहीं। प्यार तो सबसे
पवित्र भावना है।" उसने अक्षरा की आँखों में देखा, "हमने कोई गुनाह किया
भी नहीं था। अगर तुमने कोई गुनाह किया होता, तो तुम्हारे घरवाले... तुम्हारे भाई...
तुम्हारी माँ... तुम्हारा साथ नहीं देते। तुम्हारे घर वालों ने तो तुम्हारे प्यार का
सम्मान किया... उन्होंने तुम्हारे पिता को तुम्हारे रिश्ते के लिए मनाने में मदद की...
और तुम्हारे साथ खड़े हो गए। किंतु यह सब तो मेरे पिता के घमंड... उनकी दौलत के नशे...
और उनके लालच का परिणाम है... जिसके कारण यह सब भयानक त्रासदी हुई है।"
अक्षरा ने कुछ देर तक चुपचाप
धैर्य की बात सुनी, फिर कुछ सोचते हुए उसने अपनी राय व्यक्त की। "नहीं धैर्य,
शायद तुम पूरी तरह सही नहीं हो। कहीं न कहीं गलती तो हमने भी की है... शायद बड़ी गलती।
देखो, हमारे माता-पिता ने हम पर कितना भरोसा किया था। उन्होंने हमें अच्छे भविष्य के
लिए... पढ़ने के लिए... घर से दूर बड़े शहर भेजा था। तो हमें भी उनकी भावनाओं और उनके
अथाह प्यार का सम्मान करते हुए अपनी शिक्षा पर पूरी तरह ध्यान देना था... उनके सपनों
को पूरा करना था। एक तरह से हम अपने माता-पिता के उस विश्वास और स्नेह पर खरे नहीं
उतरे, जिस पर उन्होंने हमारा जीवन खड़ा किया था। जैसे हम अपने माता-पिता से अपने सुख-दुख,
अपनी जरूरतों, अपनी सुविधाओं के लिए अपेक्षा करते हैं... कि वे हमारी हर इच्छा पूरी
करें... उसी प्रकार हमारे माँ-बाप की भी हमसे कुछ अपेक्षाएँ होती हैं... कुछ सपने होते
हैं। लेकिन हम अपने स्वार्थ में अंधे होकर... अपनी भावनाओं में बहकर... माँ-बाप को
धोखा ही देते हैं... उनके विश्वास को तोड़ते हैं।" उसने गहरी आत्म-निरीक्षण के
साथ कहा। फिर उसने धैर्य की ओर देखते हुए कहा, "मैं तो समझती हूँ कि यदि तुम्हारे
पिता मेरा रिश्ता तुमसे नहीं करना चाहते थे... तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था। यह उनका
अधिकार था... हर माता-पिता का अधिकार होता है कि वह अपने बच्चे के लिए रिश्ता स्वीकार
करे या नहीं। हाँ, उनका दोष इतना अवश्य है... और यह दोष बहुत बड़ा है... कि उन्हें
मेरे पिता का... एक भले और सम्मानित इंसान का... अपमान नहीं करना चाहिए था। इस सारे
मामले में केवल तुम्हारे पिताजी दोषी नहीं हैं... हम दोनों भी कहीं न कहीं... बराबर
के गुनाहगार हैं... शायद अज्ञानतावश या फिर स्वार्थवश।"
धैर्य ने अक्षरा की बात ध्यान
से सुनी। उसके चेहरे पर स्वीकारोक्ति का भाव आया। उसने एक गहरी सांस ली, जो उसके सीने
से भारी पत्थर हटा रही थी। "हाँ अक्षरा, तुम ठीक कहती हो... शायद हमने अपने माता-पिता
के भरोसे को ठेस पहुंचाई है।" उसकी आवाज़ थोड़ी कोमल हुई, पर फिर उसमें एक नया,
गहरा दर्द उभर आया। "लेकिन अक्षरा, तुम्हारे और मेरे परिवार में एक बहुत बड़ा...
और मौलिक अंतर है।" उसने अपनी आँखें झुका लीं। "तुम्हें अपने परिवार का भरपूर
प्यार मिला है... एक सुरक्षित और स्नेहपूर्ण माहौल मिला है। तुम्हारी हर छोटी-बड़ी
इच्छा पूरी की गई है... तुम्हें समझा गया है। किंतु मैं... मैं बड़ा अभागा हूँ अक्षरा।
मेरे माता-पिता के पास मेरे लिए... उनके अपने बेटे के लिए... कभी समय ही नहीं रहा।"
उसकी आवाज़ में एक गहरा, पुराना दर्द था, एक अनदेखी पीड़ा। "पिता का सारा समय केवल
धन कमाने में लग जाता है... और माँ... माँ अपना सारा समय उस कमाए हुए पैसे को क्लबों
में, पार्टियों में... या महंगी चीजों पर उड़ाने में खर्च करती है। उनका बेटा क्या
कर रहा है... कहाँ है... खुश है या दुखी... क्यों कर रहा है... इससे उन्हें कोई फर्क
ही नहीं पड़ता। अपने ही घर में रहते हुए भी मुझे अपने माँ-बाप से... ठीक से बात किए
हुए... या मिले हुए महीनों हो जाते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा अक्षरा कि मैं इस रिश्ते
को क्या नाम दूं... एक ऐसा रिश्ता... जिसमें माँ-बाप को अपनी एकमात्र संतान के सुख-दुख
जानने का न तो समय है और न ही इच्छा। बस मुझे तो एक ही सुविधा है कि जितना पैसा खर्च
करने के लिए जब और जहाँ चाहिए... मिल जाता है... और वह भी सीधे मेरे हाथ में नहीं...
बल्कि नौकरों के हाथों से... जैसे मैं कोई अजनबी हूँ।"
उसने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं,
उसकी आवाज़ में कड़वाहट और आक्रोश आ गया। "मैं आज अपने माता-पिता से वे सारे रिश्ते
तोड़ आया हूँ... जो सच कहूँ तो आज तक ठीक से बने ही नहीं थे। भावनाओं के तार कभी जुड़े
ही नहीं थे। मैं अब कभी घर वापस नहीं जाऊंगा। मैं पढ़ा-लिखा हूँ... काबिल हूँ... कहीं
भी छोटी-मोटी नौकरी करके अपना जीवन सम्मान से गुजार सकता हूँ... रोटी कमा सकता हूँ...
लेकिन उस आलीशान पिंजरे में... उस बेजान घर में वापस नहीं जाऊंगा... जहाँ न तो मेरा
सम्मान है... न मेरी भावनाओं का कोई मोल है... और न ही कोई मुझे अपना समझता है।"
"नहीं धैर्य, ऐसा मत कहो,"
अक्षरा ने नरमी से, लगभग विनती करते हुए कहा,
"गुस्से में ऐसे फैसले नहीं लेते। वह जैसे भी हैं... तुम्हारे माता-पिता हैं।
शायद उन्हें अपनी गलती का एहसास नहीं है। जब उन्हें तुम्हारी कमी का एहसास होगा...
जब वे समझेंगे कि पैसा ही सब कुछ नहीं है... तो वे बहुत पछताएंगे।" फिर वह धीरे
से उठी, सूरज लगभग डूब चुका था और पार्क में सन्नाटा गहरा रहा था। "अच्छा, मैं
अब चलती हूँ। बहुत देर हो गई है। घर जाकर देखती हूँ... मेरे पिताजी का कुछ पता लगा
या नहीं।" रुककर, उसने थोड़ी झिझक और संकोच के साथ, धीमी आवाज़ में कहा,
"एक बात कहूँ धैर्य... बुरा मत मानना। हमारा यह नगर बहुत छोटा सा है... और यहाँ
सब मुझे और मेरे परिवार को जानते हैं। इसलिए... मैं तुमसे इस तरह... पार्क में... या
कहीं खुले में मिल नहीं पाऊंगी। लोग देखेंगे... बातें बनाएंगे... और मेरे परिवार को
और भी दुख होगा।" उसकी आँखों में एक नई चिंता थी। "हम दोनों फोन पर... बात
कर लेंगे... ठीक है? मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण... मेरे पहले से दुखी परिवार के बारे
में लोग तरह-तरह की बातें करें... और उन पर उंगली उठाएँ।"
धैर्य ने उसकी बात समझी। उसे
अक्षरा की विवशता का एहसास हुआ। समाज की बंदिशें... और एक बेटी का अपने परिवार के प्रति
कर्तव्य। "ठीक है अक्षरा," उसने भारी मन से कहा, उसकी आवाज़ में स्वीकृति
थी, "आज के बाद... हम तभी मिलेंगे... जब तुम्हारा परिवार चाहेगा... जब सब कुछ
ठीक हो जाएगा... और वे हमें स्वीकार कर लेंगे। वरना... वरना शायद कभी नहीं मिलेंगे।"
उसने एक गहरी सांस ली, "बस, जब तक तुम्हारे पिता वापस नहीं आ जाते... तब तक मुझे
तुम हर खबर देती रहना... फोन पर। जब यह सब कुछ ठीक हो जाएगा... जब तुम्हारे पिताजी
सकुशल घर लौट आएंगे... और तुम्हारा परिवार इस दुख से उबर जाएगा... तब मैं वापस चला
जाऊंगा।" उसकी आवाज़ में त्याग और अनिश्चितता थी।
"ठीक है, मैं अब चलती हूँ।
तुम अपना ध्यान रखना, धैर्य," अक्षरा ने कहा, उसकी आँखों में अभी भी आँसू थे और
मन भारी था। उसने एक आखिरी बार धैर्य को देखा और भारी, अनिच्छुक कदमों से पार्क के
निकास की ओर चल दी, जैसे अपने पीछे अपनी खुशियाँ और सपने छोड़ जा रही हो।
धैर्य कुछ देर तक उसी सूनी बेंच
पर बैठा रहा, जहाँ कुछ देर पहले अक्षरा बैठी थी। उसे लगा जैसे अक्षरा के जाने के बाद
वह स्थान और भी खाली... और भी शांत... हो गया हो। पार्क की चहल-पहल अब उसे और चुभ रही
थी। उसकी आँखों में एक अनिश्चित भविष्य की चिंता...और अक्षरा के लिए असीम, पवित्र प्यार
तैर रहा था। वह जानता था कि आगे की राह आसान नहीं है। फिर एक गहरी सांस लेकर, उसने
अपनी मुट्ठियाँ खोलीं और उठकर होटल की ओर चल पड़ा, जहाँ उसे अकेले ही एक नई और कठिन
लड़ाई लड़नी थी – अपने प्यार के लिए, अक्षरा के परिवार के सम्मान के लिए, और अक्षरा
के पिता की खोज में।
***
(अध्याय छः)
घने, रहस्यमयी वन के ठीक मध्य
में, जहाँ प्राचीन वृक्षों की शाखाएं आपस में इतनी गुंथी हुई थीं कि सूरज की सीधी किरणें
भी धरती तक पहुँचने का रास्ता मुश्किल से ही तलाश पाती थीं, एक विशाल, सदियों पुराना
पीपल का वृक्ष अपनी असंख्य, फैलती हुई शाखाओं को आकाश की ओर इस तरह फैलाए खड़ा था मानो
वह स्वयं ब्रह्मांड को आलिंगन करने का प्रयास कर रहा हो। उसकी जड़ें धरती में इतनी
गहराई तक, इतनी मजबूती से समाई हुई थीं कि ऐसा प्रतीत होता था मानो वे सदियों के रहस्य,
युगों का ज्ञान और पृथ्वी का स्पंदन अपने भीतर समेटे हों। इसी पीपल की विशाल, शीतल
छांव में, उसकी मोटी, खुरदरी जड़ों के समीप, कभी नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी रहे सेठ
ध्यानचंद अपनी साधना की चरम सीमा पर तल्लीन थे।
तीन दिन और तीन रातें... यह
समय मात्र घड़ी की टिक-टिक नहीं थी, बल्कि यह एक अटूट, अखंड तपस्या का अंतराल था।
"ओम लक्ष्मीपति नमः... ओम लक्ष्मीपति नमः... ओम लक्ष्मीपति नमः..." यह पवित्र
मंत्र उनके सूखे होंठों से एक अविरल धारा की तरह बह रहा था, जिसने उस नीरव वन में एक
आध्यात्मिक स्पंदन भर दिया था। उनकी आँखें बंद थीं, बाहरी दुनिया से संपर्क टूटा हुआ
था, चेहरा शांत और अविचल था, किंतु तप की अग्नि से तपकर वह कुंदन सा दमक रहा था, एक
आंतरिक बिखेर रहा था। न उन्हें अपने शरीर का कोई भान था, न भूख-प्यास की कोई चिंता,
न मच्छर-कीड़ों की परवाह। उनका मन, उनकी आत्मा, उनकी चेतना... सब कुछ उस एक मंत्र में,
उस एक आराध्य, भगवान विष्णु में पूरी तरह विलीन हो चुका था। वे स्वयं एक जीवित मंत्र
बन गए थे।
तीन दिनों के निरंतर उपवास,
जागरण और शारीरिक कष्ट ने उनके शरीर को जर्जर बना दिया था। जो शरीर कभी व्यापार के
बोझ को आसानी से सह लेता था, वह अब अपनी ही तपस्या के भार से टूट रहा था। त्वचा सूखकर
हड्डियों से चिपक सी गई थी, चेहरे की मांसपेशियाँ ढीली पड़ गई थीं, आँखों के नीचे गहरे,
काले गड्ढे उभर आए थे, जो उनकी थकान और त्याग की गवाही दे रहे थे, और चेहरे पर एक अजीब
सी, पारदर्शी पीलापन छा गया था। फिर भी, उनकी आंतरिक इच्छाशक्ति, उनका संकल्प अदम्य
था। उनका मन हिमालय सा अटल था, जिसे कोई भी भौतिक कष्ट डिगा नहीं सकता था। कभी ऊर्जा
और आत्मविश्वास से भरपूर उनकी आवाज़ अब धीमी, कर्कश और कंपकंपाती हुई थी, मंत्रोच्चार
में एक पीड़ादायक कंपन सा आ गया था, मानो शरीर की क्षीणता आत्मा की असीम शक्ति को दबाने
का असफल, व्यर्थ प्रयास कर रही हो। किंतु हर श्वास के साथ, हर स्पंदन के साथ,
"ओम लक्ष्मीपति नमः" का जाप उनके भीतर से एक ज्वाला की तरह उठता और वन की
गहन नीरवता में घुल जाता, प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता।
अचानक, उस शांत और रहस्यमय वन
के उस विशिष्ट भाग में, जहाँ ध्यानचंद तपस्या कर रहे थे, जैसे किसी ने सहस्त्र सूर्य
एक साथ उगा दिए हों – एक अत्यंत तीव्र, स्वर्णिम, अलौकिक प्रकाश चारों ओर फैलने लगा।
यह प्रकाश इतना तेज़ था कि क्षण भर के लिए ध्यानचंद की बंद, अधखुली पलकों के पार भी
उसकी असहनीय चुभन महसूस हुई। वन के सारे रंग, सारी हरियाली, उस दिव्य, स्वर्णिम आभा
में नहा गए। पत्तियाँ सोने सी चमकने लगीं, फूलों के रंग और गहरे हो गए। हवा में एक
स्वर्गीय, दिव्य सुगंध तैर गई, जो किसी भी सांसारिक फूल की नहीं थी। और उसी प्रचंड,
चमकीले प्रकाशपुंज के केंद्र से, धीरे-धीरे, अत्यंत सुंदरता और सहजता से, एक सौम्य,
सुंदर व्यक्ति प्रकट हुआ।
उस व्यक्ति की वेशभूषा अत्यंत
साधारण थी – आजकल के समय की एक सामान्य सी पैंट और शर्ट। किंतु इस सादगी में भी उसका
व्यक्तित्व असाधारण रूप से आकर्षक, प्रभावशाली और दिव्य था। उसके चेहरे पर एक शांत,
धीर-गंभीर तेज था, आँखों में ब्रह्मांड की सारी करुणा और समझ सिमटी हुई थी, और होठों
पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी।
वह व्यक्ति धीमे, स्थिर कदमों
से, बिना किसी हड़बड़ी के, सेठ ध्यानचंद के निकट पहुँचा। उसके पैरों की आहट तक न हुई,
जैसे वह धरती पर चल नहीं रहा था, बल्कि हवा पर तैर रहा था, या शायद धरती ही उसके स्पर्श
से धन्य हो रही थी। ध्यानचंद के पास आकर वह झुका और अत्यंत स्नेहपूर्ण, मृदु, शांत
और स्पष्ट स्वर में पुकारा, "आँखें खोलो, सेठ ध्यानचंद। तुम्हारी कठोर तपस्या
पूर्ण हुई।"
किंतु ध्यानचंद पर कोई प्रभाव
न पड़ा। वे उसी गहरी समाधिस्थ अवस्था में रहे, बाहरी दुनिया से कटे हुए। उनके होंठ अभी
भी कंपकंपा रहे थे, और क्षीण, लगभग सुनाई न देने वाले स्वर में मंत्रोच्चार जारी था,
"ओम लक्ष्मीपति नमः... ओम लक्ष्मीपति नमः..." उनकी आत्मा अपने लक्ष्य पर
इतनी केंद्रित थी कि यह बाहरी पुकार उन तक पहुँच नहीं पा रही थी।
उस व्यक्ति ने अपनी आवाज़ को
थोड़ा और ऊँचा किया, उसमें अब भी वही स्नेह और शांति थी, वही दिव्य कोमलता। "प्रिय
ध्यानचंद, आँखें खोलो। अब तुम्हारी तपस्या संपूर्ण हुई। तुम्हारा आराध्य तुम्हारी भक्ति
से प्रसन्न है। बोलो, क्या चाहते हो? क्या वर मांगते हो?"
फिर भी मौन। ध्यानचंद अपनी साधना
से एक इंच भी डिगे नहीं, उनका संकल्प अटूट था।
"आँखें खोलो प्रिय ध्यानचंद,
आँखें खोलो!" इस बार उस व्यक्ति ने अपेक्षाकृत तेज़, अधिक स्पष्ट, किंतु अत्यंत
कोमल और अधिकारपूर्ण स्वर में ध्यानचंद को पुकारा। स्वर में एक ऐसी चुंबकीय और divine शक्ति थी जिसने ध्यानचंद की चेतना
के गहरे से गहरे स्तरों को झकझोर दिया, उन्हें बाहरी दुनिया से पुनः जोड़ा।
धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे,
जैसे कोई गहरी, लंबी, और कष्टदायक निद्रा से जाग रहा हो, ध्यानचंद ने अपनी भारी पलकें
खोलीं। उनकी दृष्टि धुंधली थी, केंद्रित करने में कठिनाई हो रही थी, और शरीर का हर
अंग निरंतर तपस्या की वजह से तीव्र पीड़ा दे रहा था। उन्होंने कठिनाई से अपनी आँखों
को सामने खड़े उस अजनबी, किंतु दिव्य आभा से युक्त चेहरे पर केंद्रित किया। एक अपरिचित,
पर अत्यंत शांत, सौम्य और शक्तिशाली उपस्थिति।
"आप... आप कौन हैं, भाई?"
उनकी आवाज़ सूखी, कर्कश और टूटी हुई थी, जैसे वर्षों से बोली न हो। "और... और मुझसे
क्या चाहते हैं?"
वह व्यक्ति मुस्कुराया, उसकी
मुस्कान में ब्रह्मांड की सारी शांति, सारी करुणा और सारा ज्ञान सिमटा हुआ था।
"सेठ ध्यानचंद, भूख-प्यास त्यागकर, संसार की सारी चिंताओं को छोड़कर, पिछले कई
दिनों और रातों से तुम जिसे पुकार रहे हो, मंत्रोच्चार द्वारा जिसका अखंड आह्वान कर
रहे हो, मैं उसी दीनानाथ, जगत नियंता, संपूर्ण ब्रह्मांड के पालनहार, भगवान विष्णु
का एक अत्यंत छोटा, कृपापात्र सेवक हूँ।" उसकी आवाज़ में विनम्रता थी, पर पीछे
असीम शक्ति का आभास था। "प्रभु ने तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारी अनूठी भक्ति और तुम्हारे
दृढ़ संकल्प को देखकर मुझे यहाँ भेजा है। बताओ, तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हारी क्या
इच्छा है?"
यह सुनकर सेठ ध्यानचंद के भीतर
आश्चर्य, अविश्वास, और गहन भक्ति का एक प्रचंड तूफ़ान सा उमड़ पड़ा। उन्हें विश्वास नहीं
हो रहा था कि यह सचमुच हो रहा है। क्या यह केवल एक खूबसूरत स्वप्न है जो तपस्या की
थकान से उत्पन्न हुआ है? या उनकी वर्षों की भक्ति और इस कठोर तपस्या का यह वास्तविक,
स्पष्ट फल है? वे अदम्य प्रयास से अपने कमजोर, कांपते हुए शरीर को साधते हुए धीरे-धीरे
खड़े हो गए। उनके पैर लड़खड़ा रहे थे, पर मन में असीम श्रद्धा थी। उनकी आँखों में आँसुओं
का सैलाब उमड़ पड़ा। भावावेश में उनकी आवाज़ भर्रा गई, शब्द जैसे गले में अटक रहे थे।
"क्या... क्या यह सच है? क्या सच में तुम्हें... मेरे स्वामी... भगवान विष्णु
ने भेजा है?"
वह अजनबी व्यक्ति स्नेह और समझदारी
से मुस्कुराया, "ध्यानचंद, तुम जानबूझकर विश्वास और अविश्वास के मध्य क्यों झूल
रहे हो? क्यों संदेह कर रहे हो?" उसकी आवाज़ में एक कोमल फटकार थी। "तुम्हें
पूर्ण विश्वास था कि तुम्हारी यह तपस्या अवश्य सफल होगी, तभी तो तुम इतनी शारीरिक कष्ट
सहकर, इतने दिनों से इतनी तल्लीनता और एकाग्रता से तपस्या में लगे हुए थे। अब जब तुम्हें
तुम्हारी अटूट तपस्या का फल मिलने वाला है, तुम्हारे आराध्य ने तुम्हारी सुन ली है,
तो अपनी ही आस्था पर अविश्वास क्यों प्रकट कर रहे हो?"
ध्यानचंद ने अपने गालों पर बहते
आँसू पोंछे। एक गहरी, भावनाओं से भरी सांस ली। उनका मन अब भी उस अद्भुत उपस्थिति को
समझने का प्रयास कर रहा था। "मैं अविश्वास नहीं कर रहा, देव! कर भी नहीं सकता...
कभी नहीं। भला जिस परमपिता परमात्मा पर मैंने जीवन भर विश्वास किया है, जिनकी असीम
कृपा से ही जीवन में मुझे जो कुछ भी अल्प-स्वल्प धन, यश, परिवार मिला है, उस प्रभु
पर... उस दीनबंधु पर अविश्वास कैसे कर सकता हूँ?" उनकी आवाज़ में श्रद्धा थी।
"किंतु... किंतु यह सब इतना अप्रत्याशित है... इतना अद्भुत... इतना दिव्य है कि
सहसा... सहसा... विश्वास करना कठिन हो रहा है। ऐसा तो मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं
सोचा था।"
"किंतु-परंतु छोड़ो, ध्यानचंद!"
उस व्यक्ति ने अत्यंत आश्वस्त करते हुए, पिता तुल्य स्नेह से कहा। "तुम्हारी तपस्या
परिपूर्ण हुई है... प्रभु ने तुम्हारी सुन ली है। प्रभु की प्रत्यक्ष आज्ञा से मैं
तुम्हारी तपस्या का फल देने के लिए तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ हूँ। जो तुम चाहोगे...
जैसा तुम चाहोगे... तुम्हारी हर इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारे जीवन के सारे कष्ट
समाप्त होंगे।" उसने ध्यानचंद की क्षीण काया की ओर देखा, उसके चेहरे पर करुणा
थी। "किंतु... लगातार तपस्या करने और भूखे-प्यासे रहने के कारण तुम बहुत कमजोर
हो गए हो। तुम्हारा शरीर जवाब दे रहा है।" उसने निर्देश दिया, "इसलिए, पहले
जाकर पास की स्वच्छ जलधारा में स्नान करो, अपने शरीर को शुद्ध करो। फिर कुछ फल-फूल
जो वन में उपलब्ध हों, और स्वच्छ जल ग्रहण करो। अपने शरीर को थोड़ा विश्राम दो, उसे
ऊर्जा दो।" उसकी आवाज़ में एक अधिकार था, जिसे टाला नहीं जा सकता था। "और
उसके बाद, जब तुम थोड़ा तरोताजा महसूस करो, तब एक बार फिर इसी पवित्र आसन पर बैठकर...
उसी एकाग्रता से... मेरे स्वामी... अपने आराध्य का स्मरण कर मंत्रोच्चार करना। मैं
पुनः प्रकट हो जाऊंगा। शेष बातें... तुम्हारी इच्छा... हम तब करेंगे।"
ध्यानचंद ने कृतज्ञता से सिर
झुकाया। उनके हृदय में उस दिव्य व्यक्ति के प्रति असीम आदर भर आया। उन्हें उसकी बातों
में अद्भुत शांति, सत्य और दिव्य कृपा का अनुभव हो रहा था। "किंतु... हे दिव्य
व्यक्ति, मैं आपको किस नाम से पुकारूँ? आपका क्या परिचय दूँ?"
उस व्यक्ति के होठों पर पुनः
वही सौम्य, रहस्यमयी और हृदयस्पर्शी मुस्कान तैर गई। उसकी आँखें चमक उठीं। "मुझमें
कुछ भी दिव्यता नहीं है, ध्यानचंद।" उसने अत्यंत विनम्रता से कहा। "बस मैं
भी तुम्हारी तरह ही... उसी परमपिता परमात्मा का... अपने स्वामी का... एक छोटा सा...
अत्यंत छोटा सा... कृपापात्र सेवक हूँ। मेरा कोई विशेष नाम नहीं।" उसने रुककर
जोड़ा, "फिर भी, तुम जिस नाम से चाहो... मुझे पुकार सकते हो। जो तुम्हें उचित
लगे।"
ध्यानचंद ने क्षण भर सोचा, उस
अद्भुत चेहरे, उस शांत तेज और उस सौम्य उपस्थिति को अपने मन में बसाया। फिर आदरपूर्वक,
श्रद्धा से भरे स्वर में कहा, "तो फिर... तो फिर मैं आपको 'देवदूत' कहूँगा। मेरे
लिए आप स्वर्ग से भेजा गया एक देवदूत ही हैं। ठीक है ना?"
"अवश्य," देवदूत ने
सहमति और प्रसन्नता में सिर हिलाया। "जो तुम्हें अच्छा लगे, वही मेरे लिए उचित
है। नाम में क्या रखा है, ध्यानचंद? असली चीज़ तो भावना है।" उसने एक आखिरी बार
ध्यानचंद को स्नेह भरी दृष्टि से देखा। "अच्छा, मैं अब चलता हूँ। शीघ्र ही तुमसे
पुनः भेंट होगी... इसी स्थान पर।" इतना कहकर वह तेजस्वी व्यक्ति धीरे-धीरे उसी
तीव्र, अलौकिक प्रकाश में विलीन होने लगा, जैसे सुबह की ओस सूर्य की पहली किरण के साथ
अदृश्य हो जाती है। देखते ही देखते वह उपस्थिति धुंधली होती गई और अंततः पूरी तरह अदृश्य
हो गई, केवल उसकी सुगंध हवा में बाकी रह गई।
वन का वातावरण पुनः पहले जैसा
शांत हो गया, धूप छन-छनकर आने लगी, पक्षियों का कलरव फिर से सुनाई देने लगा। किंतु
अब उस शांति में एक नई, अद्भुत, और स्पष्ट आशा, एक नई ऊर्जा घुलमिल गई थी। ध्यानचंद
कुछ क्षण तक उसी स्थान पर स्तब्ध खड़े रहे, उस अनुभव को आत्मसात करने का प्रयास कर
रहे थे। फिर उनके थके हुए, जर्जर शरीर में जैसे नई, अकल्पनीय शक्ति का संचार हुआ। देवदूत
के निर्देश उनके कानों में गूंज रहे थे। वे लड़खड़ाते, किंतु अब अधिक दृढ़ क़दमों से
भोजन और पानी की तलाश में वन में एक ओर चल दिए। उनके हृदय में कृतज्ञता, असीम शांति
और उस अद्भुत भेंट की प्रत्याशा का सागर हिलोरें ले रहा था। उनकी तपस्या ने सचमुच फल
दिया था, और अब वे उस फल को प्राप्त करने के लिए तैयार थे।
***
देवदूत के पिछले आदेश को शिरोधार्य
कर सेठ ध्यानचंद ने पर्वत की तलहटी में बहती एक निर्मल जलधारा की ओर कदम बढ़ाए। चार
दिन की कठिन तपस्या और उपवास के बाद, उस शांत, शीतल जल में स्नान ने उनके तन-मन को
जैसे नवजीवन प्रदान कर दिया। शरीर की सारी क्लांति और जकड़न दूर हो गई। उन्होंने अंजलि
भर-भर कर जल पिया, जिसकी मिठास ने रोम-रोम को तृप्त कर दिया।
स्नान के पश्चात, वे वन में
भोजन की तलाश में निकले। उन्हें अधिक भटकना नहीं पड़ा। प्रकृति अपनी उदारता का परिचय
दे रही थी; कुछ ही दूरी पर उन्हें ऐसे वृक्ष दिखाई दिए जो मीठे, रसीले फलों के गुच्छों
से लदे थे। ध्यानचंद ने कृतज्ञतापूर्वक उतने फल तोड़े जितनी उन्हें आवश्यकता थी। फलों
का सेवन कर उन्होंने अपनी क्षुधा शांत की।
तृप्त और तरोताजा होकर, वे पुनः
उसी विशाल, प्राचीन वृक्ष के नीचे लौट आए, जहाँ उन्होंने अपनी कठिन साधना के दिन बिताए
थे। वृक्ष की घनी छाया और उस स्थान की शांत ऊर्जा ने उन्हें तत्काल एकाग्र होने में
मदद की। उन्होंने घास के अपने साधारण आसन पर बैठकर आँखें बंद कीं और गहन ध्यान में
लीन हो गए। उनकी श्वास धीमी और लयबद्ध हो गई। उन्होंने हृदय से उस दिव्य सत्ता का आह्वान
किया, जिसने उन्हें यह मार्ग दिखाया था।
पलक झपकते ही, एक चकाचौंध कर
देने वाली दिव्य आभा ने पूरे वातावरण को आलोकित कर दिया। शीतल किंतु तेजस्वी प्रकाश
में नहाया हुआ, देवदूत उनके समक्ष प्रकट हुआ। उनकी उपस्थिति मात्र से ही उस स्थान पर
एक अलौकिक शांति और शक्ति का अनुभव हो रहा था।
"तुम पहले से अब अधिक स्वस्थ
और तरोताजा लग रहे हो, ध्यानचंद," देवदूत ने अपनी करुणा और ज्ञान से भरी मंद मुस्कान
के साथ कहा। उनकी वाणी में ब्रह्मांड का मौन और सागर की गहराई थी। "तुम्हारे मुख
पर शांति और ऊर्जा का संचार हुआ है। तो अब बोलो, उस फलदायी तपस्या के बदले तुम क्या
चाहते हो?"
ध्यानचंद की आँखों में आशा की
एक नई किरण चमक उठी, जैसे वर्षों का सूखा समाप्त होने वाला हो। "क्या मैं जो भी
मांगूंगा, मुझे मिलेगा, देवदूत?" उन्होंने कुछ हिचक और बहुत सारी उम्मीद के साथ
पूछा।
"अवश्य," देवदूत ने
विश्वास दिलाते हुए कहा। उनकी वाणी में अटल सत्य की प्रतिध्वनि थी। "संशय क्यों
करते हो? हृदय से निसंकोच कहो, तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हारी तपस्या ने द्वार खोल दिए
हैं।"
ध्यानचंद ने एक गहरी सांस ली,
जैसे वर्षों से दबा बोझ हटा रहे हों। अपमान और अभाव की स्मृतियाँ एक पल के लिए कौंध
गईं। "मैं बहुत अधिक धनी होना चाहता हूँ," उन्होंने अपनी सबसे बड़ी और तात्कालिक
इच्छा प्रकट की। उनके स्वर में दृढ़ता थी, लेकिन छिपी हुई पीड़ा भी। "क्या आप
मुझे इतनी धन-संपत्ति दे सकते हैं कि मैं इस नगर में ही नहीं, दूर-दूर तक सबसे धनी
व्यक्ति कहलाऊँ?"
देवदूत की मुस्कान थोड़ी फीकी
पड़ी, उनकी आँखों में युगों का अनुभव झलक रहा था। उन्होंने पूछा, "कितना धनी होना
चाहते हो, ध्यानचंद? क्या तुम सेठ अधिराज से भी अधिक संपत्ति चाहते हो? वही सेठ अधिराज,
जिसने कुछ समय पूर्व भरी सभा में तुम्हारा अपमान किया था?"
देवदूत के इन शब्दों ने ध्यानचंद
के ताज़े घाव को कुरेद दिया। उनके चेहरे पर एक क्षण के लिए उस अपमान की टीस और क्रोध
की अग्नि उभरी। "आप तो अंतर्यामी हैं, देवदूत," उन्होंने विवश स्वर में कहा।
"आपको सब पता है। जब आपको सारी बात का पता ही है, तो मेरी इच्छा पूरी कीजिए ताकि
मैं उस अपमान का प्रतिशोध ले सकूँ जो मुझे और मेरे परिवार को सहना पड़ा।"
"हाँ, मैं सब जानता हूँ,"
देवदूत ने गंभीरता से कहा। उनकी वाणी में कोई निर्णय नहीं था, केवल सत्य कथन था।
"किंतु मैं तुम्हारी यह इच्छा पूरी नहीं कर सकता। क्योंकि धन एक ऐसी वस्तु है,
ध्यानचंद, जिसकी लालसा कभी समाप्त नहीं होती। आज यदि मैं तुम्हें सेठ अधिराज से अधिक
धनी बना देता हूँ, तो कल यदि कोई दूसरा अधिक धनी व्यक्ति तुम्हें दिखाई देगा, तो तुम
उससे भी अधिक धनी होना चाहोगे। यह मानव स्वभाव है कि उसे जितना भी मिल जाए, कम ही लगता
है। धन की तृष्णा एक अंतहीन सागर है।"
ध्यानचंद का चेहरा तत्काल मुरझा
गया। उनकी सारी आशाएँ धूमिल होती दिखीं। "नहीं देवदूत, मैं ऐसा नहीं करूँगा,"
उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा। "मैं यह केवल अपनी पुत्री के भविष्य के लिए, उसकी
खुशी के लिए करना चाहता हूँ, ताकि उसका विवाह उसके इच्छित वर से बिना किसी बाधा के
हो सके। धन मेरे लिए साधन है, साध्य नहीं।" उन्होंने करबद्ध होकर विनीत स्वर में
अपनी बात रखी।
देवदूत ने धैर्य से समझाया,
"जानते हो ध्यानचंद, जिस धरा पर तुम्हें जन्म मिला है, यह पृथ्वी स्वयं संपत्ति
का एक अक्षय भंडार है। इसमें व्यक्ति को अपने कर्म, अपनी योग्यता और अपने परिश्रम के
अनुसार ही धन-संपत्ति प्राप्त होती है। तुम पहले से ही बहुत धनी हो; तुम्हारे छोटे
से नगर में तुमसे अधिक शायद ही कोई धनी हो। फिर भी तुम्हें और अधिक धन चाहिए तो रोका
किसने है? यह कर्मभूमि है। उसके लिए और अधिक कर्म करो। कोई नया उद्योग या प्रतिष्ठान
शुरू करो। अपने व्यापार को बढ़ाओ। तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा, उससे भी अधिक जो तुम अभी
मांग रहे हो। यही तो इस सृष्टि का अटल कर्म और फल का सिद्धांत है।"
देवदूत के व्यावहारिक उत्तर
ने ध्यानचंद को निराशा के गहरे सागर में धकेल दिया। "तो क्या मेरी यह कठिन तपस्या
निष्फल हुई?" उन्होंने टूटे हुए, निराशा भरे स्वर में कहा। "क्योंकि मैं
तो यही चाहता हूँ और आप यह देना नहीं चाहते।"
"नहीं ध्यानचंद, कोई भी
कर्म निष्फल नहीं होता," देवदूत ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा। उनकी वाणी में
स्नेह था। "प्रत्येक कर्म का फल मिलता ही है, और वह फल हमेशा उसकी प्रकृति के
अनुरूप होता है। तो तुम्हारे इस महान कर्म का भी फल मिलेगा, अवश्य मिलेगा। लेकिन सोचो,
और अधिक धन प्राप्त करके भी क्या होगा? मान लो मैं तुम्हें सेठ अधिराज से भी अधिक धनी
बना देता हूँ, और उसके बाद भी वह तुम्हारी बेटी को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार
न करे, तब? क्या केवल धन से रिश्ते बनते हैं?"
"हाँ देवदूत, यह तो मैंने
सोचा ही नहीं," ध्यानचंद अचानक चिंतित हो गए। सेठ अधिराज का अड़ियल स्वभाव उन्हें
याद आया। धन शायद पर्याप्त न हो। उनका ध्यान तत्काल धन से हटकर अपनी पुत्री और परिवार
पर आ गया। "लेकिन मैं अपने बच्चों से बहुत प्यार करता हूँ। मेरे परिवार से बढ़कर
मेरे लिए कुछ नहीं। मैं उन्हें दुखी नहीं देख सकता। मेरा परिवार मुझे बहुत सम्मान देता
है, मेरी हर बात मानता है। मैं शायद सबसे अधिक भाग्यवान प्राणी हूँ जिसे इतना अच्छा,
आदर्श परिवार मिला। इसलिए मुझ पर कृपा करके ऐसा कुछ कीजिए कि मैं अपनी बेटी को उसकी
सच्ची खुशी दे सकूँ, चाहे धन से मिले या किसी और प्रकार से।"
देवदूत ने एक गहरी सांस ली,
जैसे युगों का सत्य कहने की तैयारी कर रहे हों। "यह संसार बहुत ही निष्ठुर है,
ध्यानचंद। यहाँ रिश्ते अक्सर उपयोगिता पर निर्भर होते हैं। तुम जिसके लिए उपयोगी हो,
वह तुम्हारा सम्मान करेगा, तुमसे स्नेह रखेगा, अन्यथा नहीं। निश्चय ही तुम्हारा परिवार
अच्छा है और सच में तुम भाग्यवान भी हो, किंतु सत्य यही है जो मैंने कहा है। जब तुम
अपने परिवार के लिए उपयोगी नहीं रहोगे, जब तुम उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरोगे,
तो तुम्हारे प्रति उनका प्यार और सम्मान भी धीरे-धीरे कम होता जाएगा। वह नहीं है जो
तुम अपनी आँखों से देखते हो और अपने हृदय से समझते हो।"
देवदूत के इन कठोर शब्दों ने
ध्यानचंद को झकझोर दिया। उनके हृदय में अपने परिवार के प्रति अटूट विश्वास था।
"यहाँ आप गलत हैं देवदूत!" उन्होंने दृढ़ता से, लगभग चुनौती भरे स्वर में
कहा। "यह मेरा भ्रम नहीं, सच्चाई है। मेरा परिवार मेरे लिए कुछ भी कर सकता है।
किसी भी परिस्थिति में, चाहे मैं कितना भी दुर्बल या विपन्न हो जाऊं, उनका मेरे प्रति
स्नेह और सम्मान कभी कम नहीं होगा। मेरा परिवार निःस्वार्थ प्रेम की मूर्ति है।"
ध्यानचंद का स्वर इस बिंदु पर पूरी तरह आत्मविश्वास से भरा था।
"ध्यानचंद, सांसारिक
रिश्तों का महत्व कम नहीं है ध्यानचन्द, ये रिश्ते भौतिकवाद पर आधारित हैं किन्तु यह
सम्पूर्ण सत्य नही है। भौतिक रिश्तों में भौतिकता अधिक होती है जिन्हें सांसारिक मोह
माया प्रभावित करती है। काम, क्रोध, लोभ और मोह इस रिश्तों की बारीक डोर को तोड देते
हैं। निश्चय ही तुम्हारा परिवार एक आदर्श परिवार
है किन्तू मोह माया से वे भी अछूते नहीं हैं।" देवदूत ने शांत स्वर में दोहराया, उनकी आँखों
में एक रहस्यमयी चमक थी। "यह तुम्हारा भ्रम है, और यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारा
यह भ्रम दूर कर सकता हूँ। मैं तुम्हें इस संसार की कड़वी सच्चाई दिखा सकता हूँ।"
"नहीं देवदूत, यह मेरा
भ्रम नहीं, सच्चाई है। मेरा परिवार मेरे लिए कुछ भी कर सकता है। किसी भी परिस्थिति
में उनका मेरे प्रति प्यार कभी कम नहीं होगा।" ध्यानचंद अपनी बात पर अटल थे।
"तो चलो ध्यानचंद,"
देवदूत ने उसी रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा। "तुम्हारे इस भ्रम को दूर करने और
तुम्हें संसार का वास्तविक रूप दिखाने के लिए एक खेल खेलते हैं। एक ऐसा खेल जो तुम्हें
इस संसार की वास्तविकता का ज्ञान देगा। उसके बाद जो तुम चाहोगे, जो तुम्हारी सच्ची
और अंतिम इच्छा होगी, मैं उसे पूर्ण करके ही वापस जाऊंगा।"
"मैं तैयार हूँ, देवदूत,"
ध्यानचंद ने बिना पलक झपकाए कहा। उनके मन में एक अजीब सा उत्साह और कुछ अनजाना भय था।
"मुझे खुद पर और अपने परिवार पर पूरा भरोसा है। लेकिन आप करना क्या चाहते हैं?
यह कैसा खेल होगा?"
"हम जो करेंगे, उससे तुम
स्वयं अपने परिवार व अपने अन्य स्नेहीजनों, मित्रों, यहाँ तक कि अपने नगरवासियों की
भी परीक्षा ले सकोगे, और इस संसार को ठीक प्रकार से, उसके वास्तविक रूप में समझ सकोगे,"
देवदूत ने समझाया।
"ठीक है, जैसा आप उचित
समझें, मैं तैयार हूँ। मेरे परिवार के प्रेम पर मुझे कोई संदेह नहीं है," ध्यानचंद
ने कहा।
देवदूत ने कहा, "सेठ ध्यानचंद,
इस समय तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए अत्यंत दुखी और चिंतित है, क्योंकि तुम्हें गायब
हुए चार दिन हो चुके हैं और उन्हें तुम्हारा कोई पता नहीं। मैं तुम्हें एक विशेष शक्ति
प्रदान कर रहा हूँ। इसी क्षण से तुम्हारा यह शरीर किसी को भी दिखाई नहीं देगा। तुम
जहाँ चाहो रह सकते हो, घूम सकते हो, तुम्हें कोई देख नहीं सकेगा और न ही तुम्हारी बात
सुन पाएगा। किंतु तुम सबको देख सकोगे और सुन सकोगे। जब तक इस निष्ठुर संसार और मानव
हृदय की सारी सच्चाई तुम्हारे सामने नहीं आ जाती, तब तक तुम इस संसार को केवल एक दृष्टा
भाव से देख पाओगे। ध्यान रहे, चाहते हुए भी तुम किसी भी घटना में हस्तक्षेप नहीं कर
पाओगे, किसी को रोक या टोक नहीं पाओगे।"
"ठीक है देवदूत, जैसा आप
कहें, मैं तैयार हूँ।" ध्यानचंद ने कहा, यद्यपि उसके मन में एक अनजाना सा भय और
बेचैनी की लहर दौड़ गई थी। अदृश्य होकर अपने ही घर और संसार को देखना... यह एक भयावह
संभावना थी, फिर भी उनके परिवार पर उनका विश्वास अटल था।
"अच्छा तो ठीक है,"
देवदूत ने कहा। "मैं तुम्हें अदृश्य करता हूँ और तुम्हारे घर तक पहुँचा देता हूँ।
तुम अपने घर में कहीं भी रह सकते हो, किसी भी कमरे में जा सकते हो, नगर में कहीं भी
घूम सकते हो, कोई तुम्हें देख नहीं पाएगा। और आगे जो घटनाएं होंगी, जो सत्य सामने आएगा,
उनके तुम मौन साक्षी रहोगे।"
"ठीक है देवदूत,"
ध्यानचंद ने एक गहरी, काँपती हुई सांस लेकर कहा, अपने भाग्य और इस अनपेक्षित परीक्षा
को स्वीकारते हुए।
देवदूत ने अपनी आँखें बंद कीं
और आकाश की ओर हाथ जोड़कर अत्यंत शांत स्वर में कहा, "प्रभु, मेरा संकल्प पूर्ण
करें! सत्य के दर्शन हों!"
अचानक एक तीव्र, स्वर्णिम बिजली सी कौंधी, जिसकी चमक से आँखें चौंधिया
गईं। एक पल के लिए कुछ दिखाई नहीं दिया। और उसी क्षण, उस प्राचीन वृक्ष के नीचे जहाँ
ध्यानचंद और देवदूत खड़े थे, वहाँ केवल खाली स्थान रह गया था। सेठ ध्यानचंद अपनी अदृश्य
अवस्था में अपने घर की ओर यात्रा कर रहे थे, उस कड़वी परीक्षा के लिए तैयार, जिसने
उनका जीवन बदल देना था।
***
दोपहर अपनी उदास और बोझिल छायाएँ फैला रही थी। सेठ ध्यानचंद का भव्य
शयनकक्ष, जो कभी समृद्धि और खुशियों से भरा रहता था, इस समय गहरा शोक ओढ़े हुए था।
कमरे की महँगी सजावट और भारी भरकम फर्नीचर भी उस सघन उदासी को दूर नहीं कर पा रहे थे
जो वहाँ पसरी थी। विशाल पलंग पर, रेशमी चादरों के बीच, उनकी पत्नी, सावित्री देवी,
निढाल, मानो प्राणहीन सी लेटी थीं। पिछले चार दिनों की अथाह चिंता और अनिद्रा ने उनके
चेहरे को पीला और निस्तेज कर दिया था। उनकी आँखें सूनी-सूनी सी छत को घूर रही थीं,
जिनमें जीवन की कोई चमक नहीं थी, केवल निराशा और उदासी के गहरे बादल मंडरा रहे थे।
ऐसा लगता था मानो जीवन की सारी रौनक, सारा उल्लास उनसे रूठकर कहीं दूर चला गया हो।
तभी, उस निस्तब्धता को तोड़ते
हुए, सावित्री देवी को अचानक एक तीव्र और
विशिष्ट अनुभूति हुई। यह कोई साधारण विचार
या कल्पना नहीं थी, बल्कि एक लगभग भौतिक अहसास था – जैसे अभी-अभी कोई उनके एकदम करीब
से गुज़रा हो, या अदृश्य रूप से कमरे में प्रवेश किया हो। एक पल के लिए उनकी सांसें
थम गईं। इस अप्रत्याशित और रहस्यमयी अहसास से वह हड़बड़ाकर उठ बैठीं। उनका हृदय तेज़ी
से धड़कने लगा, जैसे कोई भयानक आशंका घेर रही हो। उनकी व्याकुल आँखें सबसे पहले कमरे
के भारी भरकम लकड़ी के दरवाज़े की ओर गईं – वह पहले की तरह ही मजबूती से और अंदर से बंद था। फिर उन्होंने अपनी नज़रें
कमरे के कोने-कोने में दौड़ाईं, फर्नीचर के पीछे झाँका, परदों के पास देखा – पर उन्हें
कुछ भी असामान्य या कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। वह चकित, भयभीत और पूरी तरह से
भ्रमित सी बिस्तर पर ही बैठी रहीं, कांपते हाथों से अपने धड़कते हृदय को थामे हुए,
आश्चर्य से चारों ओर देखती रहीं, लेकिन वहाँ उनके सिवा और कोई न था।
वास्तव में, यह अदृश्य सेठ ध्यानचंद
ही थे जो देवदूत की शक्ति से उसी क्षण उस कमरे में प्रकट हुए थे। उनके लिए यह एक अजीब
और विचलित करने वाला अनुभव था – अपने ही घर में, अपने ही कमरे में, अपनी पत्नी के सामने
खड़े होना, लेकिन किसी ऐसे परदे के पीछे से जहाँ से वह देख सकते थे, सुन सकते थे, महसूस
कर सकते थे, पर खुद किसी को दिखाई नहीं दे सकते थे। उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी, सावित्री
की ओर देखा। पिछले चार दिनों की चिंता और दुख ने उन्हें कितना बदल दिया था! वह वाकई
बहुत कमजोर, पीली पड़ गई थीं और उनकी आँखों में गहरी निराशा और उदासी की परछाईं थी।
ध्यानचंद का हृदय टीस उठा। वह तुरंत समझ गए कि सावित्री का यह हाल केवल और केवल उनके
अचानक घर से चले जाने के कारण ही हुआ है। उनका मन चाहा कि दौड़कर उन्हें गले लगा लें,
उनकी चिंता दूर करें, पर वह लाचार थे।
किंतु उन्हें सबसे बड़ा आश्चर्य
तब हुआ जब सावित्री ने, उनकी अदृश्य उपस्थिति को महसूस होने पर, सीधे उनकी ओर देखा, ठीक उसी जगह जहाँ वह खड़े थे – जैसे
किसी अदृश्य व्यक्ति को देखने की कोशिश कर रही हों। पर उन्हें देख न पाने के कारण उनकी
आँखों में केवल भ्रम, भय और गहन आश्चर्य था, कोई पहचान नहीं। तब उन्हें देवदूत द्वारा
दी गई उस विशेष और विचित्र शक्ति की क्रूरता पूरी तरह समझ आई। वह सावित्री देवी सहित
कमरे में रखी हर छोटी-बड़ी, जानी-पहचानी चीज को स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे, कमरे
की हर ध्वनि सुन पा रहे थे, किंतु उनके लिए वह दुनिया अब एक कांच के उस पार की दुनिया
थी; सावित्री देवी उन्हें बिल्कुल भी देख नहीं पा रही थीं और न ही उनकी आवाज़ सुन सकती
थीं। फिर भी, कुछ तो ऐसा अवश्य हुआ था, कोई ऐसी अदृश्य तरंग या अहसास, जिससे सावित्री
देवी को उनके कमरे में होने का इतना तीव्र और वास्तविक अहसास हुआ था, तभी तो वह इस
तरह हड़बड़ाकर उठकर बैठ गई थीं और व्याकुल होकर कमरे में इधर-उधर निहार रही थीं।
ध्यानचंद के होंठों पर एक फीकी
सी, पीड़ा भरी मुस्कान तैर गई। कितना विवश थे वह! वह मन ही मन, अपनी अदृश्य वाणी में
बुदबुदाए, "मेरी प्रिय सावित्री, देखो, मैं यहाँ हूँ... तुम्हारे ठीक सामने। हम
तुम्हें देख सकते हैं, तुम्हारी पीड़ा को महसूस कर सकते हैं... और तुम हमारी जुदाई
में बहुत कमजोर हो गई हो। तुम्हारा यह हाल देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है।" उनके
स्वर में अनकहा दर्द था। "लेकिन तुम मुझे नहीं देख सकतीं। छू नहीं सकतीं। सुन
नहीं सकतीं। मैं यहाँ हूँ, पर होते हुए भी नहीं हूँ।" किंतु वह यह भी भली-भाँति
जानते थे कि उनकी यह आवाज़, उनके ये शब्द उनके ही अदृश्य शरीर से टकराकर शून्य में
विलीन हो जा रहे थे। सावित्री देवी या कोई और सांसारिक प्राणी उन्हें सुन ही नहीं सकता
था।
उनके कंधों पर देवदूत के शब्द
किसी भारी, अदृश्य बोझ की तरह आ गिरे – वह तो इस समय केवल एक दृष्टा मात्र थे। एक मूक
दर्शक। संसार के इस रंगमंच पर होने वाले खेल में वह केवल दर्शक की भूमिका में थे। जो
कुछ भी उनके सामने घटेगा, वह केवल उसे देख सकते थे, सुन सकते थे, पर उसमें हस्तक्षेप
करने की शक्ति उनके पास लेशमात्र भी नहीं थी। कितनी क्रूर परीक्षा थी यह! अपने प्रियजनों
को कष्ट में देखकर भी कुछ न कर पाना। उन्होंने एक गहरी, ठंडी सांस ली, जो उनके सीने
में जम गई, और एकटक सावित्री की ओर देखने लगे, उनकी हर हलचल को पढ़ते हुए, उनकी भावनाओं
को समझने की कोशिश करते हुए।
सावित्री देवी अब उस रहस्यमयी
अहसास से उपजी बेचैनी और डर के कारण बिस्तर पर और नहीं रह सकीं। वह कांपते पैरों से
उठीं और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती हुई अपने कमरे से निकलीं, जैसे किसी अनजाने खतरे से
भाग रही हों और किसी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में हों। उनका लक्ष्य था अपनी बड़ी बहू
मंजरी का कमरा, जहाँ उन्हें शायद कुछ सहारा, कुछ सांत्वना मिलती। वह धीरे-धीरे मंजरी
के कमरे तक पहुँचीं। उनके हाथ दरवाज़े पर रुके। उन्होंने धीमी, काँपती हुई आवाज़ में
खटखटाते हुए आवाज़ दी, "बहू... मंजरी... ज़रा बाहर तो आ... ज़ल्दी... मुझे कुछ
हुआ है..."
मंजरी, जो शायद अंदर कुछ काम
कर रही थी, ने तुरंत दरवाज़ा खोला। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं, जो पिछले चार
दिनों से स्थायी हो गई थीं। उसने सावित्री देवी का घबराया हुआ, पीला चेहरा देखा।
"क्या हुआ माँजी? आप इतनी परेशान क्यों लग रही हैं? कुछ हुआ है क्या? आप इतनी
घबरा क्यों रही हैं?" उसकी आवाज़ में सच्ची चिंता थी।
"आ बहू, अंदर आ। अंदर बैठकर
आराम से बताऊँगी। बाहर मत रुको।" सावित्री देवी ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा और
मंजरी का हाथ पकड़ा, उसे लगभग खींचते हुए
अपने साथ मंजरी के कमरे में प्रवेश कर गईं, जैसे बाहर कोई खतरा मंडरा रहा हो।
"क्या हुआ माँजी, बताइए
तो? आप इतनी घबराई हुई और कांप क्यों रही हैं?" मंजरी ने उन्हें पास बिठाते हुए
चिंता से पूछा।
"क्या बताऊँ बेटी,"
सावित्री देवी की आवाज़ अभी भी भय से काँप रही थी, उनकी आँखें डरी हुई थीं, "मैं
तो अपने कमरे में लेटी हुई थी... एकदम अकेली। और अचानक मुझे ऐसा लगा जैसे अभी-अभी कोई
कमरे के अंदर आया है... एकदम पास से गुजरा हो। पर न तो दरवाज़ा खुला था, न खिड़की और
न ही कमरे में कुछ दिखाई दिया। बिल्कुल खाली था कमरा। पर अहसास इतना सच्चा था, इतना
तेज़... मुझे यह बात कहते हुए भी डर लग रहा है।"
"ऐसा कैसे हो सकता है माँजी?"
मंजरी ने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की, उसकी आवाज़ में थोड़ी समझदारी और व्यावहारिकता
थी, "आपको शायद धोखा हुआ होगा। जबसे पिताजी... पिताजी कहीं गए हैं, तबसे न तो
आप ठीक तरह से सोई हैं और न ही ठीक प्रकार से खा-पी रही हैं। कमजोरी और चिंता के कारण
मन में ऐसे वहम हो जाते हैं। दिमाग अजीब-अजीब चीजें सोचने लगता है। शायद आपने पिताजी
को बहुत याद किया और आपको ऐसा लग गया।" यह कहते हुए उसने माँजी के कांपते हाथ
पर धीरे से हाथ रखा।
"नहीं बहू, यह मेरा वहम
नहीं है," सावित्री देवी ने बेचैन स्वर में दृढ़ता से कहा, उनका डर विश्वास में
बदल रहा था, "कुछ न कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। मेरा मन चीख-चीखकर कह रहा है। मैंने
तो ऐसा महसूस किया था जैसे तुम्हारे ससुरजी... हाँ, ससुरजी कमरे में आए हैं, लेकिन
न तो दरवाज़ा खुला था और न ही कमरे में कुछ दिखाई दिया। यह बहुत अजीब था, मंजरी, बहुत
अजीब! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।" उनका स्वर रहस्यमय और डरावना हो गया।
"ठीक है माँजी," मंजरी
ने स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए या शायद उन्हें शांत करने के लिए समझदारी दिखाते
हुए कहा, "आप मेरे कमरे में आराम कीजिए, यहीं बैठिए। यह शांत है। मैं अभी आपकी
देवरानी नेहा को साथ लेकर आपके कमरे में एक बार अच्छी तरह देखती हूँ, हर कोना छान मारती
हूँ।"
"ठीक है बहू, लेकिन सावधान
रहना। मुझे सच में कुछ गड़बड़ लग रही है। पता नहीं क्या है... मेरा मन बहुत अशांत है।"
सावित्री देवी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा।
"ठीक है माँजी, ठीक है।
मैं ध्यान रखूँगी। आप बिलकुल चिंता मत करिए," मंजरी ने उन्हें फिर से आश्वस्त
किया और कमरे से बाहर निकल गई, उसके चेहरे पर अभी भी चिंता और थोड़ा असमंजस था।
कुछ देर बाद, मंजरी अपनी देवरानी
नेहा के साथ वापस सावित्री देवी के पास पहुँचीं, जो मंजरी के कमरे में रखी कुर्सी पर
बेचैनी से बैठी उनका इंतज़ार कर रही थीं, उनके हाथ आपस में गुंथे हुए थे और आँखें दरवाज़े
पर टिकी थीं।
सावित्री देवी ने अधीरता से
पूछा, उनकी आवाज़ में बेसब्री थी, "क्या हुआ बेटी? कुछ पता लगा? कुछ मिला? कोई
था वहाँ?"
इस बार नेहा ने उत्तर दिया,
जिसकी आवाज़ में थोड़ा धैर्य और निश्चितता थी, "माँजी, हमने पूरा कमरा अच्छी तरह
देख लिया है, हर कोना, हर अलमारी, बिस्तर के नीचे भी झाँक लिया... वहाँ कुछ भी नहीं
है। बिल्कुल खाली। यह सच में आपके मन का वहम ही था। पिताजी की चिंता में और नींद पूरी
न होने की वजह से ऐसा लग रहा है।" नेहा ने धीरे से, समझाने वाले लहजे में कहा।
"वहम की बात नहीं है बेटी,"
सावित्री देवी का मन अभी भी अशांत था, उनकी आँखों में अभी भी डर की चमक और आशंका थी।
"कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर है। मेरा मन कहता है कि हमारे परिवार पर कोई और बड़ा
संकट आने वाला है... कुछ बहुत बुरा होने वाला है। मुझे अच्छा महसूस नहीं हो रहा।"
उनकी आवाज़ में गहरी आशंका थी।
"कुछ नहीं होगा माँजी,
आप बिलकुल निश्चिंत रहें," मंजरी ने उन्हें प्यार से ढाढ़स बंधाया और उनके कंधे
पर हाथ रखा। "चिंता मत कीजिए। हम सब आपके साथ हैं। और हाँ, आप चाहें तो यहीं मेरे
कमरे में आराम करिए। यह शांत है। तब तक हम दोनों कुछ घर का काम देख लेते हैं, खाना-वाना
बनवा देते हैं।"
"नहीं बहू," सावित्री
देवी ने एक गहरी, थकी हुई सांस ली, "नहीं, यहीं अकेली मुझे डर लगेगा। चलो, मैं
भी चलती हूँ। वहीं ड्राइंग रूम में बैठेंगे। सबके साथ मुझे अकेलापन महसूस नहीं होगा।"
इतना कहकर सावित्री देवी धीरे से उठ खड़ी हुईं और तीनों औरतें साथ-साथ कमरे से बाहर
निकल गईं, सावित्री देवी का हाथ मंजरी ने सहारा देने के लिए पकड़ा हुआ था।
पीछे छोड़ गईं एक आलीशान किंतु इस समय बेहद उदास और खाली शयनकक्ष –
दूसरों की नज़रों में पूरी तरह खाली, किंतु उसमें मौजूद एक अदृश्य, विवश दृष्टा के लिए
नहीं। ध्यानचंद वहीं खड़े रह गए, अपनी पत्नी और बहुओं को जाते हुए देखते हुए, उनकी बातचीत
और चिंता सुनते हुए, और देवदूत के खेल का अगला दृश्य शुरू होने का इंतजार करते हुए।
उनकी परीक्षा अब सचमुच शुरू हो रही थी, एक ऐसी परीक्षा जहाँ वह सब कुछ देखेंगे, सब
कुछ सुनेंगे, पर कुछ कर नहीं पाएंगे।
***
शाम का धुंधलका अब केवल कोनों
तक सीमित नहीं रहा था, बल्कि घर के हर कमरे में, हर वस्तु पर उदासी और अनिश्चितता की
एक मोटी परत की तरह जमने लगा था। हवा में एक अजीब सी खामोशी और भारीपन था, जिसे घर
के लोगों की साँसों की धीमी आवाज़ भी नहीं तोड़ पा रही थी। इसी माहौल में राघव और निखिल
ने, दिनभर की भागदौड़ और व्यर्थ की खोज से थके हुए, अपने घर में कदम रखा।
ड्राइंग रूम का दृश्य देखते
ही उनके दिल जैसे बैठ गए। सामने सोफे पर उनकी माँ, सावित्री देवी, किसी टूटी हुई मूर्ति
की तरह सिमटी बैठी थीं। उनका चेहरा पीला पड़ चुका था, आँखें सूजी हुई और सूनी थीं,
और पूरे शरीर पर भय और चिंता की एक ऐसी परत चढ़ी थी जिसने उनकी सारी ऊर्जा सोख ली थी।
वह सचमुच उस समय निराशा और घबराहट की एक जीती-जागती मूरत लग रही थीं। मंजरी ने फोन
पर उन्हें पहले ही आगाह कर दिया था कि माँ की तबीयत ठीक नहीं है और उन्हें कुछ अप्रिय
अहसास हुए हैं, जिसकी वजह से वह बेहद घबराई हुई हैं। हालांकि सावित्री देवी ने बेटों
को देखकर खुद को संभालने और मज़बूत दिखने की कोशिश की थी, पर उनके कांपते होंठ, उनके
हाथ की बेचैन उंगलियाँ और उनकी आँखों का खालीपन बता रहा था कि उनके भीतर जो भावनाओं
का तूफान उठ रहा था, वह अभी शांत नहीं हुआ था। उनके मन में एक अनजाना सा डर, एक अशुभ
आशंका बार-बार एक ठंडी लहर की तरह कौंध रही थी – जैसे उनके सुखमय संसार पर कोई गहरा,
काला संकट मंडरा रहा हो।
अपने दोनों बेटों को सुरक्षित
अपने सामने देखकर, उस पल के लिए उन्हें थोड़ी राहत मिली। लेकिन इसी के साथ, पिछले चार
दिनों का जमा हुआ दुख और आज सुबह की रहस्यमयी घटना का डर उनके संयम का बांध तोड़ गया।
आँखों से गरम-गरम आँसुओं की धाराएँ बह निकलीं। उन्होंने अपने बड़े बेटे राघव की ओर
देखा, उसकी आँखों में वही चिंता और थकान थी। उन्होंने राघव की ओर आशा और याचना भरी
दृष्टि से देखते हुए, रुँधे गले से, कांपती हुई आवाज में पूछा, "बेटे... राघव...
क्या तुम्हारे पापा का... कुछ पता लगा? कहीं से कोई खबर आई?" उनके स्वर में आशा
की एक महीन धागे जैसी किरण थी, जो टूटने को तैयार थी।
राघव ने तुरंत पास आकर माँ को
अपनी बाहों में भर लिया। उनका शरीर ठंडा और कांप रहा था। उसने माँ के कंधे पर हाथ रखते
हुए, अपनी आवाज़ में कृत्रिम दृढ़ता लाते हुए उन्हें ढाढ़स बंधाने की कोशिश की,
"नहीं माँ... अभी तक तो कोई खबर नहीं है... हमने हर जगह पता लगाया है... पर तुम
चिंता मत करो... हमारे पापा... हमारे शेर बाबूजी... मज़बूत हैं... उन्हें कुछ नहीं
होगा। वह ज़रूर घर आ जाएंगे... देखना... बहुत जल्द आ जाएंगे।" राघव के शब्द दिलासा
थे, पर उसके अपने मन के भीतर भी आशंकाओं का एक काला जाल बुना जा रहा था, जिसे वह किसी
को दिखाना नहीं चाहता था।
"नहीं बेटा," सावित्री
देवी ने सिर हिलाया, उनकी आँखों में डर और दृढ़ विश्वास का अजीब मिश्रण था। "नहीं...
तुम्हारे पापा के साथ कुछ ना कुछ जरूर बुरा हुआ है। मुझे मेरा मन कह रहा है, चीख चीखकर
कह रहा है! तभी मेरे मन में इतने बुरे-बुरे विचार आ रहे हैं... और आज सुबह... मेरे
कमरे में..." वह कांप गईं। "मुझे तो लगता है कि हमारे परिवार पर कोई बहुत
बड़ी मुसीबत आने वाली है... कोई बहुत भयानक चीज़..." उनकी आवाज में निराशा और
भय की गहरी खाई थी।
"नहीं माँ, तुम इतनी चिंता
मत करो," इस बार छोटे बेटे निखिल ने आगे आकर माँ के दूसरे हाथ को पकड़ा और प्यार
से दबाया। उसकी आवाज़ शांत और समझाने वाली थी। "आप बेवजह परेशान हो रही हैं। हम
सब हैं ना? पापा बहुत जल्द घर आ जाएंगे। आपने ही हमें सिखाया है कि भगवान हमेशा भले
लोगों का साथ देते हैं। हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया, तो हमारे साथ बुरा क्यों
होगा? आप हिम्मत रखिए।"
सावित्री देवी कुछ और कहना ही
चाहती थीं, शायद आज सुबह की घटना के बारे में और विस्तार से बताना चाहती थीं, कि तभी
उस भारी और गमगीन माहौल में अचानक राघव के मोबाइल की तीखी, अनपेक्षित घंटी बजी। उसकी
आवाज़ पूरे कमरे की खामोशी को चीरती हुई गूंजी, जैसे किसी ने शांत तालाब में अचानक
पत्थर फेंक दिया हो। सब उछल पड़े। सबकी निगाहें राघव के हाथ में रखे बजते फोन पर टिक
गईं।
राघव ने गहरी सांस लेकर फोन
उठाया, उसका हाथ थोड़ा कांप रहा था। "हेलो?"
दूसरी तरफ से एक भारी, खुरदरी
और कड़कदार आवाज आई, जिसमें कोई भावना नहीं थी, केवल आदेश का भाव था, "तुम राघव
बोल रहे हो ना? शेर ध्यानचंद के बड़े बेटे।"
"जी हां... राघव ही बोल
रहा हूं। आप कौन हैं? कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?" राघव ने खुद को
संयत रखते हुए पूछा, हालांकि उसके दिल की धड़कनें अब तेज़, बहुत तेज़ हो गई थीं। यह
आवाज़ जानी पहचानी नहीं थी, और इसमें कुछ ऐसा था जो अप्रिय संकेत दे रहा था।
"सेवा भी बताएंगे,"
दूसरी ओर से वही रुखी आवाज़ आई, जिसमें अब एक अजीब सी ठंडी हँसी घुल गई थी, "लेकिन
पहले एक खुशखबरी सुनो।"
"खुशखबरी?" राघव की
आवाज़ में अविश्वास और उत्सुकता तैर गई। इस माहौल में खुशखबरी? "हां... क्या खुशखबरी
है? बताइए। क्या आप मेरे पापा के बारे में कुछ जानते हैं? क्या आपको उनकी कोई खबर है?"
उसकी आवाज़ में आशा की एक दुर्बल सी किरण चमक उठी।
राघव की बात सुनकर सावित्री
देवी तेज़ी से उसकी ओर मुड़ीं, उनका चेहरा और भी पीला पड़ गया। "किसका फोन है
बेटा? क्या तुम्हारे पापा के बारे में कुछ पता लगा है? पूछो... पूछो उनसे!"
फोन पर दूसरी ओर से आवाज़ आई,
"राघव, तुम फोन को हैंडफ्री कर दो।
स्पीकर ऑन कर दो। ताकि तुम्हारे परिवार वाले भी सुन सकें जो मैं तुम्हारे पिता के बारे
में बताने जा रहा हूं।"
राघव ने कांपते हाथों से फोन
को स्पीकर पर डाला। पूरा कमरा सन्नाटे में डूब गया। निखिल, मंजरी और सावित्री देवी
की साँसें थम गईं। "प्लीज... आप जल्दी बताइए कि आप मेरे पापा के बारे में क्या
जानते हैं? वे कहां हैं? क्या उन्हें कुछ हुआ है?" राघव ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए
कहा।
"घबराओ नहीं... इतना घबराओ
मत," फोन से उस आदमी की आवाज़ आई, जिसमें अब एक क्रूर, मजाकिया लहजा शामिल हो
गया था। "तुम्हारे पापा सही सलामत हैं... फिलहाल। और मेरे पास हैं। मेरे पास क्या,
यह समझो कि मेरे कब्जे में हैं।"
"क्या? मेरे पापा... आपके
कब्जे में हैं?" राघव के पैरों तले जैसे सचमुच ज़मीन खिसक गई। निखिल के मुँह से
एक दबी हुई चीख निकली, सावित्री देवी के हाथ अपने आप चेहरे पर चले गए। "आप...
आप कौन हैं? और मेरे पापा आपके कब्जे में क्यों हैं? जल्दी बताइए! आप... आप क्या चाहते
हैं?" राघव की आवाज़ में अविश्वास, डर और क्रोध का उबलता हुआ मिश्रण था।
"तुम ये समझो कि हमने तुम्हारे
पापा का अपहरण कर लिया है," दूसरी
ओर से वही कड़कदार, अब खुलकर क्रूरता भरी आवाज़ आई।
"अपहरण?" राघव गुस्से
से चीख पड़ा, उसकी आवाज़ की नसें तन गईं। "यह... यह कैसे हो सकता है? मेरे पापा
तो... हमारे सामने ही गायब हुए थे! चार दिन पहले! तुम झूठ बोल रहे हो! यह मुमकिन नहीं
है!"
फोन पर ज़ोर से, ठंडी और भयानक
हँसी गूंजी। "वो बिल्कुल तुम्हारे सामने गायब हुए होंगे," उस आदमी ने मज़ाक
उड़ाते हुए कहा, "हमें तो... हाँ... हमें तो उन्हें चार दिन पहले... रात को वह
एक सुनसान जगह पर... बड़ी बदहवास हालत में
पड़े हुए मिले थे। बिलकुल अकेले। जब हमें पता लगा, अरे यह तो... अरे यह तो इस नगर के
सबसे बड़े... सबसे धनी सेठ ध्यानचंद हैं, तो हमने सोचा... क्यों न इस मौके का फायदा
उठाया जाए? और बस... हमने उन्हें उठा लिया... पकड़ लिया। और हाँ... पिछले चार दिनों
से वह हमारे 'मेहमान' हैं... हमारे पास हैं।"
"तुम... तुम झूठ बोल रहे
हो! मुझे विश्वास नहीं होता!" राघव ने अपनी बची हुई हिम्मत जुटाकर कहा।
"यदि मेरे पापा तुम्हारे पास हैं तो... तो उनसे मेरी बात कराओ! अभी कराओ!"
"हाँ... यह बात ठीक है,"
उस आदमी की आवाज़ थोड़ी शांत हुई, जैसे वह सोच रहा हो। "लेकिन अभी नहीं। मैं अभी
अपने ठिकाने से थोड़ा अलग हूं। कुछ काम से बाहर आया हुआ हूँ। वहाँ पहुंचकर... हाँ...
पक्का... मैं तुम्हारे पापा से तुम्हारी बात कराता हूं। ताकि तुम्हें यकीन हो जाए।
अच्छा, मैं फोन रखता हूं। थोड़ी देर बाद... तैयार रहना... फिर फोन करूंगा। तब बात करेंगे
कि तुम अपने 'प्रिय' पिता को वापस लेने के लिए... क्या कर सकते हो।" दूसरी तरफ
से धमकी भरी आवाज़ आई और क्लिक की आवाज़
के साथ फोन कट गया।
फोन बंद होते ही, ड्राइंग रूम
में एक पल का सन्नाटा रहा, जो किसी भयानक विस्फोट से पहले की शांति जैसा था। फिर वह
सन्नाटा सावित्री देवी की बिलख-बिलख कर रोने की आवाज़ से टूट गया। वह सोफे पर ही ढह
गईं, अपने हाथों से मुँह ढककर सिसकने लगीं। "मुझे तो... मुझे तो पहले ही आशंका
हो रही थी... आज सुबह भी... ज़रूर कुछ गलत होने वाला है! हे भगवान! मेरे बाबूजी...
अब क्या होगा? कौन हैं ये लोग? कहाँ ले गए उन्हें?"
राघव ने तुरंत माँ को संभाला,
उन्हें पकड़कर उठाया। उसके अपने चेहरे पर अब डर नहीं था, केवल एक अजीब सी, लौहे जैसी
दृढ़ता थी। उसकी आँखें अंगारों सी जल रही थीं। निखिल और मंजरी भी सदमे से बाहर आते
हुए माँ के पास आए। "घबराओ मत माँ! बिलकुल मत घबराओ!" राघव की आवाज़ में
कंपन था, पर संकल्प अटल था। "यदि पिताजी का... यदि सचमुच उनका अपहरण हो गया है
तो हम उन्हें छुड़ा लेंगे! चाहे कुछ भी हो जाए! चाहे हमें अपनी जान भी दांव पर लगानी
पड़े! हमारे पास जो कुछ भी है, यह भव्य घर, हमारा व्यापार, सारी संपत्ति... सब उन्हीं
का दिया हुआ तो है! चाहे हमें सब कुछ... हाँ, सब कुछ दांव पर लगाना पड़े... खुद को
भी बेचना पड़े... हम अपने पिता को कुछ नहीं होने देंगे! उन्हें वापस लेकर आएंगे!"
उसकी आवाज़ में एक प्रतिज्ञा थी।
परिवार के सभी सदस्य इस भयानक
खबर से स्तब्ध और चिंतित थे। अपहरण! यह उनके सबसे बुरे सपनों से भी परे था। कमरे में
भय, दुख और अनिश्चितता का घना कोहरा छा गया। अब वे उस अजनबी के अगले फोन का बेसब्री
से नहीं, बल्कि खौफ से इंतजार करने लगे – उस फोन का, जो शायद उनकी दुनिया बदल देने
वाला था।
सेठ ध्यानचंद, जो अदृश्य रूप
में ड्राइंग रूम के एक शांत कोने में खड़े यह सारा दृश्य अपनी आँखों के सामने घटते
देख रहे थे, पूरी तरह से हिल गए थे। अपनी पत्नी और बेटों की पीड़ा देखकर उनका हृदय
फटा जा रहा था, पर वह कुछ कर नहीं सकते थे। और यह फोन कॉल! "अपहरण? मेरा? यह क्या
बकवास है? मैं तो यहीं हूँ! यहीं खड़ा हूँ! इन्हें देख रहा हूँ! सुन रहा हूँ! यह आदमी
कौन है और यह झूठ क्यों बोल रहा है?" उनका अदृश्य मन चीख रहा था। उन्हें अपनी
स्थिति की विडंबना और क्रूरता पर विश्वास नहीं हो रहा था - वह अपने ही घर में थे, अपनी
ही आँखों के सामने अपने अपहरण की झूठी कहानी सुन रहे थे, और अपने परिवार को इस भयानक
दुख में देख रहे थे!
यह सब क्यों हो रहा है? कौन
है यह आदमी फोन पर? यह सब कैसे हो सकता है? वह समझ नहीं पा रहे थे। किन्तु फिर देवदूत
के शब्द उनके कानों में गूंजे – "केवल दृष्टा भाव से देख पाओगे... हस्तक्षेप नहीं
कर पाओगे।" उनकी असहायता उन्हें कचोट रही थी। वह यहाँ होते हुए भी नहीं थे। कितना
क्रूर सत्य था यह!
अचानक उनके दिमाग में एक स्पष्ट
विचार कौंधा – जब अपहरण हुआ ही नहीं, तो यह कॉल? यह झूठ कौन बोल रहा है? और क्यों?
यह सब... यह सब देवदूत की माया है! यह उसी की परीक्षा का अगला चरण है! वह मुझे कुछ
दिखाना चाहता है! मुझे इस तरह असहाय, मूक दर्शक बनाकर वह मुझे संसार का कौन सा सत्य
दिखाना चाहता है?
उनके भीतर गुस्सा, असहायता और
अब एक नया, तीव्र संकल्प उभरा। "मुझे यह समझना होगा! मुझे देवदूत से बात करनी
होगी! इस खेल का रहस्य जानना होगा!" वह अब और यह सब सहन नहीं कर सकते थे, केवल
देखते रहना। उन्हें क्रिया करनी थी, भले ही अदृश्य रूप में। "मुझे वापस वहीं जाना
होगा जहां उसने मुझे छोड़ा था! मुझे उससे मिलना होगा!"
वह अपने विचार के साथ ही, अदृश्य रूप में ही, तेज़ी से ड्राइंग रूम
से बाहर निकले। उनके कदम तेज़ी से उस ओर बढ़े जिधर उनका शयनकक्ष था, उस जगह की ओर जहाँ
से यह सब शुरू हुआ था, उस दिव्य सत्ता की खोज में जिसने उन्हें इस विचित्र और भयानक
परीक्षा में धकेल दिया था। उनके मन में अब धन की लालसा नहीं थी, केवल सत्य जानने की
तीव्र इच्छा थी, और इस खेल को समाप्त करने का संकल्प।
***
मैं यहाँ हूँ! अपने ही घर में! अपने ही बेडरूम में! और कोई कह रहा है
कि मेरा अपहरण हो गया है? यह कैसा क्रूर मज़ाक था? उनके सीने में दिल ज़ोर-ज़ोर
से धड़क रहा था, जैसे अभी पिंजरा तोड़कर बाहर आ जाएगा। एक पल को उन्हें लगा कि शायद
उन्हें दिल का दौरा पड़ जाएगा। इस भयंकर उलझन, अविश्वास और हावी होते डर के आलम में,
जब दुनिया की कोई शक्ति उनके काम नहीं आ रही थी, उन्हें केवल एक ही नाम, एक ही शक्ति
याद आई – देवदूत।
"देवदूत प्रकट हो... देवदूत
प्रकट हो!" उनकी आवाज़ गले में फंसकर मुश्किल से निकली। उसमें कंपन था, और उस
कंपन में थी मदद के लिए एक बेताब पुकार।
उन्होंने मुश्किल से दो बार
ही पुकारा होगा कि कमरे के एक कोने में, जहाँ अभी कुछ नहीं था, एक मंद, अलौकिक प्रकाश
फैलना शुरू हुआ। प्रकाश धीरे-धीरे घना हुआ और हवा में एक हल्की सी सरसराहट महसूस हुई।
उस प्रकाश के केंद्र में, वही चिर-परिचित, शांत मुस्कान लिए देवदूत प्रकट हुए। उनके
तन पर वही साधारण सी, बेदाग पैंट-शर्ट थी, जिसे ध्यानचंद पहले भी कई बार देख चुके थे।
देवदूत की उपस्थिति में एक अदम्य शांति और गरिमा थी, जो ध्यानचंद की बेकाबू होती घबराहट
से बिलकुल विपरीत थी।
"कहो ध्यानचंद, इस बार
इतनी बेचैनी से कैसे याद किया?" देवदूत ने शांत, अथाह स्वर में पूछा, जैसे दुनिया
में कुछ भी असामान्य न हो रहा हो।
ध्यानचंद से अब और बर्दाश्त
नहीं हुआ। वे लगभग चीख पड़े, "यह सब क्या हो रहा है, देवदूत? यह कैसा भयानक खेल
है? मैं अपने घर में हूँ, बिल्कुल सुरक्षित! और फोन पर कोई शैतान मेरे बेटे से कह रहा
है कि मेरा अपहरण हो गया है? आप जानते हैं! यह कौन कर रहा है? कौन?" उनकी आवाज़
में घबराहट, बेबसी और चीखती हुई हैरानी साफ़ झलक रही थी। वे देवदूत की ओर ऐसे देख रहे
थे जैसे डूबता आदमी आखिरी तिनके को देखता है।
देवदूत के होठों पर वही रहस्यमयी,
थोड़ी सी समझदारी भरी मुस्कान बनी रही। उनकी आँखें शांत थीं, जिनमें अथाह गहराई थी।
"हैरान मत होइए ध्यानचंद," वे बोले, उनकी आवाज़ किसी शांत झील की तरह थी।
"अभी तो तुम्हें बहुत कुछ देखना बाकी है, इस संसार की कई परतें खुलेंगी तुम्हारे
सामने। बस देखते रहिए... साक्षी भाव से।"
"नहीं देवदूत, प्लीज़ मुझे
बताइए!" ध्यानचंद अपनी जगह से थोड़े हिले, हाथ जोड़कर लगभग गिड़गिड़ाए। "यह कौन
व्यक्ति था जिसने मेरे बेटे को फोन करके बताया कि मेरा अपहरण हो गया है? मैं उसे...
मैं उसे छोडूंगा नहीं! मैं उसे उसकी औकात दिखाऊंगा!" उनकी आवाज़ में सेठ ध्यानचंद
का पुराना अहंकार वापस आया था।
देवदूत की मुस्कान में कोई बदलाव
नहीं आया। उनकी सहजता हैरान कर देने वाली थी। "वह मैं हूँ," उन्होंने उतनी
ही शांति से कहा, जैसे मौसम बता रहे हों। "वह फोन मैंने ही किया था। मैं खुद तुम्हारे
पास आने वाला था, तुम्हें सूचित करने के लिए। उससे पहले ही तुम्हारी घबराहट ने तुम्हें
मेरा आह्वान करने पर मजबूर कर दिया।"
ध्यानचंद पर जैसे बिजली गिर
पड़ी। वे अवाक् रह गए। उनका मुँह खुला का खुला रह गया और साँस गले में अटक गई। उनके
मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे। कुछ पल की स्तब्ध कर देने वाली खामोशी के बाद,
उनका चेहरा पूरी तरह से अविश्वास, चोट और गहरी पीड़ा से भर गया। "आप? लेकिन...
लेकिन आपने ऐसा क्यों कहा? मेरे बेटे से कि मेरा अपहरण हो गया है? कि मैं... मैं आपके
कब्जे में हूँ?" उनका शरीर कांपने लगा था।
देवदूत ने एक गहरी सांस ली,
जैसे किसी लंबी यात्रा की तैयारी कर रहे हों। "मैं तुम्हारी जिज्ञासा शांत करता
हूँ, ध्यानचंद। याद है, हम दोनों के बीच एक करार हुआ था? एक गंभीर समझौता। तुमने वचन
दिया था कि जैसा मैं कहूंगा, तुम वैसा ही करते रहोगे, बिना प्रश्न किए, ताकि तुम इस
संसार की जटिल वास्तविकताओं को जान सको? ताकि तुम अपने जीवन के उस सत्य से सामना कर
सको जिसे तुमने धन और वैभव के नीचे छिपाए रखा है? उसी करार के तहत, जो कुछ जरूरी है,
मैं करूँगा और तुम्हें मेरा साथ देना होगा, मेरा कहना मानना होगा। उसी योजना का यह
पहला कदम है, ध्यानचंद। इसीलिए मैंने यह सब शुरू किया है। मैंने तुम्हारे बेटे से वादा
किया है कि मैं अगली बार फोन पर तुम्हारी बात उससे करवाऊंगा, उसे यकीन दिलाऊंगा कि
तुम जीवित हो। इसीलिए मैं तुम्हारे पास आना चाहता था।"
ध्यानचंद का दिल ज़ोर से धड़कने
के बाद अब जैसे डूब गया था। पेट में एक ठंडा गोला सा बन गया। "लेकिन इससे तो...
इससे तो मेरा परिवार और किसी नई और भयानक मुसीबत में फंस सकता है?" उनकी आवाज़
में डर और आशंका स्पष्ट थी। "मेरी पत्नी... उनकी हालत बहुत खराब है, देवदूत! आप
नहीं जानते आपने उन्हें कितना आघात पहुँचाया है!" उन्होंने अपनी गहरी और जायज़
आशंका व्यक्त की।
"कुछ नहीं होगा,"
देवदूत ने उनकी आँखों में देखते हुए उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की। उनकी आवाज़ में
दृढ़ता थी। "तुम व्यर्थ चिंता मत करो। मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे परिवार को
कोई हानि नहीं होने दूंगा। उन पर कोई आँच नहीं आएगी। यह मेरी ज़िम्मेदारी है।"
"लेकिन मैं तो... मैं तो
बहुत बड़ा भयभीत हूँ, देवदूत!" ध्यानचंद की आवाज़ भर्रा गई, आँसुओं के कारण। उनका
कठोर चेहरा अब एक छोटे बच्चे जैसा लग रहा था, जो डर गया हो। "मैंने आज सुबह सावित्री
की हालत देखी है। वो... वो बिलख रही थी। वो पहले ही दिल की मरीज़ है। यदि अब कोई अनहोनी
हुई, इस तनाव से... तो वो... वो अपने प्राण त्याग देगी। मैं सह नहीं पाऊंगा देवदूत!"
उनकी आँखों से दो गर्म आंसू लुढ़क आए। "इसलिए मैं तुमसे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर
रहा हूँ... इस मामले को यहीं बंद कर दो! अभी! मुझे कुछ नहीं चाहिए... इस दुनिया का
कोई धन, कोई वैभव नहीं। बस... बस मेरे परिवार की खुशी और उनका स्वास्थ्य वापस दे दो।
मुझे इस सबसे मुक्ति दे दो!" वे सचमुच टूट चुके थे।
देवदूत का चेहरा गंभीर हो गया।
उनकी आँखें अब और गहरी लग रही थीं। "नहीं ध्यानचंद, अब कुछ नहीं हो सकता।"
उनकी आवाज़ में अब कोई नरमी नहीं थी, केवल एक अटल निश्चय था। "जो बात शुरू हो चुकी
है, जो धागा मैंने खींच दिया है, वह तब तक नहीं रुकेगा जब तक वह अपने निष्कर्ष तक न
पहुँच जाए, जब तक इस योजना का उद्देश्य पूरा न हो जाए। और तुम्हारे कहने से अब कुछ
होने वाला भी नहीं है। तुम खुद इस मार्ग पर आगे बढ़े हो, ध्यानचंद। तुमने वचन देकर
इस करार को स्वीकार किया था, इसलिए अब तुम चाहकर भी पीछे नहीं हट सकते। अब तुम्हारा
कर्म केवल एक है – जैसा मैं कहूँ, वैसा करते रहो, और साक्षी भाव से... केवल दृष्टा
बनकर... सब कुछ देखते रहो। इसी में तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की भलाई है। मुझ पर
विश्वास रखो।" वे थोड़े रुके। "मैं जाता हूँ। रात ठीक नौ बजे... जब तुम्हारे
बेटे को सबसे ज़्यादा चिंता होगी... मैं फिर तुम्हारे पास आऊंगा। तब... तब तुम्हारे
बेटे से तुम्हारी बात करवाऊंगा।"
इतना कहकर, देवदूत की छवि धीरे-धीरे
मंद प्रकाश के साथ हवा में विलीन हो गई, ठीक उसी तरह रहस्यमय तरीके से, जैसे वे प्रकट
हुए थे।
कमरा फिर से खाली हो गया, लेकिन खालीपन भारी था। ध्यानचंद असहाय से
उस जगह को निहारते रहे जहाँ अभी देवदूत खड़े थे, जहाँ प्रकाश फैला था। उन्होंने अपने
जीवन में खुद को कभी इतना मजबूर और लाचार नहीं पाया था। आज वे एक अदृश्य, शक्तिशाली सत्ता के हाथों की कठपुतली
बन गए थे। वे जानते थे कि वे केवल दृष्टा थे, इस नाटक के एक पात्र जिसे अपनी भूमिका
निभानी थी, कुछ कर नहीं सकते थे, कुछ बदल नहीं सकते थे। गहरी निराशा, लाचारी और एक
अनजाने भय के बोझ तले उनका शरीर झुक गया। वे मन मसोसकर, किसी हारे हुए सेनापति की तरह,
अपने विशाल, ठंडे बिस्तर पर लेट गए। उन्होंने आँखें बंद कर लीं, शायद इस उम्मीद में
कि अगली बार जब आँखें खोलें तो यह सब एक बुरा सपना हो। और दो गर्म आँसू, जो उन्होंने
बरसों से नहीं बहाए थे, उनकी पलकों को भेदकर गालों पर लुढ़क आए, उनके उदास, विवश और
टूटे हुए चेहरे को भिगो गए। उस आलीशान कमरे में वे अकेले पड़े थे, अपने ही भाग्य और
एक अलौकिक करार के चक्रव्यूह में फंसे हुए।
***
रात्रि के ठीक 9:00 बजे थे।
सेठ ध्यानचंद के आलीशान बंगले में, जहाँ सामान्यतः इस समय तक चहल-पहल और हंसी-खुशी
का माहौल होता था, आज एक गहरी, खामोश उदासी छाई हुई थी। भव्य डाइनिंग टेबल पर सजे हुए
महंगे व्यंजन लगभग अछूते पड़े थे। सारा परिवार - सावित्री देवी, उनके बड़े बेटे राघव
और छोटा बेटा निखिल - अभी-अभी भोजन करके उठा था, लेकिन 'भोजन' शब्द यहाँ मात्र औपचारिकता
थी। पेट भरने के लिए कुछ निगलना पड़ा था, क्योंकि जब मन पर चिंता और भय का भारी बोझ
हो, तो भूख भला कैसे लग सकती है? हर कौर गले में अटक रहा था, हर निवाला बेस्वाद लग
रहा था। वे सब जानते थे कि शरीर को टिकाये रखने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है,
इसलिए कर्तव्यवश थोड़ा-थोड़ा भोजन किया था, लेकिन उस समय उनकी आत्मा कहीं और भटक रही
थी – उस अज्ञात जगह पर, जहाँ उनके प्रिय मुखिया ध्यानचंद हो सकते थे।
डाइनिंग हॉल से उठकर वे सभी
बैठक में आ गए थे। आलीशान सोफे पर बैठे हुए भी उन्हें आराम नहीं मिल रहा था। हवा में
एक अजीब सी घुटन थी। घड़ी की टिक-टिक सामान्य से कहीं ज़्यादा तेज़ और परेशान करने वाली
लग रही थी, मानो समय भी रुककर उनके दुःख का मूक गवाह बन गया हो।
तभी, सावित्री देवी ने, जिनका
चेहरा चिंता और आँसुओं से सूज गया था, धीमी, टूटी हुई आवाज़ में कहा, "राघव...
बेटा, 9 बज गए... उन्होंने कहा था कि फोन करेंगे... अब तक तो... अब तक तो फोन आया नहीं।
पता नहीं क्या बात है... मेरा मन बहुत घबरा रहा है।" उनकी कमज़ोर आवाज़ में एक माँ
की असहनीय पीड़ा और बेचैनी साफ झलक रही थी। उनका दिल, जो पहले ही कमज़ोर था, इस तनाव
से और तेज़ी से धड़क रहा था।
राघव ने अपनी माँ की ओर देखा।
उसकी अपनी आँखों में भी चिंता की गहरी परछाई थी, लेकिन वह खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश
कर रहा था। "आएगा माँ, जरूर आयेगा," उसने धीरज से कहा, उसकी आवाज़ में भी
एक हल्की सी कंपन थी जिसे वह छिपाना चाहता था। "उन्होंने कहा था कि मैं 'कुछ देर
बाद' बात करूंगा... उन्होंने कोई निश्चित समय नहीं बताया था।" वह खुद को और अपनी
माँ को दिलासा देने की कोशिश कर रहा था, जबकि उसके भीतर भी वही तूफान उमड़ रहा था।
"लेकिन भैया," निखिल,
जो तुलनात्मक रूप से कमज़ोर दिल का था और उसकी चिंता उसके चेहरे पर स्पष्ट थी, बोल पड़ा।
"तब से तो बहुत समय बीत चुका है। लगभग पूरा दिन निकल गया। अब तक तो फोन आ जाना
चाहिए था... कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई?" उसकी आवाज़ में डर साफ झलक रहा था।
"इन्तजार के अलावा हम कर
भी क्या सकते हैं निखिल?" राघव ने गहरी सांस लेते हुए कहा। यह सच था। इस समय वे
पूरी तरह से उस अज्ञात अपहरणकर्ता की दया पर थे। यह लाचारी उन्हें भीतर तक कचोट रही
थी।
थोड़ी देर की खामोशी के बाद,
निखिल ने दबी आवाज़ में एक और प्रश्न किया, "भैया, क्या हमें यह अपहरण वाली बात...
मतलब, फोन आने की बात... पुलिस को नहीं बता देनी चाहिए? कम से कम उन्हें सूचित तो कर
दें?"
राघव कोई उत्तर देता, उससे पहले
ही सावित्री देवी, जो अब तक खामोश बैठी थीं, लगभग कांपते हुए बोल उठीं, "नहीं
बेटा! नहीं! पुलिस को बताना ठीक नहीं होगा! अगर हमने पुलिस को बताया तो... तो उनकी
जान को खतरा हो सकता है!" उनकी आवाज़ में माँ का अपने पति के प्रति अगाध प्रेम
और उनकी सुरक्षा की चिंता साफ थी। पुलिस पर उन्हें शायद उतना भरोसा नहीं था, जितना
उस अदृश्य खतरे से डर था।
निखिल ने प्रतिवाद किया,
"लेकिन माँ! पुलिस को तो पहले से ही सारी घटना का पता है! वे पापा को तलाश भी
रहे हैं! और उस आदमी ने जो कहा, वह उन्हें बता देना चाहिए। शायद उन्हें कोई सुराग मिल
जाए? मेरा विचार तो यही है कि हमें इंस्पेक्टर साहब को सारी बात बता देनी चाहिए।"
उसकी बात में तर्क था।
राघव ने दोनों की बातें सुनीं।
माँ की चिंता सही थी, लेकिन निखिल की बात में भी दम था। पुलिस को इस नई जानकारी से
मदद मिल सकती थी। उसने सोचा, "अगर वे सादी वर्दी में आएँ तो शायद अपहरणकर्ता को
शक न हो।" उसने मन ही मन निर्णय लिया। "निखिल, तुम्हारी बात तो ठीक है,"
उसने कहा। "हम इंस्पेक्टर साहब को फोन करते हैं... इंस्पेक्टर मिश्रा को। मैं उनसे पूछता हूं कि वे इस स्थिति में हमारी किस
प्रकार सहायता कर सकते हैं। और हाँ, मैं उनसे कहूंगा कि वे सादी वर्दी में ही आएं...
ताकि अगर कोई हमें देख रहा हो या सुन रहा हो, तो उन्हें यह पता ना लगे कि हमने इस अपहरण
की सूचना पुलिस को दे दी है।"
"हाँ! हाँ भैया, यह ठीक
रहेगा!" निखिल की आँखों में थोड़ी उम्मीद दिखी। उसने तुरंत सहमति व्यक्ति की।
राघव ने बिना देर किए अपना फोन
उठाया और इंस्पेक्टर मिश्रा का नंबर डायल करने लगा। उसके हाथ हल्के से कांप रहे थे।
फोन लगने और दूसरी ओर से आवाज़ आने तक का पल उसे सदियों जैसा लंबा लगा। उसने संक्षिप्त
में, लेकिन स्पष्ट शब्दों में इंस्पेक्टर को रात नौ बजे वाले फोन कॉल के बारे में बताया
और उनसे तुरंत, सादी वर्दी में आने का आग्रह किया। इंस्पेक्टर मिश्रा ने गंभीरता से
उसकी बात सुनी और जल्द पहुँचने का आश्वासन दिया।
इंस्पेक्टर के आने का इंतजार
शुरू हो गया। हर आहट पर उनके कान खड़े हो जाते। हर गुज़रती गाड़ी की आवाज़ पर उन्हें लगता
कि शायद वही आ गए। चिंता की सुइयां लगातार चुभ रही थीं।
लगभग पंद्रह मिनट ही गुज़रे होंगे।
बाहर मुख्य द्वार पर एक मोटरबाइक के रुकने की आवाज़ आई। इंजन बंद होने की स्पष्ट आवाज़
बंगले के शांत माहौल में गूंज उठी। सभी की साँसें थम गईं। एक पल का ठहराव, फिर कदमों
की आहट सुनाई दी और एक हष्ट पुष्ट व्यक्ति ने, जिसकी उम्र लगभग 40 वर्ष रही होगी, घर
में प्रवेश किया। उन्होंने गहरे रंग की पैंट और एक सादी सफ़ेद शर्ट पहन रखी थी। उनकी
चाल में एक पेशेवर दृढ़ता थी।
राघव तुरंत सोफे से खड़ा हो गया।
उसके चेहरे पर थोड़ी राहत और थोड़ी और चिंता का मिश्रण था। उसने आगे बढ़कर उनका स्वागत
करते हुए कहा, "आईये इंस्पेक्टर मिश्रा। हम आपका ही इंतज़ार कर रहे थे।"
इंस्पेक्टर मिश्रा की आँखें
पूरे कमरे का जायजा ले रही थीं। "मैंने अधिक इंतज़ार तो नहीं कराया मिस्टर राघव?"
उन्होंने शांत, नियंत्रित स्वर में पूछा।
"आप ठीक कहते हैं इंस्पेक्टर
मिश्रा," राघव ने उदास और दबी हुई आवाज़ में कहा। "लेकिन जब आदमी ऐसी भयानक
परेशानी में होता है... जब अपने सबसे प्यारे की जान का खतरा होता है... तो उसे एक-एक
मिनट घंटों के समान लगते हैं। पल-पल काटना मुश्किल हो जाता है।"
"मैं समझ सकता हूँ मिस्टर
राघव," इंस्पेक्टर मिश्रा ने सोफे पर बैठते हुए कहा। उनकी आवाज़ में सहानुभूति
थी, लेकिन उनकी पेशेवर सतर्कता बनी रही। उन्होंने चारों ओर बैठे परिवार पर एक त्वरित
दृष्टि डाली। "औपचारिकताएं छोड़िए और मुझे सारी बात बताइए। उस फोन कॉल की एक-एक
डिटेल... ध्यान रहे कि छोटी से छोटी बात भी छूट न जाए। कभी-कभी बहुत छोटी सी बात भी
पुलिस के लिये बड़ा क्लू बन जाती है।"
राघव ने गहरी सांस ली और शुरू
हो गया। उसने सुबह से लेकर अब तक की सारी घटना इंस्पेक्टर को बताई। उस अज्ञात नंबर
से आये पहले फोन की डिटेल्स, उस व्यक्ति की धमकी भरी आवाज़, फिरौती की मांग, और सबसे
अहम्, रात नौ बजे दोबारा फोन करने का वादा जो अभी तक पूरा नहीं हुआ था। उसने अपनी माँ
और भाई की चिंता, अपने परिवार पर पड़े इस सदमे के बारे में भी बताया।
सारी बात को गंभीरता से सुनकर
इंस्पेक्टर मिश्रा ने कुछ पल सोचा। उनके चेहरे पर चिंतन की लकीरें थीं। "अगर यह
सच है," उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, "कि सेठ जी वाकई किसी अपहरणकर्ता के
हाथ पड़ चुके हैं, और उसने दोबारा फोन करने का वादा किया है, तो वह अवश्य ही फोन करेगा...
खासकर अगर उसे फिरौती चाहिए।" उन्होंने कलाई पर बंधी घड़ी देखी। "चलो, थोड़ी
देर और इंतज़ार करते हैं। शायद उसने समय का पालन न किया हो।"
"ठीक है सर," राघव
ने कहा। उसके मन में थोड़ी सी उम्मीद जगी थी कि शायद इंस्पेक्टर की मौजूदगी से कुछ मदद
मिले। उसने अपने भाई निखिल की ओर देखा और कहा, "निखिल, इंस्पेक्टर साहब के लिए
जलपान की व्यवस्था करवाओ।" यह संकट के समय भी आतिथ्य का एक सहज भारतीय संस्कार
था।
निखिल उठकर चला गया। कमरा फिर से खामोश हो गया, लेकिन अब उस खामोशी
में इंस्पेक्टर मिश्रा की सतर्क उपस्थिति का भार भी जुड़ गया था। सोफे पर बैठे सभी लोग,
पुलिस अधिकारी सहित, उस भयानक और अनिश्चित फोन कॉल का इंतज़ार करने लगे। समय जैसे ठहर
गया था। हर गुज़रता पल उनके दिल की धड़कनों को और तेज़ कर रहा था।
रात्रि के घनघोर अँधेरे में,
जब घड़ियाँ दस का आँकड़ा छू रही थीं, सेठ ध्यानचंद के आलीशान बेडरूम में एक विचित्र सी
खामोशी पसरी हुई थी। रेशमी मखमली पर्दों से छनकर आती चाँदनी की पतली-पतली किरणें कमरे
की फर्श पर आड़ी-तिरछी, धुंधली आकृतियाँ बना रही थीं, जैसे कोई रहस्यमयी भाषा लिख रही
हों। सेठ जी अपने विशाल, आरामदायक बिस्तर पर लेटे थे, उनका शरीर बिस्तर की नरमी में
धँसा था, पर मन अशांत था। नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी, किसी अनचाहे मेहमान की
तरह उसने उनके द्वार पर दस्तक ही नहीं दी थी। उनका मस्तिष्क विचारों के भंवर में उलझा
हुआ था, एक अंतहीन उधेड़बुन चल रही थी। वे बेचैनी से करवटें बदल रहे थे, कभी तकिये
को असुविधाजनक पाकर ठीक करते, तो कभी चादर को हटाते-ओढ़ते। चिंता की गहरी लकीरें उनके
माथे पर खिंची थीं।
अचानक, उन्हें एक अद्भुत, अविश्वसनीय
अनुभव हुआ। ऐसा लगा जैसे उनके शरीर का सारा वज़न जैसे शून्य हो गया हो, जैसे वे रुई
का कोई फाहा हों – हवा से भी हल्के। एक अपरिचित, अनजाना और शब्दों में अवर्णनीय खिंचाव
उन्हें ऊपर की ओर खींच रहा था, धीरे-धीरे नहीं, बल्कि एक निश्चित गति से। उनके कमरे
की परिचित छत, उस पर टंगा भारी-भरकम झूमर, दीवारें, कमरा – सब कुछ आँखों के सामने धुंधला
होता गया, जैसे कोई दृश्य फोकस से बाहर हो रहा हो। और फिर, एक क्षण आया जब वे महसूस
कर सके कि वे हवा में तैर रहे हैं, किसी अदृश्य शक्ति द्वारा ऊपर ले जाए जा रहे हैं।
यह कोई साधारण सपना नहीं था, क्योंकि वे पूरी तरह सचेत थे, अपने आसपास की हर चीज़ को
महसूस कर रहे थे, बस अपने शरीर पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था, वे इच्छाशक्तिविहीन थे।
कितना समय बीता, इसका भान उन्हें नहीं रहा, शायद पलक झपकने से भी कम। और फिर, उसी गति
से ऊपर उठने के बाद, उन्हें महसूस हुआ कि वे किसी ठोस, ठंडी सतह पर आ बैठे हैं।
उन्होंने झटके से आँखें खोलीं
तो पाया कि वे अपने बेडरूम की सुरक्षित चारदीवारी से बहुत दूर हैं। वे पास के ही एक
शांत, हरे-भरे पार्क के एक एकांत कोने में लगी एक साधारण सी, पुरानी लकड़ी की बेंच
पर बैठे थे। रात की ताज़ी, शीतल हवा उनके चेहरे को किसी स्नेही हाथ की तरह सहला रही
थी और आसपास के घने पेड़ों से आती झींगुरों की एकरस आवाज़ रात की खामोशी को भंग कर रही
थी। सामने, हल्की, दूधिया चाँदनी की रोशनी में नहाया हुआ एक दिव्य और अलौकिक पुरुष
शांत मुस्कान लिए खड़ा था। उसके चेहरे पर ऐसी अपार शांति, सौम्यता और करुणा थी जो इस
भौतिक दुनिया में दुर्लभ थी। और उसकी आँखों में एक ऐसी चमक थी, एक ऐसी गहराई, जो सेठ
ध्यानचंद को किसी जानी-पहचानी सी लगी, जैसे उन्होंने इसे पहले कहीं देखा हो, शायद बहुत
पुरानी स्मृतियों में।
सेठ ध्यानचंद का हृदय आश्चर्य,
विस्मय और एक हल्के, अनजाने भय से तेज़ी से धड़क रहा था। उन्होंने अपने चारों ओर देखा
– बेंच, पेड़, खाली पार्क – फिर उस दिव्य पुरुष को। उनकी बुद्धि इस असाधारण घटना को
समझने में पूरी तरह से असमर्थ थी, उनका माथा चकरा रहा था।
"यह... यह मुझे क्या हुआ?" उनकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी, उसमें घबराहट और अविश्वास
का स्पष्ट मिश्रण था। "अभी-अभी तो मैं अपने पलंग पर लेटा हुआ था... अपने कमरे
में... और अचानक मुझे ऐसा लगा कि मैं हवा में उड़ रहा हूँ... आसमान में... और क्षण
भर में ही मैं यहाँ... आपके सामने पहुँच गया!"
वह दिव्य पुरुष, जिसकी आभा किसी
चमकीले तारे के समान थी और जो वास्तव में एक देवदूत था, स्नेहपूर्वक मुस्कुराया। उसकी
मुस्कान में किसी भी भय को दूर करने का आश्वासन था। "शांत हो जाओ, ध्यानचंद,"
देवदूत की आवाज़ अत्यधिक मधुर, शांत और कर्णप्रिय थी, जैसे दूर किसी प्राचीन मंदिर से
आती हुई पवित्र घंटियों की ध्वनि। "घबराने की कोई बात नहीं है। तुम सुरक्षित हो।
मैंने ही तुम्हें यहाँ बुलाया है।"
"आपने?" सेठ ध्यानचंद
की हैरानी और भी बढ़ गई, उनकी आँखें फैल गईं। "पर क्यों? और इस तरह... इस विचित्र
तरीके से?"
देवदूत ने धैर्यपूर्वक समझाया,
उसकी आवाज़ में अथाह ज्ञान की गहराई थी, "मैंने तुम्हारे बेटे, राघव से एक विशेष
वादा किया था, ध्यानचंद। उसने मुझसे अत्यंत व्याकुलता से याचना की थी कि मैं किसी तरह
उसकी बात उसके पिता, यानी तुमसे करा सकूँ। मैं तुम्हारे घर की ओर ही प्रस्थान कर रहा
था, किंतु मार्ग में मुझे यह सुंदर, शांत और एकांत पार्क दिखाई दिया। मैंने सोचा, क्यों
न तुम्हें भी यहीं बुला लूँ? इस आपाधापी भरे जीवन में तुम्हारा भी थोड़ा मन बहल जाएगा,
प्रकृति के शांत सान्निध्य में कुछ पल बिता लोगे और वह महत्वपूर्ण कार्य भी सहजता से
हो जाएगा जिसके लिए मैं तुम्हारे पास आ रहा था।"
सेठ ध्यानचंद देवदूत की अलौकिक
बातें सुन रहे थे। राघव की बात... देवदूत का वादा... एक ऐसी यात्रा जो भौतिक नियमों
के परे थी... यह सब उनके लिए किसी अबूझ पहेली जैसा था, जिसका कोई सिरा उन्हें नहीं
मिल रहा था। किंतु, इस दिव्य शक्ति के समक्ष विरोध करने या अधिक प्रश्न पूछने का साहस
उनमें नहीं रहा था। उन्हें यह गहन अहसास हो गया था कि वे इस चमत्कारी उपस्थिति के आगे
पूर्णतया विवश हैं, एक असहाय प्राणी की तरह।
"ठीक है," सेठ ध्यानचंद
ने अंततः समर्पण भरे, लगभग बुझे हुए स्वर में कहा, उनकी आवाज़ में अब पहले वाली घबराहट
की जगह एक अजीब सी, नई शांति थी, जैसे कोई बड़ा तूफान थम गया हो। "आप जैसा कहें,
मैं वैसा ही करूँगा। मैं भली-भांति समझ चुका हूँ कि चाहकर भी मैं आपकी इच्छा के विरुद्ध
कुछ भी नहीं कर सकता। मेरी कोई शक्ति आपके सामने नहीं चलेगी। इसलिए, आप जो चाहते हैं,
करें। मैं पूर्ण सहयोग करूँगा।"
देवदूत ने ध्यानचंद के इस त्वरित
और सहज समर्पण को देखकर स्वीकृति में अपना सिर हिलाया। फिर उसने अपना एक हाथ धीरे से
हवा में ऊपर उठाया। जैसे ही उसका हाथ वापस नीचे आया, उसकी हथेली पर एक आधुनिक, चमकदार
मोबाइल फ़ोन प्रकट हुआ, जो कुछ पल पहले वहाँ बिल्कुल नहीं था। देवदूत ने उस मोबाइल
पर सेठ ध्यानचंद के बड़े बेटे, राघव का नंबर डायल करना शुरू कर दिया। पार्क की गहरी
खामोशी में मोबाइल के बटनों की हल्की ‘टीप-टीप’ की आवाज़ गूंज रही थी, और सेठ ध्यानचंद
का दिल इस अप्रत्याशित मोड़ और अनजाने कौतूहल के साथ-साथ थोड़ी आशंका से भी तेज़ी से
धड़क रहा था। वे नहीं जानते थे कि यह फोन कॉल उनके जीवन में क्या नया मोड़ लाने वाला
है।
(अध्याय सात)
रात्रि के लगभग दस बजकर कुछ
मिनट हो रहे थे। सेठ ध्यानचंद के विशाल ड्राइंग रूम में एक असहनीय तनाव और बोझिल खामोशी
का साम्राज्य था। कमरे की हवा भारी थी, जैसे कोई अनिष्टकारी बादल छाया हो। आलीशान सोफे
पर सेठ जी की पत्नी, सावित्री देवी, बैठी थीं, उनके हाथ में रुमाल था जिससे वे रुक-रुक
कर अपनी लाल, सूजी हुई आँखें पोंछ रही थीं। उनके दोनों बेटे, राघव और निखिल, परेशान
और चिंतित मुद्रा में कमरे के बीच खड़े अनुभवी पुलिस अधिकारी, इंस्पेक्टर मिश्रा के
साथ धीमी, गंभीर बातचीत में उलझे हुए थे। सेठ ध्यानचंद का आज सुबह से कुछ पता नहीं
चला था, और जैसे-जैसे शाम ढली, यह दुखद और भयानक सत्य स्पष्ट हो गया था कि उनका अपहरण
कर लिया गया है।
इंस्पेक्टर मिश्रा, जो अपने
शांत स्वभाव और तेज़ बुद्धि के लिए जाने जाते थे, परिवार को ढाढ़स बंधाने और उम्मीद
जगाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनके अपने चेहरे पर भी गहरी चिंता की लकीरें साफ दिखाई
दे रही थीं। "आप लोग हिम्मत रखिए," वे शांत, आश्वस्त करने वाले स्वर में
कह रहे थे, "हमने अपनी सर्वश्रेष्ठ टीमों को तुरंत कार्रवाई के लिए लगा दिया है।
हर संभावित कोण से जांच की जा रही है।"
तभी, उस बोझिल और दिल दहला देने
वाली खामोशी को चीरती हुई, राघव के मोबाइल की तेज़ घंटी बज उठी। कमरे में बैठे सभी लोगों
का ध्यान अनायास ही उस ओर खिंच गया, जैसे किसी ने बिजली का झटका दिया हो। इंस्पेक्टर
मिश्रा ने तुरंत राघव की ओर देखते हुए सधे हुए स्वर में पूछा, "किसका फोन है?
कोई अनजाना नंबर?"
राघव ने कांपते हाथों से अपना
मोबाइल उठाया, उसकी स्क्रीन पर एक अपरिचित, अनजाना नंबर चमक रहा था। उसका दिल ज़ोरों
से धड़क रहा था, जैसे अभी सीने से बाहर आ जाएगा। उसने धीमी, लगभग फुसफुसाते, हिचकिचाते
स्वर में उत्तर दिया, "लगता है... उसी का है।" उसकी आवाज़ में एक अजीब सा
डर और एक धूमिल सी उम्मीद का मिश्रण था।
"ठीक है, उठाओ," इंस्पेक्टर
मिश्रा ने अपनी आवाज़ को और भी सधा हुआ बनाते हुए कहा, "किंतु स्पीकर या हैंड फ्री
ऑन कर देना ताकि मैं भी सुन सकूं कि वह क्या चाहता है।"
राघव ने एक लंबी, गहरी सांस
ली, जैसे हिम्मत जुटा रहा हो, और कांपती उंगलियों से कॉल उठाई। उसने तुरंत स्पीकर ऑन
कर दिया। कमरे में सन्नाटा और भी घना हो गया, सबकी सांसें अटक गईं।
"हैलो?" राघव की आवाज़ निकली, जो डर और तनाव के कारण उसके अपने कानों को भी
अजनबी और पतली लग रही थी।
दूसरी ओर से एक भारी, कर्कश,
और भयानक आवाज़ आई, जैसे कोई मशीन बोल रही हो, "हम बोल रहे हैं... तुम्हारे पापा
के अपहरणकर्ता।"
राघव का दिल जैसे उछलकर हलक
में आ गया। उसने खुद को किसी तरह संभालते हुए, अपनी आवाज़ में यथासंभव दृढ़ता लाने की
कोशिश करते हुए कहा, "जी... जी, मैं तो बहुत देर से आपके कॉल की प्रतीक्षा कर
रहा था। बताइए हमारे पापा कैसे हैं? वह ठीक तो हैं? कृपया उनसे हमारी बात कराइए।"
उसकी आवाज़ में शीघ्रता, व्याकुलता और बेबसी स्पष्ट थी।
"तुम्हारे पापा मजे में
हैं," उस डरावनी, भावनाहीन आवाज़ ने कहा, उसमें व्यंग्य का हल्का पुट था,
"हम उनकी पूरी सेवा कर रहे हैं, किसी मेहमान की तरह उनका ख्याल रखा जा रहा है।
और यदि तुमने हमारा कहना बिना किसी हील-हुज्जत के माना तो वह सही सलामत, पूरे के पूरे
अपने घर पहुंच जाएंगे। लेकिन यदि तुमने कोई चतुराई दिखाने की कोशिश की, पुलिस को शामिल
किया, या हमारा कहना नहीं माना... तो समझ लेना... अपने पापा से हमेशा के लिए हाथ धो
बैठोगे।" आवाज़ में धमकी और क्रूरता की ठंडक स्पष्ट थी, जिससे रगों का खून जम जाए।
राघव की आँखों में आंसू तैरने
लगे। उसने रुंधे, भीगे गले से कहा, "हम... हम अपने पापा के लिए सब कुछ करने के
लिए तैयार हैं। आप जो कहेंगे, हम वो करेंगे। कृपया आप हमारे पापा से बात कराइए। बस
एक बार... फिर आप जैसा कहेंगे, हम वैसा ही करेंगे।"
"काफी समझदार लगते हो,"
अपहरणकर्ता ने व्यंग्य से कहा, उसकी आवाज़ में जैसे अहंकार भर आया हो, "आखिर इस
नगर के सबसे धनी व्यक्ति के बेटे जो हो। लो, अपने पापा से बात करो।"
कुछ क्षणों की भारी खामोशी के
बाद, एक जानी-पहचानी, लेकिन बेहद भयभीत और थकी हुई आवाज़ सुनाई दी। "हेलो... हेलो
राघव... मैं बोल रहा हूं... तुम्हारा पापा। कैसे हो बेटा? घर में सब कैसे हैं? तुम्हारी
मां... मां तो ठीक है ना?" यह सेठ ध्यानचंद की आवाज़ थी, जिसमें कमजोरी, डर और
चिंता साफ झलक रही थी, जैसे किसी गहरे सदमे में हों।
"पापा….पापा! आप कहां हैं
पापा? यह सब क्या हो गया? आप कहां चले गए?" राघव फफक पड़ा, उसके आँसू बह निकले।
"मैं... मैं ठीक हूं बेटा,"
ध्यानचंद ने कांपते हुए कहा, "और मुझे अधिक बात करने की इजाजत नहीं है। वैसे तो
मेरा यह पूरा ध्यान रख रहे हैं, कोई तकलीफ नहीं है, किंतु बेटा... यह धमकी दे रहे हैं...
कि तुमने इनकी बात नहीं मानी तो यह... यह मेरी हत्या कर देंगे।" उनकी आवाज़ घबराहट
और डर से बुरी तरह कांप रही थी।
अचानक फोन से ऐसी कर्कश आवाज़
आई जैसे किसी ने उनके पापा के हाथ से फोन झटके से छीन लिया हो। और फिर वही पहले वाली
डरावनी, ठंडी आवाज़ सुनाई दी।
"अब तो तुम्हें विश्वास
हो गया कि तुम्हारे पापा सही सलामत हैं और हमारे पास हैं?" अपहरणकर्ता ने पूछा,
उसकी आवाज़ में किसी शिकारी की संतुष्टि थी। "या तुम्हें यकीन दिलाने के लिए तुम्हारे
पापा का कोई हिस्सा-पुर्जा काटकर तुम्हारे पास भेज दूं ताकि तुम्हें अच्छी तरह से विश्वास
आ जाए?" उसकी आवाज़ में क्रूरता और भी बढ़ गई थी, जिससे सुनने वालों की रूह काँप
उठी।
"नहीं, नहीं! ऐसा मत कहिए!
भगवान के लिए ऐसा मत सोचिए!" राघव चीख पड़ा, उसकी आवाज़ में पीड़ा और याचना थी।
"आप जैसा कहेंगे... हम वैसा ही करेंगे, किंतु वादा करिए कि हमारे पापा के साथ
कुछ नहीं करेंगे... उन्हें कोई चोट नहीं पहुंचाएंगे... और उनका पूरा ख्याल रखेंगे।"
कहते हुए राघव की आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। सावित्री देवी भी सोफे पर बैठी
फूट-फूटकर सिसकने लगी थीं, निखिल ने तुरंत उनके पास जाकर उन्हें सहारा दिया।
"ठीक है, जैसा तुम कहते
हो वैसा ही होगा," अपहरणकर्ता की आवाज़ में कुछ पल के लिए जैसे कुछ नरमी आई हो,
"लेकिन तुम्हें भी ठीक वही करना होगा जो हम चाहते हैं। एक भी गलती नहीं।"
"बताइए हमें क्या करना
है?" राघव ने तुरंत कहा, उसकी आवाज़ में अब संकल्प था, "आप जो भी कहेंगे वह
हम करने के लिए तैयार हैं। हम अपने पापा के लिए... अपनी जान भी दे सकते हैं।"
"ठीक है। तो सुनो। 10 करोड़
रुपए तैयार रखो। बिल्कुल नए नोटों में। कब, कहां और कैसे पहुंचाने हैं, यह मैं बाद
में फोन करके बताता हूं।" उधर से कहा गया, जैसे कोई मामूली चीज़ मांग रहा हो।
"दस करोड़!" यह विशाल
रकम सुनते ही राघव के पैरों तले से जैसे जमीन ही खिसक गई। उसका चेहरा पीला पड़ गया।
"दस करोड़! यह तो... यह तो बहुत बड़ी रकम है। हम तो छोटे से व्यापारी हैं, हमारे
पास इतना पैसा... कहां से आएगा?" उसने हताशा और अविश्वास में कहा, "हम...
हम आपको दस लाख... दस लाख रुपए दे सकते हैं। कृपया... कृपया हम पर दया करिए, हमारे
पापा को छोड़ दीजिए।"
"मैं तुमसे सौदा नहीं कर
रहा," अपहरणकर्ता की आवाज़ फिर से कठोर, सपाट और खतरनाक हो गई, "मैं तुम्हें
बता रहा हूं कि कितनी रकम का इंतजाम करना है। और हां, छोटे व्यापारी? मुझे तुम्हारे
बारे में सब मालूम है। मैंने तुम्हारी पूरी कुंडली निकलवा ली है। मुझे मालूम है कि
तुम्हारी कुल संपत्ति 10 करोड़ से भी अधिक है। क्या करना है, कैसे करना है, यह तुम्हारी
समस्या है, तुम जानो। मैं तुम्हें चार दिन का समय देता हूं। ठीक चार दिन। 10 करोड़
का इंतजाम करो, नहीं तो... नहीं तो दो टुकड़ों में तुम्हारे पापा तुम्हारे घर भेज दिए
जाएंगे। और हां, तुम चाहो तो पुलिस के पास जा सकते हो, मुझे कोई परवाह नहीं। मेरी तरफ
से कोई पाबंदी नहीं है। मैं पुलिस-वुलिस से नहीं डरता।" इतना कहकर अपहरणकर्ता
ने निर्ममता से फोन काट दिया।
ड्राइंग रूम में जैसे समय ठहर
गया। एक ऐसा सन्नाटा छा गया जहाँ सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई दे जाती। वहाँ बैठे हुए
सभी के चेहरे पर खौफ, लाचारी और गहरी, काली चिंता की रेखाएं खिंच गई थीं। राघव निढाल
सा सोफे पर गिर पड़ा, उसका शरीर काँप रहा था।
कुछ देर बाद, इस असहनीय खामोशी
को इंस्पेक्टर मिश्रा ने तोड़ा। उन्होंने राघव के कंधे पर अपना हाथ रखते हुए शांत,
गंभीर स्वर में कहा, "आप घबराइए मत मिस्टर राघव। यह अपहरणकर्ता कितना ही बड़ा
बदमाश क्यों ना हो, कितना ही शातिर क्यों ना हो, हम इसे ढूंढ निकालेंगे और तुम्हारे
पिताजी को सही सलामत वापस ले आएंगे। तुम जिस फोन नंबर पर बात कर रहे थे, वह फोन नंबर
मुझे तुरंत दो, ताकि मैं उसकी लोकेशन और अन्य डिटेल्स निकलवा सकूं।"
राघव ने कांपते हाथों से अपना
मोबाइल उठाया और उस नंबर को तलाशना शुरू किया जिससे अभी-अभी उसकी बात हुई थी। उसका
माथा ठनका, उसकी आँखें फैल गईं। यह क्या! उसके कॉल लॉग में उस नंबर का कोई अता-पता
नहीं था। जैसे वह कॉल कभी आई ही न हो। उसने आश्चर्यचकित, अविश्वासी स्वर में कहा,
"इंस्पेक्टर... इंस्पेक्टर साहब! मेरे मोबाइल में तो... उस कॉल की कोई डिटेल ही
नहीं है! जिस नंबर पर अभी-अभी अपहरणकर्ता से बात हो रही थी... वह नंबर... वह नंबर है
ही नहीं! गायब हो गया है!"
इंस्पेक्टर मिश्रा भी चौंक गए,
उनकी भौंहें तन गईं। "यह कैसे संभव है? यह तो बहुत ही अजीब है। लेकिन टेक्नोलॉजी
का युग है, इसमें कुछ भी असंभव नहीं। लगता है तुम्हारे पापा किसी बड़े और अत्यंत शातिर,
पेशेवर गैंग के हाथ लग गए हैं।" उन्होंने कुछ सोचते हुए अपनी ठोड़ी पर हाथ फेरा
और कहा, "चलो, कोई बात नहीं। मैं टेलीकॉम कंपनी से इस कॉल की पूरी डिटेल निकलवा
लूंगा। मेरे पास तुम्हारा नंबर तो है ही। कॉल आई है तो उसका रिकॉर्ड सिस्टम में कहीं
ना कहीं होगा ही।"
फिर उन्होंने परिवार की ओर देखकर
आश्वस्त करने वाले स्वर में कहा, "और हां, चिंता मत करना। हम पूरी जान लगा देंगे।
हम तुम्हारे पापा को सुरक्षित वापस लाएंगे। बस आगे कोई भी बात हो, कोई और फोन आए, तो
मुझे सूचित जरूर करना। वैसे मैंने सादी वर्दी में दो अनुभवी सिपाही तुम्हारे घर के
आसपास सुरक्षा और निगरानी के लिए लगा दिए हैं। अब मैं भी चलता हूं, रात काफी हो गई
है। आप लोग भी हिम्मत रखें और आराम करें।"
इंस्पेक्टर मिश्रा ड्राइंग रूम
से उठकर बाहर के दरवाजे की ओर चल दिए। परिवार के सभी सदस्य भयभीत, लाचार और असहाय नज़रों
से उन्हें बाहर जाते हुए देखते रहे, जैसे अपनी आखिरी उम्मीद को जाते देख रहे हों। उनके
जाने के बाद भी ड्राइंग रूम में देर तक वही खौफनाक खामोशी छाई रही, उस पर तनाव और अनिश्चितता
का साया और भी गहरा हो गया था।
***
रात गहरा चुकी थी। शहर की भागदौड़,
उसका शोर-शराबा थम सा गया था, लेकिन राघव के घर में एक अजीब सी बेचैनी और तनाव पसरा
हुआ था जो हवा में महसूस किया जा सकता था। दिन भर की शारीरिक थकान और उससे भी कहीं
ज़्यादा मानसिक आघात और तनाव लिए जब राघव अपने शयनकक्ष में पहुँचा, तो देखा कि उसकी
पत्नी मंजरी बिस्तर पर बैठी शांत भाव से उसी का इंतज़ार कर रही थी। उसके चेहरे पर भी
चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, जो दिन भर की घटनाओं का परिणाम थीं।
राघव ने उसके पास जाकर धीमे,
भारी स्वर में कहा, "सोई नहीं अभी तक?" उसकी आवाज़ में भारीपन था, जैसे कोई
असहनीय बोझ उसकी छाती पर रखा हो।
मंजरी ने एक लंबी, गहरी सांस
ली, मानो अपने अंदर उठ रहे आशंकाओं और चिंताओं के तूफान को शांत करने की असफल कोशिश
कर रही हो। "नींद कहाँ आ रही है," उसने उदास, धीमी आवाज़ में कहा, "जब
घर में इतनी बड़ी समस्या एक साथ आ खड़ी हुई हो तो भला नींद कैसे आ सकती है।" उसकी
आँखें राघव के थके हुए चेहरे पर टिकी थीं, किसी उम्मीद की तलाश में, या शायद किसी और
बुरी खबर की आशंका में। फिर उसने सीधे मुद्दे पर आते हुए पूछा, उसकी आवाज़ में थोड़ी
तेज़ी आई, "अपहरणकर्ता का फोन आया कि नहीं? बात हुई?"
"हाँ आया," राघव ने
थके हुए, हारे हुए स्वर में जवाब दिया, "फोन तो आया... पर वह मेरा तो सुख चैन
ही उड़ा कर ले गया। समझ नहीं आ रहा क्या करूँ... कहाँ जाऊँ।" वह पास ही रखे एक
आरामदायक सोफे पर धम्म से बैठ गया, जैसे उसके पैरों में जान ही न हो। उसने दोनों हाथों
से अपना सिर थाम लिया, उसकी उंगलियाँ माथे पर खिंची रेखाओं को महसूस कर रही थीं।
"क्यों? क्या हुआ? उसने
क्या कहा?" मंजरी की आवाज़ में उत्सुकता, चिंता और डर का मिला-जुला भाव था।
"पैसों की मांग की होगी, है ना?"
राघव ने सिर उठाया, उसकी आँखों
में गहरी, अथाह निराशा थी, जैसे सारे रास्ते बंद हो गए हों। "हाँ, पैसों की तो
मांग की है," उसने कहा, "किंतु उसकी मांग यदि पूरी करनी पड़ी तो हम पूरी
तरह... पूरी तरह बर्बाद हो जाएंगे। सड़क पर आ जाएंगे।"
"कितने... कितने मांग रहा
है?" मंजरी ने सहमते हुए पूछा, उसकी धड़कनें तेज़ हो गई थीं, किसी अनहोनी की आशंका
ने उसे जकड़ लिया था।
"दस करोड़," राघव
की आवाज़ लगभग फुसफुसाहट में बदल गई, जैसे इस अंक को ज़ोर से कहने में भी उसे डर लग रहा
हो, जैसे यह अंक अपने आप में एक भयानक खतरा हो।
"दस करोड़?" मंजरी
के मुँह से चीख निकलते-निकलते बची। उसका चेहरा पीला पड़ गया। "हाय राम! इतने पैसे!
इतने पैसे हम कहाँ से लाएंगे? यह तो असंभव है!" उसकी आँखों में अविश्वास और भय
तैर रहा था, उसके हाथ अपने आप जुड़ गए।
"वही तो मेरी समझ में नहीं
आ रहा! क्या करूँ? कहाँ से लाऊँ इतनी बड़ी रकम?" राघव ने माथा पकड़ते हुए, बेबसी
भरी आवाज़ में कहा, उसकी आवाज़ में हताशा साफ झलक रही थी। "इतनी बड़ी रकम इकट्ठा
करने में तो हमारा घर-बार, दुकान, कारोबार... सब कुछ बिक जाएगा। सब कुछ। हम सड़क पर
आ जाएँगे, मंजरी। हमारे बच्चों का भविष्य...?"
मंजरी कुछ देर चुप रही, शायद
स्थिति की भयावहता और उसके परिणामों को समझने की कोशिश कर रही थी। उसके चेहरे पर भाव
पल-पल बदल रहे थे। फिर उसने धीरे से, नपे-तुले शब्दों में, राघव की ओर देखते हुए कहा,
"एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगे?"
"हाँ बोलो," राघव
ने बिना किसी विशेष भाव या अपेक्षा के कहा, उसकी सारी भावनाएं जैसे सुन्न पड़ गई थीं।
मंजरी ने एक और गहरी सांस ली
और फिर दृढ़ता से, अपनी बात पर ज़ोर देते हुए बोली, "देखो, ससुर जी हमारे बड़े हैं,
उनको बदमाशों से छुड़ाना भी हमारी ज़िम्मेदारी है, यह मैं भली-भांति जानती और मानती
हूँ। लेकिन पिताजी को तो हम छुड़ा लें और खुद अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई, अपनी मेहनत,
सब कुछ लुटाकर सड़क पर आ जायें, अपने बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दें, ये भी कोई
समझदारी की बात नहीं होगी। यह तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।"
राघव अपनी पत्नी को कुछ देर
तक एकटक देखता रहा, उसकी आँखों में विश्वास नहीं हो रहा था कि मंजरी ऐसी बात कह सकती
है, ऐसी सोच रख सकती है। उसकी आँखों में पहले आश्चर्य, फिर अविश्वास और अंततः गहरी
नाराजगी और नागवारी के भाव तैर गए।
"तुम कहना क्या चाहती हो,
साफ-साफ कहो," राघव की आवाज़ में अब स्पष्ट कठोरता आ गई थी, उसका चेहरा तनाव से
भर गया था।
"हाँ, साफ-साफ कह रही हूँ,"
मंजरी ने भी दृढ़ता और आत्मविश्वास से कहा, उसकी आवाज़ में कोई हिचक नहीं थी, "देखो,
अगर वे दस-पाँच लाख लेकर पापा को छोड़ते हैं तो दे दो, कोई बात नहीं। लेकिन दस करोड़?
नहीं। इतनी बड़ी रकम नहीं। नहीं तो पुलिस जाने। आखिर पुलिस और कानून भी तो है इस देश
में। उनका भी तो कुछ काम है। हम अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई, अपनी मेहनत, अपने बच्चों
का हक ऐसे कैसे किसी बदमाश के हाथ लुटा सकते हैं?"
राघव को गहरा धक्का लगा। उसकी
पत्नी की बातें उसे चुभ गईं। "लेकिन... लेकिन अगर उन्होंने पापा को मार डाला तो..."
यह सोचते ही राघव का कलेजा मुँह को आ गया, उसकी आवाज़ काँप उठी। "यह कोई मामूली
गैंग नहीं लगता, मंजरी," उसने काँपती आवाज़ में कहा, "उसने तो खुद कहा है
कि वे पुलिस से नहीं डरते। उसने जो धमकी दी है, वह... वह बहुत भयानक है।"
"होने को तो कुछ भी हो
सकता है जी," मंजरी ने अपनी बात पर कायम रहते हुए तर्क दिया, "क्या गारंटी
है कि वे पैसे लेकर भी पापा की हत्या न कर दें? बदमाश हैं, उनका कोई भरोसा नहीं। तब
हम क्या कर लेंगे? न पापा रहेंगे और न हमारे पास कुछ बचेगा। कम से कम हमारे पास बच्चों
के लिए कुछ तो बचेगा, उनका भविष्य तो सुरक्षित रहेगा।"
"यह सब ठीक है, मंजरी,"
राघव ने पीड़ा से कहा, उसकी आवाज़ में दर्द था, "लेकिन दुनिया क्या कहेगी? लोग
क्या सोचेंगे? लोग कहेंगे कि जिस बाप ने हमें पाला-पोसा, इस लायक बनाया, इतनी धन संपत्ति
इकट्ठी की और जब उसी बाप पर आफत आई तो बेटे-बहू ने पैसों के लिए मुँह फेर लिया। हम
किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।"
"दुनिया!" मंजरी की
आवाज़ में तीखा व्यंग्य था, उसकी आवाज़ कठोर हो गई थी। "दुनिया कब किसी की हुई है
जी? यह दुनिया तो बहुत मतलबी है। आज जो लोग तुम्हारे सामने पलक-पाँवड़े बिछाए रहते
हैं न, कल जब हम सड़क पर आ जायेंगे, पाई-पाई को मोहताज हो जाएंगे तो यही लोग बात तक
न करेंगे, पहचानेंगे भी नहीं। दुनिया सिर्फ उगते सूरज को सलाम करती है, जी। डूबते सूरज
को कोई नहीं पूछता।"
"लेकिन मैं अकेला क्या
कर सकता हूँ?" राघव ने हार मानते हुए, बेबस स्वर में कहा, "माँ है, निखिल
है और अक्षरा भी तो है। उन सबको क्या जवाब दूँगा? वे सब तो चाहेंगे कि पापा को किसी
भी कीमत पर छुड़ाया जाए।"
"निखिल समझदार है, वो मान
जायेगा," मंजरी ने आत्मविश्वास से कहा, "उसे समझाना आसान है। और अक्षरा की
तो बात ही मत करो, सारी मुसीबत की जड़ ही वही है! उसकी ज़रा सी नासमझी और लापरवाही ने
आज पापा को इस हाल में पहुँचा दिया!" मंजरी के स्वर में अक्षरा के प्रति गहरा
गुस्सा और दोषारोपण स्पष्ट झलक रहा था। "हाँ, माँ को सम्हालना थोड़ा मुश्किल होगा,
वह भावुक हैं, लेकिन मैं उनसे बात करूँगी, उन्हें समझाऊँगी। उन्हें समझाना पड़ेगा।"
राघव ने गहरी सांस ली। वह बहुत
थक चुका था, न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी। उसमें अब
और अधिक बहस करने या किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की हिम्मत नहीं बची थी। "ठीक है,"
उसने पराजित, बुझे हुए स्वर में कहा, "जैसा तेरे मन में आये, वैसा कर। लेकिन अब
मुझे आराम करने दे। सुबह बात करते हैं।"
मंजरी ने बिना कुछ उत्तर दिए,
कमरे की लाइट बंद की और बिस्तर पर लेट गई। राघव ने भी आँखें बन्द करके सोने की कोशिश
की, किन्तु उसकी आँखों में नींद कहाँ! पिताजी का भयभीत चेहरा, अपहरणकर्ता की डरावनी
धमकी, मंजरी की तर्क भरी, कठोर बातें – सब कुछ उसके दिमाग में किसी दुःस्वप्न की तरह
घूम रहा था।
उसी कमरे के एक अंधेरे कोने
में, एक अदृश्य अस्तित्व, सेठ ध्यानचंद जी का साया, असहाय, हताश और निराश खड़ा था। अपने
ही बड़े बेटे और पुत्रवधु की ये हृदयविदारक और स्वार्थ भरी बातें सुनकर वे चकित थे,
स्तब्ध थे, जैसे उन पर किसी ने वज्रपात कर दिया हो। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था
कि उनके बच्चे ऐसी सोच भी रख सकते हैं। क्या यही उनके दिए हुए संस्कार थे? क्या इसी
दिन के लिए उन्होंने दिन-रात एक करके, खून-पसीना एक करके यह विशाल साम्राज्य खड़ा किया
था? उनकी बूढ़ी, निष्प्राण सी लगने वाली आँखों से दो गर्म आँसू ढलक कर नीचे अदृश्य फर्श
पर टपक गये। उन्हें लगा जैसे उनका हृदय फट जाएगा। उन्होंने किसी तरह खुद को सम्हाला
और भारी कदमों से, बिना कोई आवाज़ किए, उस कमरे से बाहर निकल गए, जैसे अपने ही घर में
एक अजनबी, एक अवांछित मेहमान हों। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्यों और कैसे हो
रहा है।
***
(अध्याय आठ)
सारी रात उधेड़बुन और चिंता
में गुज़र गई किन्तु राघव की आंखों में नींद का नामोनिशान तक न था। सुबह के पांच बजे
होंगे जब कुछ देर के लिए उसकी आंख लगी। शायद इसी कारण वह अपने निर्धारित समय पर न जाग
सका। जब वह तैयार होकर नीचे ड्राइंग रूम में आया तो वहाँ का द्रश्य़ प्रतिदिन से अलग
था। सुबह की ताज़गी और उत्साह की जगह एक भारीपन और तनाव पसरा था। उसकी मां सावित्री
देवी का चेहरा गुस्से और दुःख से तमतमाया हुआ था। छोटा भाई निखिल चेहरा झुकायें, उदास
बैठा था। निखिल की पत्नी नेहा और राघव की पत्नी मंजरी दोनों सोफे पर पास-पास बैठी हुई
थीं, उनके चेहरों पर भी तनाव साफ दिख रहा था। नेहा ने राघव को ड्राइंग रूम में आते
देखा तो उसने एक नजर मंजरी की ओर देखा और धीरे से उठकर रसोईघर की ओर चली गई, शायद उस
माहौल से दूर जाना चाहती थी।
"क्या हुआ? आप सब यूं शान्त
और उदास क्यों बैठे हैं?" राघव ने निखिल से पूछा, उसकी आवाज़ में भी रात भर की
थकान और चिंता थी।
निखिल ने अपनी मां की तरफ इशारा
करते हुए धीमी आवाज़ में कहा, "माँ से पूछो भैय्या। माँ और भाभी... माँ और भाभी
में पापा को छुड़ाने के लिये... बहस चल रही थी।"
"बहस? मंजरी तुमने मां
से बहस की?" राघव ने आश्चर्य और थोड़ी नाराज़गी से मंजरी की ओर देखा।
"मैंने तो बस इतना कहा
था कि हम पर जो ये आफत आई है, ये सब अक्षरा के कारण हुआ है। ना वो उस लड़के के प्यार
में पड़ती और ना ये दिन देखना पड़ता। उसकी एक नासमझी ने आज हम सबको इस मुसीबत में डाल
दिया। इतनी सी बात पर माँजी भड़क गईं।" मंजरी ने गुस्से और नाराज़गी भरे स्वर में
कहा, उसकी आँखों में अक्षरा के प्रति दोषारोपण साफ था।
राघव अभी कुछ कहता उससे पहले
ही सावित्री देवी भड़क कर, गुस्से से बोलीं, "ये सब छोड़ो! अक्षरा ने कुछ भी किया
हो, वो बाद की बात है। मुझे तो यह बताओ कि तुम लोग अपने पापा को छुड़ाने के लिये क्या
कर रहे हो? क्या सोचा है?"
"माँ," राघव ने शांत
स्वर में कहना शुरू किया, "जबसे पिताजी गायब हुए हैं तब से एक पल भी तो सारा परिवार
चैन से नहीं रह पाया। हम सब बेहद चिंतित हैं। और अपहरण की खबर ने तो हमारी जान ही निकाल
दी है। पुलिस अपना काम कर ही रही है, हम उनके संपर्क में हैं। मैं आज पुलिस के बड़े
अधिकारियों से मिलूंगा ताकि पुलिस इस मामले को ओर अधिक गम्भीरता से ले और तेज़ी से
कार्रवाई करे।"
"लेकिन पुलिस के चक्कर
में तो तेरे पापा की जान भी जा सकती है! तुम्हें उनकी धमकी सुननी चाहिए थी!" सावित्री
देवी ने आवेश में आकर कहा, उनकी आवाज़ सिसकियों में बदल गई, "मैं तो कहती हूं कि
जो वे मांगते हैं उन्हें दे दो और जैसे भी हो, अपने पापा को छुडा लाओ। पैसे से बढ़कर
उनकी जान है।"
"माँ, आपकी बात तो ठीक
है, हम भी यही चाहते हैं," राघव ने लाचारी भरे स्वर में कहा, "पर दस करोड़...
इतनी बड़ी रकम? माँ, आप सोचिए। हम अपनी दुकान, मकान, कारोबार... सबकुछ बेच देंगे तब
शायद मुश्किल से दस करोड़ इकट्ठा कर पायेंगे। यह तो हमारी पूरी ज़िंदगी की कमाई है।"
"कुछ भी करो! यह सब तेरे
पापा का ही तो है, उन्होंने ही तो कमाया है! बिकता है तो बिक जाये! हमें इस धन दौलत
का क्या करना है अगर तेरे पापा ही न रहें!" सावित्री देवी दृढ़, आवेशपूर्ण स्वर
में बोलीं, उनकी आँखों में अपने पति की सुरक्षा के अलावा कुछ भी नहीं था।
"हाँ हाँ, सबकुछ बेच दो!"
मंजरी ने तपाक से, क्रोधित होकर कहा, उसकी आवाज़ में कटुता थी। "कल जब मेरे दोनों
मासूम बच्चे अपने नाना के घर से आयें तो उनके हाथ में स्कूल बैग की जगह कटोरा थमा देना
ताकि किसी चौराहे पर जाकर भीख मांग सकें! वाह! क्या सोच है!"
राघव ने मंजरी की ओर गहरी नाराजगी
और चेतावनी भरी नज़रों से देखा और सख्त आवाज़ में बोला, "मंजरी! तुम अंदर जाओ। हमें
जो करना है हम खुद तय कर लेंगे।"
"हाँ! मैं होती कौन हूँ
कुछ कहने वाली?" मंजरी ने गुस्से से कहा और पैर पटकती हुई अन्दर चली गई, उसकी
नाराज़गी स्पष्ट थी।
"भैय्या," निखिल ने
धीमी, शांत आवाज़ में कहा, जैसे बीच-बचाव कर रहा हो, "अगर हम ठण्डे दिमाग से सोचें
तो भाभी ने भी कुछ गलत नहीं कहा है। दस करोड़... यह बहुत बड़ी रकम है। हमें सोच समझकर
निर्णय लेना पड़ेगा। आवेश में आकर सब कुछ लुटा देना ठीक नहीं होगा।"
सावित्री देवी अपने बेटों को
आश्चर्य और अविश्वास से देख रही थीं। जो कल तक अपने पिता के लिये जान की बाजी लगाने
की बात कर रहे थे, आज पैसों के लिये, अपनी संपत्ति के लिये अपने पिता की जान को दांव
पर लगाने को तैयार लग रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि ये वही बेटे हैं जिन्हें
उन्होंने इतने प्यार से पाला था। जरूर इनकी पत्नियों ने इन्हें यह पट्टी पढ़ाई है,
यही इनके कान भर रही हैं। सावित्री देवी ने मन ही मन सोचा और पीड़ा भरे स्वर में बोलीं,
"तो क्या... क्या तुम लोग पैसों के लिये अपने बाप को... मरने के लिये छोड़ दोगे?"
"नहीं माँ! एसा न कहो!
यह क्या कह रही हैं आप!" राघव और निखिल लगभग एक साथ बोले। राघव ने आगे बढ़कर माँ
के पास बैठते हुए कहा, "नहीं माँ, हम ऐसा कभी नहीं सोच सकते। हम अपने पापा के
लिये सबकुछ करेंगे। मैं अपने मिलने वालों, दोस्तों और रिस्तेदारों से बात करता हूं।
हमने कई बार मुसीबत में लोगों की निस्वार्थ मदद की है। आज जब हम मुसीबत में हैं तो
कोई हमारी भी सहायता अवश्य करेगा। किन्तू इस समय हमें एक दूसरे पर विश्वास करना होगा।
यदि हम सब एक होकर इस समस्या से लड़ें, एक साथ मिलकर प्रयास करें तो हमारी विजय अवश्य
होगी। हम पापा को छुडा लायेंगे। आप हिम्मत रखिए।"
"आप ठीक कहते हैं भैय्या,"
निखिल ने भी दृढ़ता से कहा, "मैं भी अपने दोस्तों और संपर्कों से बात करता हूं।
माँ आप दुखी ना हो, घबराइए मत। सब ठीक हो जायेगा। हमें कुछ ना कुछ रास्ता अवश्य मिलेगा।"
निखिल ने जोर से आवाज लगाई, "नेहा! जरा जल्दी से नाश्ता ले आओ, हमें बाहर जाना
है। बहुत काम है।"
"अभी आई जी," प्रत्युत्तर
में रसोईघर से नेहा की मधुर आवाज़ आई।
राघव और निखिल एक दूसरे को देखते
हैं, उनके चेहरों पर चिंता के साथ-साथ एक नई दृढ़ता भी है, एक-दूसरे पर विश्वास की।
सावित्री देवी उन्हें आशा और भय मिश्रित नज़रों से देखती हैं, उनके मन में अभी भी शंकाएं
और चिंताएं हैं, लेकिन बेटों के संकल्प को देखकर थोड़ी उम्मीद भी जगती है।
***
सावित्री देवी के सर पर तो मानो
मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा हो। पति के अचानक और रहस्यमय ढंग से गायब होने, फिर
अपहरण की सूचना ने उनको भीतर तक तोड़कर रख दिया था, वे पूरी तरह से बिखर गई थीं। पलंग
पर निढाल सी पड़ी उनकी आँखें सूनी और पथराई हुई थीं, उनमें कोई चमक नहीं थी, पर गालों
पर आँसुओं की गर्म लकीरें सूखने का नाम नहीं ले रही थीं। कमरे की घुटन भरी खामोशी में
केवल उनकी दर्द भरी सिसकियों की आवाज़ गूंज रही थी, जो हर पल गहराते दुख की गवाही दे
रही थी।
उसे याद आया वह दिन जब वह लाल
जोड़े में सजी-धजी, नई-नवेली दुल्हन बनकर इस घर की देहरी पर आई थी। पति ने पहले दिन
से ही उसे इतना सम्मान दिया, इतना असीम स्नेह दिया कि वह स्वयं को दुनिया की सबसे भाग्यशाली
स्त्री समझने लगी थी। उसका हर छोटा-बड़ा निर्णय पति की सहमति से होता, उसकी हर ख्वाहिश
पति के लिए आदेश बन जाती, जिसे वे सहर्ष पूरा करते। यह वह सम्मान और प्रेम था जो बहुत
कम महिलाओं को जीवन में मिल पाता है। सास-ससुर, जो अब इस दुनिया में नहीं थे, उन्होंने
भी उसे कभी बहू नहीं, बल्कि अपनी बेटी माना। उनके असीम स्नेह और आशीष की छांव में सावित्री
ने कभी मायके की कमी महसूस नहीं की, यह घर ही उसका संसार बन गया था। समय अपनी सहज गति
से बहता गया और उसकी गोद तीन प्यारे बच्चों से भर गई – सबसे बड़ा राघव, फिर निखिल और
अंत में सबकी लाडली अक्षरा।
सास-ससुर तो अपनी आयु पूर्ण
कर शांतिपूर्वक स्वर्गवासी हो गये थे, पर उनकी दी हुई सीख, उनके संस्कार और आदर्श इस
घर की नींव में अब भी जीवित थे। दोनों बेटों राघव व निखिल की शादी हो गई और मंजरी व
नेहा के रूप में उसे दो संस्कारी, सुशील बहुएँ मिलीं, जो घर को और भी खुशहाल बना रही
थीं। बड़ी बहू मंजरी तो अब दो प्यारे बच्चों की माँ भी बन चुकी थी। बड़ी पोती सौम्या
इस समय सात वर्ष की थी और छोटा पोता शौर्य पांच वर्ष का। दोनों बच्चे दादी-दादी कहकर
उसके आँचल से लिपटे रहते थे, वही उनकी दुनिया थी, और वे सावित्री की। मगर आजकल स्कूलों
की छुट्टियां चल रही थीं, जिस कारण दोनों बच्चे अपनी नानी के घर गये हुए थे। शायद भगवान
को भी यही मंजूर था कि वे इस दुखद घड़ी के साक्षी न बनें, इस घर पर आए इस भयंकर तूफान
को न देखें। दोनों बहुएँ, मंजरी और नेहा, सावित्री देवी का पूरा सम्मान करती थीं, उनका
हर काम करती थीं। सावित्री देवी की प्रत्येक इच्छा को अपने लिये देवाज्ञा की तरह मानकर
पूरा करने में उन्हें कभी कोई हिचक नहीं हुई थी। घर में हमेशा हंसी-खुशी का माहौल रहता,
प्रेम और सौहार्द का वातावरण था, एक आदर्श और सुखी परिवार की जीती-जागती मिसाल।
किन्तु आज जो हुआ, उसने सब कुछ
तहस-नहस कर दिया था। एक झटके में जैसे सारी खुशियाँ, सारा विश्वास, सारे रिश्ते कांच
की तरह टूटकर बिखर गए थे, जिनकी किरचें हृदय में चुभ रही थीं।
जिस पति ने इन बच्चों को अपना खून-पसीना देकर पाला-पोसा, उन्हें पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया,
अपने पैरों पर खड़ा किया, आज जब उसी पर जीवन का सबसे बड़ा संकट आया तो बच्चों को पैसों
की, अपनी संपत्ति की, अपने भविष्य की चिंता सताने लगी। जब पैसों पर बात आई तो बहुओं
की कैसे आँखें बदल गईं! बहुएँ तो चलो दूसरे घर से आई हैं, पर उसके अपने बेटे? जिन्हें
उसने अपने गर्भ से जन्म दिया था, उन्हें भी अपने पिता की जान से अधिक अपने बच्चों के
भविष्य की चिन्ता सालने लगी! क्या यही उनका प्रेम था?
सावित्री कुछ कहना चाहती थी,
चीखना चाहती थी, अपने बेटों से पूछना चाहती थी कि वे ऐसा कैसे सोच सकते हैं, पर उसका
गला रुंध गया था। वह निःशब्द सी उन्हें देखती रही, उसकी आँखों में अविश्वास और पीड़ा
थी। उसका मन भीतर ही भीतर चीख रहा था - कह दो! कह दो, बेच दो मेरा सारा जेवर, जोड़ों
का गहना, यह घर, यह सब कुछ, पर मेरे पति को वापस ले आओ! मेरा संसार वही हैं!
वह धीरज नहीं धर पा रही थी।
अपने कमरे में आकर बिस्तर पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी, उसकी सिसकियाँ कमरे में
गूंज रही थीं। छोटी बहू नेहा ने एक बार आकर खाना खाने के लिये अत्यंत आग्रह किया था,
"माँजी, थोड़ा कुछ खा लीजिए, सुबह से आपने कुछ नहीं खाया। आपकी तबियत खराब हो जाएगी।"
किन्तु उसने सिर हिलाकर इन्कार कर दिया था। कैसे खाती वह? जिसका जीवन का आधार ही हिल
गया हो, जिसके जीने का अर्थ ही दांव पर लग गया हो, उसे अन्न का एक दाना भी कैसे गले
उतरता?
वह अपने बिस्तर पर पड़ी सिसकती
रही। बार-बार हाथ जोड़कर, आँसुओं से भीगी आँखों से भगवान से अपने पति की कुशलता, उनकी
सुरक्षा के लिये प्रार्थना करती, "हे भगवान, मेरे सुहाग की रक्षा करना! मेरे पति
को सकुशल लौटा दो! मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस उन्हें वापस भेज दो!" और फिर सिसकने
लगती। उसे अपने बच्चों और बहुओं का व्यवहार कांटे की तरह चुभ रहा था, किसी गहरे ज़ख्म
की तरह दर्द दे रहा था। जिस परिवार को उसने इतने प्यार और अपनेपन से सींचा था, अपना
सर्वस्व देकर पाला था, आज वही उसे पराया लग रहा था। भरा पूरा परिवार होने पर भी वह
स्वंय को इस स्वार्थी और मतलबी दुनिया में नितांत अकेला पा रही थी। हर कोई अपनी-अपनी
दुनिया में मग्न था, अपनी-अपनी चिंताओं में डूबा हुआ। पति के बिना यह घर, यह परिवार,
यह धन-दौलत, यह जीवन – सब सूना था, अर्थहीन था।
लेकिन अकेली तो वह उस विशाल
बेडरूम में भी नहीं थी।
बिस्तर के पास रखी महोगनी की
उस कीमती नक्काशीदार कुर्सी पर, जिसे उसके पति सेठ ध्यानचंद बड़े शौक से, चुन-चुन कर
खरीदकर लाए थे, स्वयं उस कुर्सी पर बैठे हुए थे। – एक अदृश्य, अशरीरी रूप में। उनका
हृदय अपनी पत्नी सावित्री को इस तरह बिलखते, पीड़ित होते, आँसुओं में डूबे देख फटा
जा रहा था। वे उसे छू नहीं सकते थे, आवाज़ दे नहीं सकते थे। उनके होंठ फड़फड़ा रहे थे,
वे चीखकर कहना चाहते थे, "सावित्री, मैं यहीं हूँ! तुम्हारे पास! रो मत! मैं ठीक
हूँ!" पर उनकी आवाज़ सावित्री तक पहुँच नहीं सकती थी, वह इस भौतिक संसार के लिए
अदृश्य थी। वे देख सकते थे अपनी पत्नी के गालों पर बहते गर्म आँसुओं को, सुन सकते थे
उसकी हृदय विदारक सिसकियों को, महसूस कर सकते थे उसके भीतर उमड़ते तूफ़ान को, उस अकेलेपन
को जो भरे पूरे परिवार के बीच उसे खाए जा रहा था। उन्होंने अपने बेटों और बहुओं की
बातें भी सुनी थीं, उनके स्वार्थ को भी देखा था और उनका मन ग्लानि, दुख और क्रोध से
भर उठा था। उन्हें अपने ही बच्चों पर दया आ रही थी, और खुद पर भी, कि वे कैसा परिवार
बनाकर गए थे।
दुर्भाग्य ये था कि वह सबकुछ
देख सुन सकता था, अपनी पत्नी की पीड़ा को महसूस कर सकता था, किन्तु उस पीड़ा को बांट
नहीं सकता था। वह चाहकर भी सावित्री का हाथ नहीं थाम सकता था, उसके आँसू नहीं पोंछ
सकता था, उसे दिलासा नहीं दे सकता था कि वह सुरक्षित है, यहीं उसके पास है। वह तो अब
एक ऐसी अवस्था में था जहाँ स्पर्श और संवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी, जहाँ भावनाएं थीं,
पर व्यक्त करने के साधन नहीं थे।
और सावित्री देवी, अपने पति के इतने पास होते हुए भी, उनकी उपस्थिति
से पूर्णतया अनभिज्ञ, उनके अनर्थ की आशंका से ग्रस्त होकर रोते जा रही थी। कमरे में
एक दृश्य पीड़ा (सावित्री की) और एक अदृश्य पीड़ा (ध्यानचंद की) का मौन तांडव चल रहा
था। एक पत्नी अपने पति के लिए रो रही थी, अपने सुहाग के लिए तड़प रही थी, और एक पति
अपनी पत्नी को रोते हुए देखकर, कुछ न कर पाने की विवशता में रो रहा था। दोनों एक-दूसरे
के दुःख से अनजान, एक ही कमरे में होते हुए भी मीलों दूर, अपनी-अपनी पीड़ाओं में अकेले।
यह नियति का कैसा क्रूर खेल था।
***
(अध्याय नौ)
देर शाम का धुंधलका तेज़ी से
गहराने लगा था, जिसने शहर को अपनी चादर में लपेटना शुरू कर दिया था, जब राघव और निखिल
थके-हारे से घर लौटे। दिन भर की निराशाजनक तलाश और पुलिसिया कार्रवाई की अनिश्चितता
उनके चेहरों पर स्पष्ट थी। घर के भीतर कदम रखते ही एक मनहूस, डरावनी खामोशी ने उनका
स्वागत किया, जैसे सारा घर किसी भारी, अदृश्य बोझ तले दबा हो, साँस लेने में भी मुश्किल
हो रही हो। दोनों भाई चुपचाप, धीमी गति से ड्राइंग रूम में दाखिल हुए। उनके चेहरों
पर चिंता की गहरी लकीरें और दिन भर की अथक भागदौड़ की थकान साफ़ झलक रही थी, उनकी आँखें
बुझी हुई थीं। राघव जैसे ही सोफे के पास पहुँचा, उसका शरीर जवाब दे गया और वह धम्म
से उस पर बैठ गया, उसकी सारी ऊर्जा जैसे समाप्त हो गई थी। निखिल पास ही खड़ा रहा, उसका
शरीर भी थका था, पर उसकी आँखें किसी अनजाने भय से शून्य में ताक रही थीं, मानो भविष्य
की अनिश्चितता उसे डरा रही हो।
तभी राघव की पत्नी मंजरी, जो
शायद रसोई में रात के खाने की तैयारी कर रही थी, उनकी आहट सुनकर बाहर आई। उसके कदम
यंत्र-चालित से लग रहे थे, जैसे वह केवल अपना कर्तव्य निभा रही हो। उसके चेहरे पर भी
तनाव और चिंता की छाप थी, पर उसने खुद को यथासंभव संयत और सामान्य दिखाने की कोशिश
की।
"चाय पियेंगे या खाना लगवा दूं?" उसने राघव से पूछा, उसकी आवाज़ में एक औपचारिक
सी कोमलता थी, जो उस गंभीर माहौल में कुछ अजीब लग रही थी।
मंजरी के प्रश्न का सीधा, स्नेहपूर्ण
उत्तर देने के बजाय, राघव ने लगभग रूखेपन और अधीरता से प्रश्न किया, "माँ कहाँ
है?" उसकी आवाज़ में थकान के साथ-साथ एक अनकही शिकायत भी थी, शायद मंजरी का यूँ
सहजता से पूछना उसे अखर गया था, जब माँ इस कदर दुखी थीं।
मंजरी ने एक लंबी, बोझिल सांस
ली। "आप दोनों के जाते ही अपने कमरे में चली गई थीं और तब से नीचे नहीं आई हैं।"
राघव ने माथे पर बल डालते हुए,
चिंता भरे स्वर में पूछा, "हूँ... खाना खा लिया था माँ ने?" उसकी आवाज़ में
अब स्पष्ट चिंता थी।
"नहीं," मंजरी ने
धीरे से, धीमी आवाज़ में उत्तर दिया, "नेहा दो बार पूछने गई किन्तु उन्होंने कुछ
भी खाने से मना कर दिया। बोलीं भूख नहीं है, जब भूख लगेगी खा लेंगी।"
"तुम क्यों नहीं गई माँ
के पास? तुमने कहा होता। तुम क्यों नहीं गई माँ के पास?" राघव ने नाराजगी भरे
स्वर में कहा, उसकी त्योरियां और चढ़ गईं। उसे लगा जैसे मंजरी ने अपनी ज़िम्मेदारी ठीक
से नहीं निभाई, माँ को अकेला छोड़ दिया।
मंजरी का चेहरा थोड़ा उतर गया,
उसकी आवाज़ में एक दबी हुई शिकायत और बेबसी आ गई। "मुझसे तो सारा गुस्सा ही है...
सुबह जो बात हुई थी उसके बाद। फिर मेरा कहना क्यों मानने लगीं।" वह शायद सुबह
की बातों का हवाला दे रही थी, जब पैसों को लेकर उनकी और सावित्री देवी की बहस हुई थी।
राघव को मंजरी की बात अच्छी
नहीं लगी, उसे लगा कि यह समय पुरानी बातों को दोहराने और नाराज़गी जताने का नहीं है,
किन्तु उसने उस पल माहौल की गंभीरता और अपने भीतर के तनाव को देखते हुए बात को और बढ़ाना
उचित नहीं समझा। उसने अपने छोटे भाई निखिल की ओर देखा जो अब भी गुमसुम, विचारों में
खोया खड़ा था।
"आ निखिल," राघव ने
धीमे स्वर में कहा, "माँ से बात करते हैं।" उसने अपने शरीर की सारी थकान
को नज़रअंदाज़ करते हुए उठ खड़ा हुआ।
निखिल बिना कुछ कहे, एक आज्ञाकारी
बच्चे की तरह, या शायद अपने बड़े भाई का सहारा पाकर खड़ा हुआ और दोनों भाई भारी, थके
कदमों से माँ के कमरे की ओर चल दिये। कमरे के बाहर एक पल को वे रुके, गहरी साँस ली,
जैसे अंदर जाने की हिम्मत जुटा रहे हों। फिर राघव ने हौले से, सम्मानपूर्वक दरवाज़ा
खटखटाया।
अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई, बस
गहरी खामोशी थी। तो राघव ने धीमे से दरवाज़ा खोला और अंदर झाँका। सावित्री देवी बिस्तर
पर निढाल सी लेटी हुई थीं, उनका शरीर ढीला पड़ गया था, आँखें छत को घूर रही थीं, जैसे
किसी अनजाने बिंदु पर टिकी हों, उनकी दुनिया ठहर गई थी। बेटों की हल्की आहट पाकर उन्होंने
धीरे से करवट बदली, उनकी आँखों में नमी थी।
सावित्री देवी अपने दोनों बेटों
को अपने पास, अपने सामने पाकर जैसे सारी कड़वाहट, सारा अकेलापन, सारा दर्द एक क्षण
के लिए भूल गईं। उनके मुरझाए, उदास चेहरे पर एक क्षण के लिए जान सी आ गई, एक हल्की
सी चमक वापस लौटी। वह जल्दी से, थोड़ी शक्ति जुटाकर उठकर बैठ गईं और उनकी आँखों में
आशा की एक क्षीण किरण चमक उठी, जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो।
"तुम आ गये बेटा,"
उन्होंने भर्राई, वात्सल्य भरी आवाज़ में पूछा, "क्या हुआ? कुछ इन्तजाम हुआ क्या?
तुम्हारे पापा कब तक वापस आ जायेंगे?" उनकी हर साँस में पति की चिंता घुली हुई
थी, उनकी आवाज़ में बेचैनी और उम्मीद का मिश्रण था।
दोनों भाई माँ के पास, बिस्तर
के किनारे बैठ गये। राघव ने माँ का हाथ अपने हाथ में ले लिया, जो चिंता और सदमे के
कारण बर्फ सा ठंडा महसूस हो रहा था। उसने माँ के हाथ को हल्के से दबाया और धीमी, शांत
और यथासंभव आश्वस्त करने वाली आवाज में बोला, "माँ आप चिन्ता मत करो। हम अपनी
पूरी कोशिश कर रहे हैं और पुलिस भी पूरी भागदौड़ कर रही है। हमने उन पर दबाव बनाया
है। मेरी आज पुलिस के बड़े अधिकारियों से बात हुई है, उन्होंने पूरा आश्वासन दिया है
कि वे पापा को सकुशल वापस लायेंगे। वे अपनी जान की बाजी लगा देंगे।"
सावित्री देवी की आँखों में
उम्मीद की एक और लहर उठी, पर चिंता पूरी तरह मिटी नहीं थी। "पैसों का क्या हुआ?
कुछ इन्तजाम हुआ कि नहीं?" यह उनकी दूसरी सबसे बड़ी और तात्कालिक चिंता थी, जिसके
बिना पति की वापसी असंभव लग रही थी।
"उसके लिये भी हम पूरी
भागदौड़ कर रहे हैं माँ," राघव ने उन्हें समझाते हुए, धैर्यपूर्वक कहा,
"कुछ इन्तजाम हुआ भी है। हमारा कुछ पैसा बैंक में जमा है उन्हें निकाल लेंगे और
हमारा कुछ पैसा छोटे दुकानदारों व अन्य लोगों पर उधार है, उनसे भी बात हो गई है। कल
तक वो भी आ जायेगा।" राघव ने गहरी सांस ली, "ये समझो माँ कि लगभग तीन करोड़
का इंतजाम तो हो गया है। बाकी कल फिर कोशिश करते हैं, कुछ और लोगों से बात करेंगे।"
राघव ने यथासंभव सकारात्मकता से स्थिति बताई, पर उसकी आवाज़ में एक अनकही थकान और अनिश्चितता
थी।
"पर बेटा तीन करोड़ तो
बहुत कम हैं," सावित्री देवी ने तुरंत चिंता व्यक्त की, उनकी आवाज़ में निराशा
और भय वापस उतर आया, "दस करोड़ मांगे हैं उन्होंने। बाकी सात करोड़ का इंतजाम
कैसे होगा? कहाँ से आयेंगे इतने पैसे?"
निखिल, जो अब तक शांत बैठा था,
बोला, "देखते हैं माँ क्या हो सकता है। हम दोनों भाईयों ने तो अपने सभी दोस्तों
और रिश्तेदारों से मदद की गुहार लगा ली है, दर-दर भटक रहे हैं, किन्तु कोई भी इस मुसीबत
की घड़ी में खुलकर साथ देने को तैयार नहीं।" उसकी आवाज़ में दुनियादारी की कठोरता
का अनुभव और हल्की कड़वाहट थी।
सावित्री देवी की आँखें भर आईं।
जिस समाज में, जिन रिश्तों में उन्होंने जीवन भर विश्वास किया था, लोगों की मदद की
थी, वह आज इतना खोखला महसूस हो रहा था। यह अनुभव उनके लिए अत्यंत पीड़ादायक था। फिर
अचानक उन्हें कुछ याद आया, उनके चेहरे पर एक हल्की सी चमक आई।
"क्या तुमने अपने मोतीलाल
अंकल से भी बात की?" उन्होंने आशा से, लगभग गिड़गिड़ाते हुए पूछा, "मेरा मन
कहता है कि वो अवश्य हमारी सहायता करेंगे। मोतीलाल तुम्हारे पापा के सबसे अच्छे और
पुराने दोस्त हैं।"
राघव और निखिल ने एक दूसरे की
ओर देखा। राघव के चेहरे पर जैसे कोई भूली हुई, महत्वपूर्ण बात याद आने का भाव आया।
"अरे हाँ निखिल," वह लगभग उत्साहित होकर बोला, उसकी आवाज़ में एक नई उम्मीद
जगी थी, "मोतीलाल अंकल को तो हम भूल ही गये! वे जरूर हमारे काम आयेंगे। वे पापा
को बहुत मानते हैं।"
"क्या अब फोन करूं भैया?"
निखिल ने तुरंत पूछा, जैसे उसे भी एक सहारा, एक उम्मीद की किरण मिल गई हो।
"नही," राघव ने कुछ
सोचते हुए कहा, "अभी रहने दो, सुबह बात करेंगे। वैसे भी जब अंकल को पापा के बारे
में पता लगेगा तो उनसे रुका न जायेगा। वे शायद अब रात को ही यहाँ आ जायेंगे। उन्हें
इतनी रात में दुखी करना ठीक न रहेगा।"
"ठीक है बेटा, सुबह उनसे
बात कर लेना।" सावित्री देवी ने मोतीलाल का नाम सुनकर कुछ राहत महसूस करते हुए
कहा। उनका मन थोड़ा हल्का हुआ था। फिर उन्हें अपने बेटों का ख्याल आया, जो दिन भर से
थके-हारे थे। "अब तुम भी जाओ और खाना खाकर आराम कर लो। सुबह से भागे-दौड़े बहुत
थक गये होंगे।"
"माँ तुमने भी तो सुबह
से कुछ नहीं खाया," राघव ने स्नेह भरे स्वर में कहा, उसके स्वर में माँ के लिए
चिंता थी, "फिर हम कैसे खा लें? हमें भी भूख नहीं है।"
"तो फिर हमें भी भूख नहीं
है माँ।" निखिल ने दृढ़ता से, एक स्वर में भाई की बात का समर्थन करते हुए कहा।
"तुम खाना नहीं खाओगी तो इस घर में खाना बनेगा भी नहीं, कोई नहीं खाएगा।"
राघव ने भी भाई की हाँ में हाँ मिलाई, यह जताते हुए कि वे माँ के साथ हैं।
सावित्री देवी ने असीम स्नेह
और वात्सल्य से अपने दोनों बेटों के थके हुए चेहरों को देखा। उनके चेहरे पर चिंता और
तनाव साफ था, पर माँ के लिए इतनी परवाह, इतना स्नेह। उनका दिनभर का आक्रोश, अकेलापन,
और निराशा जैसे एक क्षण में काफूर हो गए, बेटों के प्यार ने उन्हें छू लिया। बेटों
का यह भावनात्मक सहारा उनके लिए अमृत जैसा था, जिसने उनकी आत्मा को शांत किया। वह बिना
कुछ कहे, धीरे से खड़ी हुई और कमरे से बाहर की ओर चल दीं। दोनों बेटे चुपचाप, एक मौन
सहमति, प्यार और संतोष के साथ उनके पीछे-पीछे चल रहे थे, इस पल वे सब एक साथ थे।
और ध्यानचंद, जो कि अदृश्य रूप
में कमरे के एक कोने में खड़े अपनी पत्नी और बेटों की यह सारी बातें सुन रहे थे, उनका
हृदय पिघल गया। उनके अशरीरी चेहरे पर एक हल्की सी, दर्द भरी मुस्कान तैर गई। उनकी गर्दन
गर्व से तन गई थी, उनके बच्चे लाख कमियों के बावजूद उन्हें प्यार करते थे। उनके होंठों
से एक फुसफुसाहट सी निकली, जिसे इस भौतिक संसार में कोई नहीं सुन सका, "हे ईश्वर,
तेरा लाख लाख धन्यवाद है कि तूने मुझे इतनी अच्छी संतान दी। लाख मुश्किलों के बाद भी
इनमें इंसानियत और मेरे लिए प्यार बाकी है।" उनके मन का बोझ कुछ हल्का हुआ था,
इस बात का संतोष था कि उनके बच्चे उनकी परवाह करते हैं, भले ही पैसों की चिंता भी उन्हें
सता रही हो।
***
सुबह की नर्म, सुनहरी धूप खिड़कियों
से छनकर ड्राइंग रूम में आ रही थी, जिसने कमरे को हल्का रोशन कर दिया था, लेकिन सेठ
ध्यानचंद के घर के माहौल में उस धूप का कोई असर नहीं था। एक अजीब सी उदासी, तनाव और
खामोशी पसरी हुई थी, जिसने घर को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। घड़ी की सुइयां नौ बजे
का इशारा कर रही थीं, जब मुख्य दरवाजे पर एक निश्चित, सम्मानजनक दस्तक हुई। मंजरी,
जो घर के सामान्य कामों में व्यस्त होकर खुद को व्यस्त रखने की कोशिश कर रही थी, ने
जाकर दरवाजा खोला। सामने सेठ ध्यानचंद के सबसे घनिष्ठ और विश्वासपात्र मित्र, सेठ मोतीलाल
खड़े थे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट थीं, जो उन्हें यहाँ खींच लाई थी।
"नमस्ते चाचाजी, आइये,"
मंजरी ने आदर से झुककर कहा और उन्हें भीतर ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठने का आग्रह
किया। "मैं राघव को बुलाती हूँ, वह ऊपर ही हैं।"
मंजरी तेजी से अपने कमरे की
ओर बढ़ी जहाँ राघव, जो अभी-अभी स्नान करके बाथरूम से निकला था, तौलिये से बाल पोंछते
हुए जल्दी से कपड़े पहनने की तैयारी कर रहा था। मंजरी ने धीमे, गंभीर स्वर में कहा,
"सुनिए, मोतीलाल चाचाजी आए हैं। ड्राइंग रूम में बैठे हैं।"
राघव ने आश्चर्य से पत्नी की
ओर देखा, उसकी आँखें फैल गईं। "चाचाजी? इतनी सुबह?" उसने जल्दी से कुर्ता-पायजामा
पहना और बिना बाल सँवारे, बिना खुद को व्यवस्थित किए ही तेजी से ड्राइंग रूम की ओर
लपका, मोतीलाल का आना उसके लिए एक बड़ी बात थी।
सोफे पर गंभीर मुद्रा में बैठे
मोतीलाल को देखते ही राघव उनके पास पहुँचा और झुककर आदर से उनके पैर छुए। "चाचाजी,
प्रणाम। मैं तो खुद ही थोड़ी देर में आपके पास आने की सोच रहा था, आपसे कुछ महत्वपूर्ण
बात करनी थी।" उसकी आवाज़ में घबराहट और उम्मीद का मिश्रण था।
सेठ मोतीलाल ने स्नेह से राघव
के सिर पर हाथ फेरा, उसे आशीर्वाद दिया, लेकिन उनकी आँखों में वही गहरी चिंता थी जो
राघव के मन में थी। उन्होंने राघव की बात पर अधिक ध्यान न देते हुए सीधे मुद्दे पर
आना चाहा, जिसके लिए वे आए थे। "बेटा राघव, मैंने बाजार में कुछ उड़ती-उड़ती खबर
सुनी है... तुम्हारे पिता के बारे में। क्या वह... क्या वह सच है?" उनकी आवाज़
में आशंका और दुख था।
राघव का चेहरा यह सुनकर फीका
पड़ गया। उसने एक गहरी साँस ली, जैसे हिम्मत जुटा रहा हो, और भरे हुए, रुंधे गले से
कहा, "हाँ चाचाजी, आपने सही सुना है। पापा का... पापा का किसी ने अपहरण कर लिया
है।" यह कहते हुए उसकी आँखें डबडबा गईं, आँसू किनारों तक आ गए।
मोतीलाल ने यह सुनकर उन्हें
गहरा धक्का सा लगा, हालाँकि वे कुछ-कुछ अंदाज़ा लगाकर ही आए थे। उनका चेहरा भी उतर गया।
"हाँ बेटे, मैंने कल शाम बाजार में यही फुसफुसाहट सुनी थी। सुनते ही मन तो किया
कि रात में ही तुम्हारे पास आ जाऊँ, पर फिर सोचा कि इतनी रात-बिरात आकर तुम्हें और
तुम्हारे परिवार को और परेशान करना ठीक नहीं होगा। इसलिए सुबह होते ही, बिना एक पल
गंवाए चला आया।"
राघव की आँखों से आँसू बह निकले,
वह अपनी भावनाएं रोक नहीं पाया। "चाचाजी, हमारे परिवार पर तो जैसे मुसीबत का पहाड़
ही टूट पड़ा है। समझ नहीं आ रहा क्या करें। पता नहीं वे राक्षस... वे बदमाश पापा के
साथ कैसा सलूक कर रहे होंगे। वो तो कभी किसी का बुरा नहीं सोचते, किसी से कोई दुश्मनी
नहीं थी उनकी। यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ, समझ नहीं आ रहा।"
मोतीलाल ने राघव के कंधे पर
हाथ रखकर उसे ढाढ़स बँधाया, उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। "दुखी मत हो बेटा, हिम्मत
रखो। इस मुश्किल घड़ी में हिम्मत से काम लेना होगा। भगवान बहुत बड़ा है, वह सब ठीक करेंगे।
यह बताओ कि उन बदमाशों से तुम्हारी कुछ बात हुई क्या? उन्होंने ध्यानचंद का अपहरण क्यों
किया? वे बदले में क्या चाहते हैं?"
"हाँ चाचाजी," राघव
ने सिसकी रोकते हुए, अपनी आवाज़ को संभालने की कोशिश करते हुए कहा, "उनका फोन आया
था... कल रात को। पापा को छोड़ने के बदले में वह दस करोड़ रुपए माँग रहे हैं।"
"दस करोड़!" मोतीलाल
की आँखें यह रकम सुनकर फैल गईं, जैसे उन्हें विश्वास ही न हुआ हो। "इतनी बड़ी रकम!
यह तो... यह तो बहुत ज़्यादा है! तुमने उन्हें समझाया नहीं कि इतनी बड़ी रकम का इंतजाम
करना तुम्हारे लिए एकदम से, इतने कम समय में सम्भव ही नहीं है?"
"मैंने बहुत कोशिश की चाचाजी,"
राघव ने निराशा और बेबसी से कहा। "मैंने उन्हें बहुत समझाया, मिन्नतें कीं, गिड़गिड़ाया,
लेकिन वे दुष्ट कुछ भी सुनने को तैयार ही नहीं हैं। जिससे मेरी बात हुई, वह राक्षस
तो यहाँ तक कह रहा था कि मुझे मालूम है तुम्हारे पास दस करोड़ से भी अधिक संपत्ति है।
अगर अपने पापा की जान की सलामती चाहते हो तो कहीं से भी, कैसे भी दस करोड़ का इंतजाम
करो, नहीं तो वह पापा की हत्या कर देगा।" राघव का गला यह कहते हुए रुंध गया, आगे
बोलना मुश्किल हो रहा था।
मोतीलाल कुछ देर गंभीर मुद्रा
में सोचते रहे, उनकी भौंहों पर बल पड़ गए थे। फिर बोले, "ध्यानचंद ने तो कभी किसी
को सताया नहीं, किसी का हक़ नहीं मारा, किसी को अपना दुश्मन नहीं माना। फिर उसके साथ
ये सब क्यों हुआ? कौन हो सकते हैं वे लोग? भगवान अवश्य तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं।
देखना, जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा।" उन्होंने राघव को सांत्वना देते हुए, अगली
योजना पर आते हुए पूछा, "बेटा, तुमने पुलिस को इस बारे में बताया है क्या? क्या
पुलिस को सूचना दे दी है?"
"हाँ चाचाजी, मैंने सब
कुछ पुलिस को बता दिया है। इंस्पेक्टर मिश्रा कल रात यहाँ आए थे और उनके सामने ही मेरी
अपहरणकर्ताओं से फोन पर बात हुई थी। सारी घटना पुलिस की जानकारी में है। आज सुबह मैंने
फोन पर पुलिस के बड़े अधिकारियों से भी बात की है। उन्होंने भी मुझे आश्वासन दिया है
कि वे पापा को जल्द से जल्द ढूँढ निकालेंगे और सुरक्षित वापस लायेंगे।"
"ठीक है बेटा," मोतीलाल
ने गंभीरता से, एक दृढ़ निश्चय के साथ कहा। "पुलिस अपना काम कर रही है, यह अच्छी
बात है। हमें उन्हें पूरा सहयोग देना होगा। लेकिन हमें अपनी तरफ से भी पैसों का इंतजाम
रखना होगा। किसी भी कीमत पर, जैसे भी हो, ध्यानचंद को छुड़ाना है। वह मेरा भाई जैसा
है।मेरे एकाउंट में मेरे निजी पचास लाख रुपये पड़े हैं। यह तुरंत काम आ सकते हैं। मैं
घर पहुँचकर तुम्हारी दुकान पर किसी भरोसेमंद आदमी के हाथों चेक भिजवाता हूँ, तुम पैसे
निकलवा लेना। और हाँ, तुम चिंता मत करो, मैं आज ही शहर जाकर पुलिस के बड़े अधिकारियों
और कुछ प्रभावशाली नेताओं से भी बात करता हूँ। मैं उन पर इस मामले में तेज़ी लाने का
दबाव डलवाऊंगा। तुम बिल्कुल चिंता मत करो, मैं सब सम्हाल लूँगा। भगवान की कृपा से मेरे
और तुम्हारे पिता के सम्बन्ध ऊपर तक, संत्री से लेकर मंत्री तक बहुत अच्छे रहे हैं।
वे सम्बन्ध अब हमारे काम आयेंगे। मैं उन्हें पूरी तरह इस्तेमाल करूँगा।" मोतीलाल
उठने लगे। "मैं चलता हूँ बेटा, कोई नई जानकारी मिले तो मुझे तुरंत बताना। मैं
फिर आऊँगा, जल्द ही।"
राघव ने कृतज्ञता भरे, भीगे
स्वर में कहा, "चाचाजी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। आप इस मुसीबत में हमारे साथ खड़े
हैं। कम से कम चाय तो पी लें। मंजरी चाय लाती ही होगी।"
"नहीं बेटा," मोतीलाल
ने स्नेह से राघव के कंधे पर हाथ रखा, "अभी मैंने सुबह का भजन नहीं किया है। फिर
आऊँगा, तब ध्यानचंद के साथ बैठकर ही आराम से चाय पिऊँगा।" यह कहकर सेठ मोतीलाल
दरवाजे की ओर बढ़ गए, उनके कदमों में दृढ़ता थी।
राघव उन्हें कृतज्ञता और उम्मीद
भरी नज़रों से जाते हुए देख रहा था कि तभी पीछे से उसकी माँ, सावित्री देवी की आवाज़
आई। वे धीरे-धीरे, कमज़ोर कदमों से चलती हुई ड्राइंग रूम में आईं। उनका चेहरा अब भी
उदास था। "कौन था बेटा? मुझे तो ऐसा लगा जैसे तुम्हारे चाचा मोतीलाल की आवाज़ हो।
क्या वो आए थे?"
"हाँ माँ, चाचाजी ही थे,"
राघव ने मुड़कर माँ की ओर देखते हुए कहा। "बाजार में किसी से पापा के बारे में
सुनकर आए थे। उन्हें पता लग गया है।"
"अच्छा! चले गए क्या?"
सावित्री देवी ने पूछा, उनकी आवाज़ में भी चिंता और थोड़ी राहत थी।
"हाँ माँ, अभी-अभी गए हैं।
उन्हें सारी बात बता दी है। कह गए हैं कि वह हमारी पूरी सहायता करेंगे। तन, मन, धन
से, जो भी उनके वश में होगा, वह सब कुछ करेंगे। उन्होंने पचास लाख रुपए देने को भी
कहा है।"
सावित्री देवी ने गहरी साँस
ली, उनके चेहरे पर थोड़ी और राहत आई। "ठीक है बेटा, अब उनसे ही कुछ आस बची है।
जीवन में अनेक बार तेरे पापा और मोतीलाल एक-दूसरे के काम आए हैं। उन्होंने हमेशा एक-दूसरे
का साथ दिया है, सच्ची दोस्ती निभाई है। भगवान उनकी सुने।" फिर उन्हें अपने छोटे
बेटे का ख्याल आया, "निखिल नहीं तैयार हुआ अभी? तुम्हें दुकान नहीं जाना?"
"बस आने ही वाला होगा माँ,"
राघव ने कहा। "हम नाश्ता करके दुकान के लिए निकल रहे हैं। आप भी नाश्ता कर लेना,
माँ। ऐसे भूखे मत रहो।"
तभी राघव का छोटा भाई निखिल,
जो अपने कमरे में तैयार हो रहा था, ड्राइंग रूम में दाखिल हुआ। उसके चेहरे पर भी अपने
पिता की चिंता साफ झलक रही थी। उसने आते ही अपनी माँ और बड़े भाई राघव के पैर छुए और
राघव के पास सोफे पर बैठ गया।
राघव ने निखिल की ओर देखकर कहा,
"निखिल, मोतीलाल चाचाजी को फोन मत करना। वह तो बाजार में पापा के बारे में सुनकर
खुद ही आ गये थे। अभी-अभी गए हैं और कह रहे हैं कि जो भी उनके वश में होगा, वह हर तरह
से हमारी सहायता करेंगे। पैसे का भी इंतजाम करवाएंगे।"
निखिल ने आश्चर्य से पूछा,
"लेकिन भैया, उन्हें पापा के बारे में पता कैसे लगा? अभी तक तो किसी को बताया
नहीं था हमने।"
राघव ने एक थकी हुई मुस्कान
के साथ कहा, "मेरे भाई, अब कुछ भी छुपा हुआ नहीं रहा। यह बात सारे नगर में आग
की तरह फैल चुकी है और बाजार में भी सब लोग जान गए हैं। मोतीलाल चाचाजी ने भी बाजार
में ही किसी से सुना और दौड़े-दौड़े चले आए, अपनी दोस्ती निभाने।"
"हाँ भैया, यह बात तो है,"
निखिल ने सहमति में सिर हिलाया। उसकी आवाज़ में निराशा थी। "अब यह बात किसी से
छुपी हुई नहीं रह गई है। चलो, दुकान पर चलते हैं। लोग हमारी सहायता करें या ना करें,
लेकिन हमदर्दी जताने तो जरूर आएंगे। और कम से कम हम में से एक आदमी को तो दुकान पर
रहना ही पड़ेगा।" निखिल के स्वर में एक अजीब सी कड़वाहट और विवशता थी, वह समझ रहा
था कि असली मदद कम ही लोग करेंगे, बाकी सिर्फ तमाशबीन होंगे।
उसी समय मंजरी नाश्ते की ट्रे लेकर आ गई। उसने मेज पर नाश्ता लगाया।
दोनों भाई चुपचाप नाश्ता करने लगे, हर कौर गले में अटक सा रहा था, खाने का स्वाद ही
नहीं आ रहा था। सावित्री देवी भी अनमने ढंग से चाय का कप उठाकर धीरे-धीरे पीने लगीं,
उनकी आँखें शून्य में ताक रही थीं, जैसे किसी चमत्कार की प्रतीक्षा कर रही हों, जो
उनके पति को वापस ले आए। घर का माहौल भारी, बोझिल और अनिश्चितता से भरा हुआ था।
***
(अध्याय दस)
घर के अंदर का माहौल किसी अनहोनी
की गहरी आशंका से बोझिल था, हवा में भी एक भारीपन महसूस हो रहा था। दिन चढ़ने के साथ-साथ
महिलाओं का आना-जाना लगा रहा। रिश्तेदार, सहेलियाँ, और पड़ोसनें, सभी एक-एक कर आ रही
थीं, उनके चेहरों पर औपचारिक चिंता और मिलावटी सहानुभूति का भाव था। वे सावित्री देवी
के पास कुछ देर बैठतीं, दबी जुबान में कुछ रटे-रटाए दिलासा भरे शब्द कहतीं, जैसे कोई
सामाजिक कर्तव्य निभा रही हों, और फिर चली जातीं। हर चेहरे पर चिंता और सहानुभूति का
मिला-जुला भाव तो था, पर किसी के पास कोई ठोस समाधान, कोई वास्तविक मदद का प्रस्ताव
नहीं था। उनकी उपस्थिति से सावित्री देवी को सांत्वना कम, और अपनी पीड़ा का सार्वजनिक
प्रदर्शन अधिक महसूस हो रहा था।
शाम के करीब चार बज रहे थे,
सूरज भी अब अपनी तपिश कम कर रहा था और सुनहरी रोशनी की जगह एक हल्की, उदास धुंधलका
छाने लगा था। ड्राइंग रूम में सोफे पर सावित्री देवी अपनी छोटी पुत्रवधु नेहा के साथ
बैठी थीं। दोनों के चेहरे उतरे हुए थे, आँखों में उदासी और चिंता थी। दोनों के बीच
धीमी, बुझी आवाज़ में कुछ बातचीत चल रही थी, शायद उसी अनहोनी घटना के इर्द-गिर्द, हर
शब्द में एक अनकहा डर छिपा था। तभी दरवाजे पर एक परिचित, लेकिन थोड़ी तेज़ दस्तक हुई
और पड़ोस में रहने वाली सपना वर्मा ने घर में प्रवेश किया। सपना वर्मा के पति एक सरकारी
दफ्तर में क्लर्क थे, और सपना देवी कहने को तो गृहणी थीं, एक साधारण महिला, लेकिन उनका
असली 'पेशा' आस-पड़ोस की हर छोटी-बड़ी खबर पर पैनी नज़र रखना, लोगों के घरों में ताक-झांक
करना, गॉसिप फैलाना और अगर मौका मिले तो किसी की जलती हुई आग में घी डालकर उसे और भड़काना
था। सेठ ध्यानचंद का परिवार हमेशा से एक आदर्श, संभ्रांत और निजी जीवन जीने वाला परिवार
माना जाता था, उनकी कोई बात कभी बाहर नहीं जाती थी, इसलिए सपना वर्मा को यहाँ अपनी
'प्रतिभा' दिखाने का मसाला कम ही मिलता था। लेकिन आज, जैसे ही उन्हें सेठ ध्यानचंद
के अपहरण की खबर मिली, वह खुद को रोक नहीं पाईं और दौड़ी चली आईं, मानो कोई अनमोल खज़ाना,
कोई ताज़ा स्कैंडल उनके हाथ लग गया हो।
आते ही वह सीधे सावित्री देवी
के पास पहुँचीं और उनके निकट बैठकर, अपनी चिर-परिचित नाटकीयता और बनावटी स्नेह के साथ
बोलीं, "अरे दीदी! यह क्या बात हुई? आपके परिवार पर इतनी बड़ी मुसीबत आ गई और
आपने हमें बताया तक नहीं! क्या आप हमें बिलकुल भी अपना नहीं समझतीं? क्या हम आपके कोई
नहीं लगते?" उनकी आवाज़ में उलाहना कम, और स्थिति की पूरी जानकारी उगलवाने की बेचैनी
और व्यग्रता अधिक थी। "आप तो जानती हैं कि मेरे पति सरकारी दफ्तर में हैं, बड़े-बड़े
अधिकारियों से उनका उठना-बैठना है। अगर आपने एक बार बता दिया होता, तो शायद हम आपकी
कुछ मदद ही कर पाते, कहीं बात करके दबाव बनवा पाते। पर आप तो हमें अपना मानती ही नहीं।"
सावित्री देवी ने एक गहरी सांस
ली, उनकी आँखों में दिन भर की थकान, पीड़ा और मेहमानों के अंतहीन ताँते से उपजी झुंझलाहट
साफ झलक रही थी। "नहीं सपना, ऐसी कोई बात नहीं है। हम पर जो बीत रही है, वो हम
ही जानते हैं। यह इतनी अचानक हुआ कि किसी को कुछ बताने का मौका ही नहीं मिला। हम खुद
भी नहीं चाहते थे कि यह बात इतनी फैले, किसी को पता चले। पर ऐसी बातें भला कहाँ छुपती
हैं।"
"हाँ दीदी, ये बात तो है।
शहर में तो यह खबर आग की तरह फैल गई है।" सपना वर्मा ने गर्दन हिलाते हुए कहा,
उनकी आँखों में चमक थी। फिर थोड़ा करीब झुककर, आवाज़ और धीमी करके, रहस्यमयी ढंग से
फुसफुसाया, जैसे कोई बहुत बड़ा राज बता रही हो, "सुना है, बदमाश बहुत बड़ी रकम की
मांग कर रहे हैं? कोई कह रहा था कि पूरे दस करोड़ मांग रहे हैं?" उनकी आँखों में
आश्चर्य के साथ-साथ एक अजीब सी, रुग्ण जिज्ञासा और रोमांच की चमक थी।
सावित्री देवी की आवाज़ में विवशता
और संसार की कटुता का अनुभव था, "हाँ बहन, दुनिया में पाप-पुण्य तो जैसे रह ही
नहीं गया है। इंसानियत तो जैसे खत्म ही हो गई है। जिसके जो मन में आ रहा है, वो कर
रहा है। यह भी नहीं सोचते कि जितने पैसे तुम मांग रहे हो, उतने सामने वाले के पास एकदम
से हैं भी या नहीं, वह इसका इंतज़ाम कैसे करेगा।"
"देखो दीदी," सपना
वर्मा ने और करीब आकर, और भी गोपनीय अंदाज़ में, जैसे कोई बहुत बड़ा, गुप्त राज बता रही
हो, उस अंदाज में कहा, "बुरा ना मानो तो एक बात बताती हूँ। यह मेरा अनुभव है।
जैसे भी हो सके, अपहरण करने वालों से समझौता कर लेना और पैसे देकर सेठ जी को छुड़ा लेना।
कहीं पुलिस के चक्कर में मत पड़ जाना, दीदी। ऐसी बहुत सारी घटनाएं हो चुकी हैं, जब पैसे
बचाने या हीरो बनने के लिए घर वालों ने पुलिस को बुला लिया और अपने आदमी की जान गँवा
दी। पुलिस कुछ नहीं कर पाती बाद में।"
नेहा, जो अब तक चुपचाप सारी
बातें सुन रही थी, सपना वर्मा की बातों में छिपी कुटिलता और उकसावे को महसूस कर रही
थी, और जिसके चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था, अब और बर्दाश्त नहीं कर पाई। यह सीधा हमला
था। वह बोली, "आंटी, आप बेफिक्र रहो। हमें सब पता है कि क्या करना है। यह हमारे
परिवार का मामला है। जो भी हमारे परिवार के लिए ठीक होगा, जो हमारे ससुर जी के लिए
सुरक्षित होगा, हम वही करेंगे। पुलिस अपना काम कर रही है और हम अपना काम करेंगे।"
उसकी आवाज़ में दृढ़ता, गुस्सा और आत्म-नियंत्रण का मिश्रण था।
सपना वर्मा को नेहा का यह सीधा
और दृढ़ जवाब शायद पसंद नहीं आया, यह उसकी अपेक्षा के विपरीत था। उसने नेहा की ओर देखते
हुए, आवाज़ में हल्की सी जलन और व्यंग्य भरते हुए कहा, "तू नहीं जानती बहू, ऐसे
मामलों में बड़ी समझदारी, सूझबूझ और अनुभव की ज़रूरत होती है। यह खेल बहुत खतरनाक होता
है। मेरे तो मायके के पड़ोस में ही एक आदमी का ठीक इसी तरह अपहरण हो गया था। उनके बेटे
और बहुओं ने पैसों के लालच में पुलिस को बुला लिया। जब बदमाशों को यह बात पता लगी,
तो उन्होंने उस आदमी को... बहुत बेदर्दी से मार डाला। बहू, मैं तो तुम्हें इसीलिए समझा
रही हूँ कि कहीं तुम भी... कहीं तुम भी पैसे बचाने के चक्कर में सेठ जी को पुलिस के
भरोसे छोड़ दो।" सपना ने जानबूझकर उकसावे वाले स्वर में कहा, उसका निशाना साफ था
– बहुओं की नीयत पर शक पैदा करना।
सपना देवी की इस बात ने नेहा
के सब्र का बांध तोड़ दिया। वह तैश में आ गई, उसकी आँखों में गुस्सा आ गया। "आंटी,
वो हमारे ससुर हैं! हमारे पति के पिता हैं! आप यह क्यों समझती हैं कि हमसे ज़्यादा चिंता
आपको उनकी होगी? उनकी जान हमें पैसों से ज़्यादा प्यारी है! आप बेफिक्र रहिए, जो हमारे
लिए और उनके लिए ठीक होगा, हम खुद कर लेंगे। हमें आपकी सलाह की ज़रूरत नहीं है!"
"ले बहू, तू तो खामखां
भड़क ही गई।" सपना वर्मा ने बड़ी मासूमियत से, जैसे उसे सचमुच धक्का लगा हो, उस
अंदाज़ में कहा, "मैंने ऐसा क्या कह दिया जो तुझे इतना बुरा लग गया? मैं तो तुम्हारे
भले की ही बात कर रही थी, अपने अनुभव से। पैसा तो हाथ का मैल है, बेटा। आज चला जाएगा
तो कल फिर आ जाएगा। पर आदमी एक बार जाकर कभी वापस नहीं आता। लेकिन तुम्हारा क्या बिगड़ेगा
बहू, सिंदूर तो बेचारी सावित्री दीदी का ही उजड़ेगा ना।" सपना वर्मा ने आग में
घी डालने का काम शुरू कर दिया था, और अब वह सीधे सावित्री देवी को निशाना बना रही थी,
माँ और बहुओं के बीच खाई खोद रही थी।
तभी आवाज़ें सुनकर बड़ी बहू मंजरी
बाहर आई। वह शायद दरवाज़े के पास तक आ गई थी और उसने सपना वर्मा की आखिरी, ज़हरीली बात
सुन ली थी। उसका चेहरा भी गुस्से से लाल हो गया था। वह दृढ़ता से, आवाज़ ऊँची करके बोली,
"हाँ, वे माँजी के पति हैं, तो हमारे भी ससुर हैं! हमारे पतियों के पिता हैं और
हमारे बच्चों के प्यारे दादाजी हैं! और सुनिए आंटी, यदि आपको किसी के घर में आग लगाने
का, कलह करवाने का इतना ही शौक है, तो कहीं और जाकर यह काम कीजिए। यह सब काम हमारे
घर में नहीं चलेगा। हमें आपकी सलाह या हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है।"
सपना वर्मा मन ही मन मुस्कुराई,
उसकी आँखों में एक कुटिल चमक थी। वह जो चाहती थी, वह काफी हद तक हो चुका था। घर में
फूट और कलह का बीज पड़ चुका था। उसने तुरंत अपना रुख बदला और सावित्री देवी की ओर मुड़कर,
बड़ी दयनीय और निरीह मुद्रा बनाते हुए बोली, "देखा दीदी! तुम्हारी दोनों बहुएँ
कैसे मेरा अपमान कर रही हैं। मैंने ऐसा क्या कह दिया जो ये इतना भड़क रही हैं? मैं तो
तुम्हारे भले की ही बात कर रही थी, तुम्हें आगाह कर रही थी।"
सावित्री देवी, जो पहले से ही
पति की चिंता से परेशान, थकी हुई और घबराई हुई थीं, और सपना की चिकनी-चुपड़ी बातों और
अभिनय में आ गईं। उन्हें सपना की कही बातों में, विशेषकर पुलिस और पैसों वाले तर्क
में, सच्चाई नज़र आने लगी। वह गुस्से में अपनी बहुओं की ओर मुड़ीं, उनकी आँखों में गुस्सा
था। "यह सब क्या बदतमीज़ी है? तुम कौन होती हो किसी को मेरे घर से भगाने वाली?
सपना ने क्या गलत कहा है? बदमाश पैसे के लिए ही तो अपहरण करते हैं। जब उन्हें पैसा
नहीं मिलेगा, तो वह तो आदमी को मार ही देंगे! यही तो सपना कह रही है! इसमें गलत क्या
है?"
मंजरी को अपनी सास की यह बात
सुनकर बहुत दुख और धक्का लगा। "माँ जी," उसने भरे गले से, आँखों में आँसू
लिए कहा, "बाहर से कोई आकर दो शब्द उल्टे-सीधे बोल दे, आग लगाकर चला जाए, तो आप
उन्हें सही समझ लेती हैं। उनकी बातों में आ जाती हैं! और आपको यह नहीं दिखता कि आपके
दोनों बेटे कितने परेशान हैं? ना ढंग से खाते-पीते हैं, और ना ही रात को सो पाते हैं।
बस पापा को वापस लाने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। आपको ना तो उनकी चिंता है और ना हमारी।
ना आपने कभी यह सोचा है कि सारे दिन की भाग-दौड़ के बाद जब वो उदास और थके-हारे चेहरे
लेकर हमारे पति घर लौटते हैं, तो हम पर क्या बीतती होगी?" मंजरी की आँखों से आँसू
छलक आए थे, उसके स्वर में पीड़ा थी।
"मैं तो यह सोचती थी दीदी
कि तुम्हारा परिवार बड़ा आदर्श परिवार है। सब मिलकर रहते हैं।" सपना वर्मा ने आग
में पेट्रोल डालने का आखिरी काम किया, "मैंने तो हमेशा सुना था कि तुम्हारी बहुएँ
और बेटे तुम्हारा बड़ा सम्मान करते हैं। माँ जी को सिर आँखों पर बिठाते हैं। पर मैंने
तो आज अपनी आँखों से देख लिया कि तुम्हारी तो इस घर में... दो पैसे की भी इज़्ज़त नहीं
है। तुम्हारी बात कोई सुनता ही नहीं। कहे देती हूँ सावित्री दीदी, ये लोग तुम्हारे
पति को छुड़ाने के लिए एक पैसा भी नहीं देने वाले, ये तो संपत्ति पर कुंडली मारकर बैठना
चाहते हैं। मुझे तो अब लगता नहीं कि तुम्हारे पति सही सलामत घर वापस भी आ पाएंगे।"
जैसे ही नेहा ने सपना वर्मा
के ये विष भरे शब्द सुने, उसका धैर्य पूरी तरह जवाब दे गया। वह तैश में आ गई। वह तेज़ी
से खड़ी हुई, सपना देवी का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े की तरफ खींचते हुए, सख्त आवाज़ में
बोली, "इसी समय हमारे घर से निकल जाइए, आंटी! आपने बहुत आग लगा ली! वरना अच्छा
नहीं होगा, अंजाम बुरा होगा!"
"हाँ-हाँ, जा रही हूँ,
जा रही हूँ।" सपना देवी ने अपना हाथ छुड़ाते हुए नाटकीय ढंग से कहा, "जहाँ
घर की मालकिन की ही कोई इज़्ज़त नहीं, जहाँ उनकी बात कोई सुनता ही नहीं, वहाँ मेरी इज़्ज़त
क्या होगी! छोड़ मेरा हाथ, मैं अपने आप चली जाऊँगी।" और यह कहकर वह बड़बड़ाती हुई,
संतुष्टि से घर से बाहर निकल गई, अपना काम पूरा करके।
उसके जाते ही सावित्री देवी
को मानो सपना वर्मा की कही हर बात सच लगने लगी। उनके मन में शक और क्रोध भर गया। वह
अपनी जगह से खड़ी हुईं और अपनी बहुओं पर चीख पड़ीं, "यह सब क्या बदतमीज़ी है? तुम
कौन होती हो किसी को मेरे घर से भगाने वाली? वह मेरी मेहमान थीं!"
मंजरी ने भी उसी तीखे, दर्द
भरे स्वर में उत्तर दिया, "अच्छा! तो हम कोई नहीं, और वह सपना वर्मा आपकी सबकुछ
हो गई जो इस घर में आग लगाने आई थी?"
"यह घर मेरा है! यह घर
मेरे पति का है! जिसे मैं चाहूँगी, वह आएगी। तुम किसी को कैसे मेरे घर से निकाल सकती
हो?" सावित्री देवी और अधिक घमंड और क्रोध से बोलीं, उनकी आवाज़ काँप रही थी।
"आपका घर? तो हमारा यहाँ
कुछ नहीं? हमारे पति का कुछ नहीं? हमारा क्या है यहाँ?" अबकी बार नेहा ने चुनौती
भरे, रोते हुए स्वर में कहा।
"हाँ, हाँ! तुम्हारा कुछ
नहीं! सबकुछ मेरा है! मेरे पति का बनाया हुआ! यह घर, यह कारोबार, यह दुकान, सब कुछ
मेरे पति की कमाई है!" सावित्री देवी और अधिक तेज और निर्मम स्वर में बोलीं, उनका
चेहरा क्रोध और आवेश से तमतमा रहा था।
"तो हमारे पति जो सारे
दिन दुकान पर अपना सर खपाते हैं, मेहनत करते हैं, खून-पसीना बहाते हैं, उसका कुछ नहीं?
हम जो सारे दिन इस घर में लगी रहती हैं, घर संभालती हैं, उसका कुछ नहीं?" मंजरी
ने रोते हुए कहा, उसकी आवाज़ में गहरा दर्द और अन्याय का भाव था।
"हाँ, हाँ! तुम्हारा कुछ
नहीं!" सावित्री देवी ने निर्ममता से, कठोरता से कहा, "सब-कुछ मेरे पति ने
कमाया है! अपनी मेहनत से खड़ा किया है! और आज जब उन्हें छुड़ाने के लिए इस धन की ज़रूरत
है, तो तुम दोनों इस पर कुंडली मारकर बैठ गई हो, इसे खर्च नहीं करना चाहती। मैं सब
समझती हूँ, मेरे दोनों बेटे भी तुमने अपने वश में कर लिए हैं। उन्हें भी अपने बाप की
जान से ज़्यादा अब पैसा प्यारा लगने लगा है!"
"बहुत अच्छे माँ जी, बहुत
अच्छे!" नेहा की आवाज़ में व्यंग्य, पीड़ा और गहरा आक्रोश था। "जो बेटे अपने
पिता को छुड़ाने के लिए पागल हुए जा रहे हैं, जिन्होंने खाना-पीना, सोना सब त्याग दिया
है, दिन-रात एक कर दिया है, उन्हें तो आप उल्टा बुरा-भला कह रही हैं! उन पर लालच का
इल्ज़ाम लगा रही हैं! और उसको कुछ नहीं कह रहीं जिसकी वजह से यह सब कुछ हुआ है? वो तो
आपकी लाड़ली है ना! गई थी देहरादून पढ़ाई करने और वहाँ जाकर इश्क लड़ा रही थी, अय्याशी
कर रही थी! जिसकी इश्कबाजी और नासमझी ने यह सारा घर बर्बाद कर दिया, इस मुसीबत में
डाल दिया, उसे तो आपने आज तक एक शब्द नहीं कहा! और वह राजकुमारी, आराम से खाती है,
पीती है और अपने कमरे में जाकर सो जाती है! उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता! यह तक नहीं
पूछती कि उसके बाप का क्या हुआ? उसके भाइयों पर क्या बीत रही है?" नेहा ने अपने
मन की सारी भड़ास, सारा गुस्सा एक साथ निकाल दिया।
लड़ाई की तेज़ आवाज़ें सुनकर अक्षरा,
सेठ ध्यानचंद की बेटी, जो शायद अपने कमरे से बाहर आई थी और कहीं छुपकर यह सारी बातें
सुन रही थी, वह झपटकर ड्राइंग रूम में आई और तमककर, गुस्से से बोली, "मैंने कुछ
नहीं किया है भाभी! मेरा कोई दोष नहीं है! और मुझे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है! आप
कौन होती हैं मुझे बोलने वाली?"
मंजरी, जो अभी भी पूरे क्रोध
और आवेश में थी, वह नेहा के पक्ष में बोली, "क्या गलत कहा है नेहा ने? तुम्हें
देहरादून पढ़ने के लिए भेजा था या वहाँ जाकर नैन-मटक्का करने के लिए? लड़कों के साथ घूमने
के लिए? ना तुम वहाँ जाकर यह सब करतीं, ना इस घर पर यह आफत आती! तुम्हारी एक गलती ने
सब कुछ बर्बाद कर दिया!"
"बहुत हुआ भाभी!"
अक्षरा चीखी, उसकी आवाज़ और तेज़ हो गई, "अब और कुछ कहा तो अच्छा नहीं होगा! आप
कुछ क्यों नहीं कहतीं माँ? ये दोनों बहुएँ आपके सामने मेरी बेइज्जती कर रही हैं! मुझे
दोष दे रही हैं!" उसने अपनी माँ से सहारा और बचाव मांगा।
"क्या कहूँ बेटी?"
सावित्री देवी ने गहरी निराशा और दुख से कहा, उनका मन बहुओं के प्रति घृणा
से भर गया, "मुझे तो आज पता लगा कि इनके अन्दर हमारे लिए... हमारे लिए इतना
ज़हर भरा पड़ा है! इतनी नफरत! आने दे इनके पतियों को आज घर, या तो अब इस घर में ये दोनों
बहुएँ रहेंगी... या हम माँ-बेटी रहेंगे। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। जा बेटी, तू अपने
कमरे में जा।" ।
"मुझे तो लगता है माँ कि
तुम्हारी ये दोनों बहुएँ... ये हमारी सारी दौलत पर कब्जा करना चाहती हैं और मेरे दोनों
भाईयों पर तो इन्होने पहले ही कब्जा कर लिया है," अक्षरा ने अपनी माँ को और अधिक
भड़काते हुए, ज़हर घोलते हुए कहा, "अगर पापा को कुछ हो गया तो ये हम दोनों को...
धक्के मारकर घर से निकाल देंगी।"
अक्षरा की बातें सुनकर मंजरी
और नेहा को लगा कि जैसे उनका सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो। यह आरोप, यह नफरत! उनके
मुंह में शब्द जैसे जम गये हों, कुछ बोल ही नहीं पाईं और आंखों से आंसुओं की धारा बहने
लगी। उन्होंने सावित्री देवी की ओर देखा कि शायद वे अक्षरा को डाटें, उसकी गलत बात
को सही करें, किन्तु सावित्री देवी ने तो इस नफरत की आग को और अधिक भड़का दिया।
वह तमक कर, कठोरता से बोलीं-
"मैं सब समझ रही हूं बेटी। मैं इनके मन की होने नहीं दूंगी। इनकी चाल कामयाब नहीं
होगी। इनके पतियों को आने दे। सबसे पहले घर का बंटवारा होगा। सब-कुछ आज बटेगा, घर,
दुकान, कारोबार... सबकुछ। अब इस घर के चार हिस्से होंगे। दो इनके पतियों के और दो हमारे।"
सावित्री देवी को बोलते बोलते
सांस फूलने लगा, उनका चेहरा लाल हो गया था। उसने घृणा भरी दृष्टी से दोनों बहुओं को
देखा और अपने बैडरूम की ओर बढ़ गई, जहाँ उसने खुद को बंद कर लिया।
अक्षरा ने भी हिकारत भरी आंखों
से अपनी भाभियों को देखा, जैसे वे अपराधी हों, और अपने कमरे की ओर चल दी।
और सेठ ध्यानचंद... जो असहाय
थे, और किसी तरह यह सब सुन और देख पा रहे थे, वह सिसक रहे थे, अंदर ही अंदर रो रहे
थे और अपने स्वर्ग जैसे घर को, अपने आदर्श परिवार को अपनी आँखों के सामने बिखरते हुए,
टूटते हुए देख रहे थे। उनका हृदय पीड़ा से भर गया था। उनकी आत्मा कराह रही थी, इस बिखराव
को देखकर, पर वह कुछ भी हस्तक्षेप करने में पूर्णतया असमर्थ थे।
***
(अध्याय ग्यारह)
घर के अंदर का माहौल किसी अनहोनी
की गहरी आशंका से बोझिल था, हवा में भी एक भारीपन महसूस हो रहा था। दिन चढ़ने के साथ-साथ
महिलाओं का आना-जाना लगा रहा। रिश्तेदार, सहेलियाँ, और पड़ोसनें, सभी एक-एक कर आ रही
थीं, उनके चेहरों पर औपचारिक चिंता और मिलावटी सहानुभूति का भाव था। वे सावित्री देवी
के पास कुछ देर बैठतीं, दबी जुबान में कुछ
रटे-रटाए दिलासा भरे शब्द कहतीं, जैसे कोई सामाजिक कर्तव्य निभा रही हों, और फिर चली
जातीं। हर चेहरे पर चिंता और सहानुभूति का मिला-जुला भाव तो था, पर किसी के पास कोई
ठोस समाधान, कोई वास्तविक मदद का प्रस्ताव नहीं था। उनकी उपस्थिति से सावित्री देवी
को सांत्वना कम, और अपनी पीड़ा का सार्वजनिक प्रदर्शन अधिक महसूस हो रहा था।
शाम के करीब चार बज रहे थे,
सूरज भी अब अपनी तपिश कम कर रहा था और सुनहरी रोशनी की जगह एक हल्की, उदास धुंधलका
छाने लगा था। ड्राइंग रूम में सोफे पर सावित्री देवी अपनी छोटी पुत्रवधु नेहा के साथ
बैठी थीं। दोनों के चेहरे उतरे हुए थे, आँखों में उदासी और चिंता थी। दोनों के बीच
धीमी, बुझी आवाज़ में कुछ बातचीत चल रही थी, शायद उसी अनहोनी घटना के इर्द-गिर्द, हर
शब्द में एक अनकहा डर छिपा था। तभी दरवाजे पर एक परिचित, लेकिन थोड़ी तेज़ दस्तक हुई
और पड़ोस में रहने वाली सपना वर्मा ने घर में प्रवेश किया। सपना वर्मा के पति एक सरकारी
दफ्तर में क्लर्क थे, और सपना देवी कहने को तो गृहणी थीं, एक साधारण महिला, लेकिन उनका
असली 'पेशा' आस-पड़ोस की हर छोटी-बड़ी खबर पर पैनी नज़र रखना, लोगों के घरों में ताक-झांक
करना, गॉसिप फैलाना और अगर मौका मिले तो किसी की जलती हुई आग में घी डालकर उसे और भड़काना
था। सेठ ध्यानचंद का परिवार हमेशा से एक आदर्श, संभ्रांत और निजी जीवन जीने वाला परिवार
माना जाता था, उनकी कोई बात कभी बाहर नहीं जाती थी, इसलिए सपना वर्मा को यहाँ अपनी
'प्रतिभा' दिखाने का मसाला कम ही मिलता था। लेकिन आज, जैसे ही उन्हें सेठ ध्यानचंद
के अपहरण की खबर मिली, वह खुद को रोक नहीं पाईं और दौड़ी चली आईं, मानो कोई अनमोल खज़ाना,
कोई ताज़ा स्कैंडल उनके हाथ लग गया हो।
आते ही वह सीधे सावित्री देवी
के पास पहुँचीं और उनके निकट बैठकर, अपनी चिर-परिचित नाटकीयता और बनावटी स्नेह के साथ
बोलीं, "अरे दीदी! यह क्या बात हुई? आपके परिवार पर इतनी बड़ी मुसीबत आ गई और
आपने हमें बताया तक नहीं! क्या आप हमें बिलकुल भी अपना नहीं समझतीं? क्या हम आपके कोई
नहीं लगते?" उनकी आवाज़ में उलाहना कम, और स्थिति की पूरी जानकारी उगलवाने की बेचैनी
और व्यग्रता अधिक थी। "आप तो जानती हैं कि मेरे पति सरकारी दफ्तर में हैं, बड़े-बड़े
अधिकारियों से उनका उठना-बैठना है। अगर आपने एक बार बता दिया होता, तो शायद हम आपकी
कुछ मदद ही कर पाते, कहीं बात करके दबाव बनवा पाते। पर आप तो हमें अपना मानती ही नहीं।"
सावित्री देवी ने एक गहरी सांस
ली, उनकी आँखों में दिन भर की थकान, पीड़ा और मेहमानों के अंतहीन ताँते से उपजी झुंझलाहट
साफ झलक रही थी। "नहीं सपना, ऐसी कोई बात नहीं है। हम पर जो बीत रही है, वो हम
ही जानते हैं। यह इतनी अचानक हुआ कि किसी को कुछ बताने का मौका ही नहीं मिला। हम खुद
भी नहीं चाहते थे कि यह बात इतनी फैले, किसी को पता चले। पर ऐसी बातें भला कहाँ छुपती
हैं।"
"हाँ दीदी, ये बात तो है।
शहर में तो यह खबर आग की तरह फैल गई है।" सपना वर्मा ने गर्दन हिलाते हुए कहा,
उनकी आँखों में चमक थी। फिर थोड़ा करीब झुककर, आवाज़ और धीमी करके, रहस्यमयी ढंग से
फुसफुसाया, जैसे कोई बहुत बड़ा राज बता रही हो, "सुना है, बदमाश बहुत बड़ी रकम की
मांग कर रहे हैं? कोई कह रहा था कि पूरे दस करोड़ मांग रहे हैं?" उनकी आँखों में
आश्चर्य के साथ-साथ एक अजीब सी, रुग्ण जिज्ञासा और रोमांच की चमक थी।
सावित्री देवी की आवाज़ में विवशता
और संसार की कटुता का अनुभव था, "हाँ बहन, दुनिया में पाप-पुण्य तो जैसे रह ही
नहीं गया है। इंसानियत तो जैसे खत्म ही हो गई है। जिसके जो मन में आ रहा है, वो कर
रहा है। यह भी नहीं सोचते कि जितने पैसे तुम मांग रहे हो, उतने सामने वाले के पास एकदम
से हैं भी या नहीं, वह इसका इंतज़ाम कैसे करेगा।"
"देखो दीदी," सपना
वर्मा ने और करीब आकर, और भी गोपनीय अंदाज़ में, जैसे कोई बहुत बड़ा, गुप्त राज बता रही
हो, उस अंदाज में कहा, "बुरा ना मानो तो एक बात बताती हूँ। यह मेरा अनुभव है।
जैसे भी हो सके, अपहरण करने वालों से समझौता कर लेना और पैसे देकर सेठ जी को छुड़ा लेना।
कहीं पुलिस के चक्कर में मत पड़ जाना, दीदी। ऐसी बहुत सारी घटनाएं हो चुकी हैं, जब पैसे
बचाने या हीरो बनने के लिए घर वालों ने पुलिस को बुला लिया और अपने आदमी की जान गँवा
दी। पुलिस कुछ नहीं कर पाती बाद में।"
नेहा, जो अब तक चुपचाप सारी
बातें सुन रही थी, सपना वर्मा की बातों में छिपी कुटिलता और उकसावे को महसूस कर रही
थी, और जिसके चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था, अब और बर्दाश्त नहीं कर पाई। यह सीधा हमला
था। वह बोली, "आंटी, आप बेफिक्र रहो। हमें सब पता है कि क्या करना है। यह हमारे
परिवार का मामला है। जो भी हमारे परिवार के लिए ठीक होगा, जो हमारे ससुर जी के लिए
सुरक्षित होगा, हम वही करेंगे। पुलिस अपना काम कर रही है और हम अपना काम करेंगे।"
उसकी आवाज़ में दृढ़ता, गुस्सा और आत्म-नियंत्रण का मिश्रण था।
सपना वर्मा को नेहा का यह सीधा
और दृढ़ जवाब शायद पसंद नहीं आया, यह उसकी अपेक्षा के विपरीत था। उसने नेहा की ओर देखते
हुए, आवाज़ में हल्की सी जलन और व्यंग्य भरते हुए कहा, "तू नहीं जानती बहू, ऐसे
मामलों में बड़ी समझदारी, सूझबूझ और अनुभव की ज़रूरत होती है। यह खेल बहुत खतरनाक होता
है। मेरे तो मायके के पड़ोस में ही एक आदमी का ठीक इसी तरह अपहरण हो गया था। उनके बेटे
और बहुओं ने पैसों के लालच में पुलिस को बुला लिया। जब बदमाशों को यह बात पता लगी,
तो उन्होंने उस आदमी को... बहुत बेदर्दी से मार डाला। बहू, मैं तो तुम्हें इसीलिए समझा
रही हूँ कि कहीं तुम भी... कहीं तुम भी पैसे बचाने के चक्कर में सेठ जी को पुलिस के
भरोसे छोड़ दो।" सपना ने जानबूझकर उकसावे वाले स्वर में कहा, उसका निशाना साफ था
– बहुओं की नीयत पर शक पैदा करना।
सपना देवी की इस बात ने नेहा
के सब्र का बांध तोड़ दिया। वह तैश में आ गई, उसकी आँखों में गुस्सा आ गया। "आंटी,
वो हमारे ससुर हैं! हमारे पति के पिता हैं! आप यह क्यों समझती हैं कि हमसे ज़्यादा चिंता
आपको उनकी होगी? उनकी जान हमें पैसों से ज़्यादा प्यारी है! आप बेफिक्र रहिए, जो हमारे
लिए और उनके लिए ठीक होगा, हम खुद कर लेंगे। हमें आपकी सलाह की ज़रूरत नहीं है!"
"ले बहू, तू तो खामखां
भड़क ही गई।" सपना वर्मा ने बड़ी मासूमियत से, जैसे उसे सचमुच धक्का लगा हो, उस
अंदाज़ में कहा, "मैंने ऐसा क्या कह दिया जो तुझे इतना बुरा लग गया? मैं तो तुम्हारे
भले की ही बात कर रही थी, अपने अनुभव से। पैसा तो हाथ का मैल है, बेटा। आज चला जाएगा
तो कल फिर आ जाएगा। पर आदमी एक बार जाकर कभी वापस नहीं आता। लेकिन तुम्हारा क्या बिगड़ेगा
बहू, सिंदूर तो बेचारी सावित्री दीदी का ही उजड़ेगा ना।" सपना वर्मा ने आग में
घी डालने का काम शुरू कर दिया था, और अब वह सीधे सावित्री देवी को निशाना बना रही थी,
माँ और बहुओं के बीच खाई खोद रही थी।
तभी आवाज़ें सुनकर बड़ी बहू मंजरी
बाहर आई। वह शायद दरवाज़े के पास तक आ गई थी और उसने सपना वर्मा की आखिरी, ज़हरीली बात
सुन ली थी। उसका चेहरा भी गुस्से से लाल हो गया था। वह दृढ़ता से, आवाज़ ऊँची करके बोली,
"हाँ, वे माँजी के पति हैं, तो हमारे भी ससुर हैं! हमारे पतियों के पिता हैं और
हमारे बच्चों के प्यारे दादाजी हैं! और सुनिए आंटी, यदि आपको किसी के घर में आग लगाने
का, कलह करवाने का इतना ही शौक है, तो कहीं और जाकर यह काम कीजिए। यह सब काम हमारे
घर में नहीं चलेगा। हमें आपकी सलाह या हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है।"
सपना वर्मा मन ही मन मुस्कुराई,
उसकी आँखों में एक कुटिल चमक थी। वह जो चाहती थी, वह काफी हद तक हो चुका था। घर में
फूट और कलह का बीज पड़ चुका था। उसने तुरंत अपना रुख बदला और सावित्री देवी की ओर मुड़कर,
बड़ी दयनीय और निरीह मुद्रा बनाते हुए बोली, "देखा दीदी! तुम्हारी दोनों बहुएँ
कैसे मेरा अपमान कर रही हैं। मैंने ऐसा क्या कह दिया जो ये इतना भड़क रही हैं? मैं तो
तुम्हारे भले की ही बात कर रही थी, तुम्हें आगाह कर रही थी।"
सावित्री देवी, जो पहले से ही
पति की चिंता से परेशान, थकी हुई और घबराई हुई थीं, और सपना की चिकनी-चुपड़ी बातों और
अभिनय में आ गईं। उन्हें सपना की कही बातों में, विशेषकर पुलिस और पैसों वाले तर्क
में, सच्चाई नज़र आने लगी। वह गुस्से में अपनी बहुओं की ओर मुड़ीं, उनकी आँखों में गुस्सा
था। "यह सब क्या बदतमीज़ी है? तुम कौन होती हो किसी को मेरे घर से भगाने वाली?
सपना ने क्या गलत कहा है? बदमाश पैसे के लिए ही तो अपहरण करते हैं। जब उन्हें पैसा
नहीं मिलेगा, तो वह तो आदमी को मार ही देंगे! यही तो सपना कह रही है! इसमें गलत क्या
है?"
मंजरी को अपनी सास की यह बात
सुनकर बहुत दुख और धक्का लगा। "माँ जी," उसने भरे गले से, आँखों में आँसू
लिए कहा, "बाहर से कोई आकर दो शब्द उल्टे-सीधे बोल दे, आग लगाकर चला जाए, तो आप
उन्हें सही समझ लेती हैं। उनकी बातों में आ जाती हैं! और आपको यह नहीं दिखता कि आपके
दोनों बेटे कितने परेशान हैं? ना ढंग से खाते-पीते हैं, और ना ही रात को सो पाते हैं।
बस पापा को वापस लाने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। आपको ना तो उनकी चिंता है और ना हमारी।
ना आपने कभी यह सोचा है कि सारे दिन की भाग-दौड़ के बाद जब वो उदास और थके-हारे चेहरे
लेकर हमारे पति घर लौटते हैं, तो हम पर क्या बीतती होगी?" मंजरी की आँखों से आँसू
छलक आए थे, उसके स्वर में पीड़ा थी।
"मैं तो यह सोचती थी दीदी
कि तुम्हारा परिवार बड़ा आदर्श परिवार है। सब मिलकर रहते हैं।" सपना वर्मा ने आग
में पेट्रोल डालने का आखिरी काम किया, "मैंने तो हमेशा सुना था कि तुम्हारी बहुएँ
और बेटे तुम्हारा बड़ा सम्मान करते हैं। माँ जी को सिर आँखों पर बिठाते हैं। पर मैंने
तो आज अपनी आँखों से देख लिया कि तुम्हारी तो इस घर में... दो पैसे की भी इज़्ज़त नहीं
है। तुम्हारी बात कोई सुनता ही नहीं। कहे देती हूँ सावित्री दीदी, ये लोग तुम्हारे
पति को छुड़ाने के लिए एक पैसा भी नहीं देने वाले, ये तो संपत्ति पर कुंडली मारकर बैठना
चाहते हैं। मुझे तो अब लगता नहीं कि तुम्हारे पति सही सलामत घर वापस भी आ पाएंगे।"
जैसे ही नेहा ने सपना वर्मा
के ये विष भरे शब्द सुने, उसका धैर्य पूरी तरह जवाब दे गया। वह तैश में आ गई। वह तेज़ी
से खड़ी हुई, सपना देवी का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े की तरफ खींचते हुए, सख्त आवाज़ में
बोली, "इसी समय हमारे घर से निकल जाइए, आंटी! आपने बहुत आग लगा ली! वरना अच्छा
नहीं होगा, अंजाम बुरा होगा!"
"हाँ-हाँ, जा रही हूँ,
जा रही हूँ।" सपना देवी ने अपना हाथ छुड़ाते हुए नाटकीय ढंग से कहा, "जहाँ
घर की मालकिन की ही कोई इज़्ज़त नहीं, जहाँ उनकी बात कोई सुनता ही नहीं, वहाँ मेरी इज़्ज़त
क्या होगी! छोड़ मेरा हाथ, मैं अपने आप चली जाऊँगी।" और यह कहकर वह बड़बड़ाती हुई,
संतुष्टि से घर से बाहर निकल गई, अपना काम पूरा करके।
उसके जाते ही सावित्री देवी
को मानो सपना वर्मा की कही हर बात सच लगने लगी। उनके मन में शक और क्रोध भर गया। वह
अपनी जगह से खड़ी हुईं और अपनी बहुओं पर चीख पड़ीं, "यह सब क्या बदतमीज़ी है? तुम
कौन होती हो किसी को मेरे घर से भगाने वाली? वह मेरी मेहमान थीं!"
मंजरी ने भी उसी तीखे, दर्द
भरे स्वर में उत्तर दिया, "अच्छा! तो हम कोई नहीं, और वह सपना वर्मा आपकी सबकुछ
हो गई जो इस घर में आग लगाने आई थी?"
"यह घर मेरा है! यह घर
मेरे पति का है! जिसे मैं चाहूँगी, वह आएगी। तुम किसी को कैसे मेरे घर से निकाल सकती
हो?" सावित्री देवी और अधिक घमंड और क्रोध से बोलीं, उनकी आवाज़ काँप रही थी।
"आपका घर? तो हमारा यहाँ
कुछ नहीं? हमारे पति का कुछ नहीं? हमारा क्या है यहाँ?" अबकी बार नेहा ने चुनौती
भरे, रोते हुए स्वर में कहा।
"हाँ, हाँ! तुम्हारा कुछ
नहीं! सबकुछ मेरा है! मेरे पति का बनाया हुआ! यह घर, यह कारोबार, यह दुकान, सब कुछ
मेरे पति की कमाई है!" सावित्री देवी और अधिक तेज और निर्मम स्वर में बोलीं, उनका
चेहरा क्रोध और आवेश से तमतमा रहा था।
"तो हमारे पति जो सारे
दिन दुकान पर अपना सर खपाते हैं, मेहनत करते हैं, खून-पसीना बहाते हैं, उसका कुछ नहीं?
हम जो सारे दिन इस घर में लगी रहती हैं, घर संभालती हैं, उसका कुछ नहीं?" मंजरी
ने रोते हुए कहा, उसकी आवाज़ में गहरा दर्द और अन्याय का भाव था।
"हाँ, हाँ! तुम्हारा कुछ
नहीं!" सावित्री देवी ने निर्ममता से, कठोरता से कहा, "सब-कुछ मेरे पति ने
कमाया है! अपनी मेहनत से खड़ा किया है! और आज जब उन्हें छुड़ाने के लिए इस धन की ज़रूरत
है, तो तुम दोनों इस पर कुंडली मारकर बैठ गई हो, इसे खर्च नहीं करना चाहती। मैं सब
समझती हूँ, मेरे दोनों बेटे भी तुमने अपने वश में कर लिए हैं। उन्हें भी अपने बाप की
जान से ज़्यादा अब पैसा प्यारा लगने लगा है!"
"बहुत अच्छे माँ जी, बहुत
अच्छे!" नेहा की आवाज़ में व्यंग्य, पीड़ा और गहरा आक्रोश था। "जो बेटे अपने
पिता को छुड़ाने के लिए पागल हुए जा रहे हैं, जिन्होंने खाना-पीना, सोना सब त्याग दिया
है, दिन-रात एक कर दिया है, उन्हें तो आप उल्टा बुरा-भला कह रही हैं! उन पर लालच का
इल्ज़ाम लगा रही हैं! और उसको कुछ नहीं कह रहीं जिसकी वजह से यह सब कुछ हुआ है? वो तो
आपकी लाड़ली है ना! गई थी देहरादून पढ़ाई करने और वहाँ जाकर इश्क लड़ा रही थी, अय्याशी
कर रही थी! जिसकी इश्कबाजी और नासमझी ने यह सारा घर बर्बाद कर दिया, इस मुसीबत में
डाल दिया, उसे तो आपने आज तक एक शब्द नहीं कहा! और वह राजकुमारी, आराम से खाती है,
पीती है और अपने कमरे में जाकर सो जाती है! उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता! यह तक नहीं
पूछती कि उसके बाप का क्या हुआ? उसके भाइयों पर क्या बीत रही है?" नेहा ने अपने
मन की सारी भड़ास, सारा गुस्सा एक साथ निकाल दिया।
लड़ाई की तेज़ आवाज़ें सुनकर अक्षरा,
सेठ ध्यानचंद की बेटी, जो शायद अपने कमरे से बाहर आई थी और कहीं छुपकर यह सारी बातें
सुन रही थी, वह झपटकर ड्राइंग रूम में आई और तमककर, गुस्से से बोली, "मैंने कुछ
नहीं किया है भाभी! मेरा कोई दोष नहीं है! और मुझे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है! आप
कौन होती हैं मुझे बोलने वाली?"
मंजरी, जो अभी भी पूरे क्रोध
और आवेश में थी, वह नेहा के पक्ष में बोली, "क्या गलत कहा है नेहा ने? तुम्हें
देहरादून पढ़ने के लिए भेजा था या वहाँ जाकर नैन-मटक्का करने के लिए? लड़कों के साथ घूमने
के लिए? ना तुम वहाँ जाकर यह सब करतीं, ना इस घर पर यह आफत आती! तुम्हारी एक गलती ने
सब कुछ बर्बाद कर दिया!"
"बहुत हुआ भाभी!"
अक्षरा चीखी, उसकी आवाज़ और तेज़ हो गई, "अब और कुछ कहा तो अच्छा नहीं होगा! आप
कुछ क्यों नहीं कहतीं माँ? ये दोनों बहुएँ आपके सामने मेरी बेइज्जती कर रही हैं! मुझे
दोष दे रही हैं!" उसने अपनी माँ से सहारा और बचाव मांगा।
"क्या कहूँ बेटी?"
सावित्री देवी ने गहरी निराशा और दुख से कहा, उनका मन बहुओं के प्रति घृणा
से भर गया, "मुझे तो आज पता लगा कि इनके अन्दर हमारे लिए... हमारे लिए इतना
ज़हर भरा पड़ा है! इतनी नफरत! आने दे इनके पतियों को आज घर, या तो अब इस घर में ये दोनों
बहुएँ रहेंगी... या हम माँ-बेटी रहेंगे। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। जा बेटी, तू अपने
कमरे में जा।" ।
"मुझे तो लगता है माँ कि
तुम्हारी ये दोनों बहुएँ... ये हमारी सारी दौलत पर कब्जा करना चाहती हैं और मेरे दोनों
भाईयों पर तो इन्होने पहले ही कब्जा कर लिया है," अक्षरा ने अपनी माँ को और अधिक
भड़काते हुए, ज़हर घोलते हुए कहा, "अगर पापा को कुछ हो गया तो ये हम दोनों को...
धक्के मारकर घर से निकाल देंगी।"
अक्षरा की बातें सुनकर मंजरी
और नेहा को लगा कि जैसे उनका सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो। यह आरोप, यह नफरत! उनके
मुंह में शब्द जैसे जम गये हों, कुछ बोल ही नहीं पाईं और आंखों से आंसुओं की धारा बहने
लगी। उन्होंने सावित्री देवी की ओर देखा कि शायद वे अक्षरा को डाटें, उसकी गलत बात
को सही करें, किन्तु सावित्री देवी ने तो इस नफरत की आग को और अधिक भड़का दिया।
वह तमक कर, कठोरता से बोलीं-
"मैं सब समझ रही हूं बेटी। मैं इनके मन की होने नहीं दूंगी। इनकी चाल कामयाब नहीं
होगी। इनके पतियों को आने दे। सबसे पहले घर का बंटवारा होगा। सब-कुछ आज बटेगा, घर,
दुकान, कारोबार... सबकुछ। अब इस घर के चार हिस्से होंगे। दो इनके पतियों के और दो हमारे।"
सावित्री देवी को बोलते बोलते
सांस फूलने लगा, उनका चेहरा लाल हो गया था। उसने घृणा भरी दृष्टी से दोनों बहुओं को
देखा और अपने बैडरूम की ओर बढ़ गई, जहाँ उसने खुद को बंद कर लिया।
अक्षरा ने भी हिकारत भरी आंखों
से अपनी भाभियों को देखा, जैसे वे अपराधी हों, और अपने कमरे की ओर चल दी।
और सेठ ध्यानचंद... जो असहाय
थे, और किसी तरह यह सब सुन और देख पा रहे थे, वह सिसक रहे थे, अंदर ही अंदर रो रहे
थे और अपने स्वर्ग जैसे घर को, अपने आदर्श परिवार को अपनी आँखों के सामने बिखरते हुए,
टूटते हुए देख रहे थे। उनका हृदय पीड़ा से भर गया था। उनकी आत्मा कराह रही थी, इस बिखराव
को देखकर, पर वह कुछ भी हस्तक्षेप करने में पूर्णतया असमर्थ थे।
***
देर शाम जब राघव और निखिल, सेठ
ध्यानचंद के दोनों बेटे, दिन भर की भागदौड़, निराशा और अपमान के बाद थके-हारे घर पहुँचे,
तो उनका स्वागत उस मनहूस खामोशी और एक और भावनात्मक तूफान ने किया, जिसकी उन्हें कल्पना
भी नहीं थी। उनकी पत्नियाँ, मंजरी और नेहा, जो शायद दिन भर के घटनाक्रम से बुरी तरह
टूट गई थीं, जिनकी आँखें रो-रोकर सूज गई थीं, ने एक-एक करके दिन भर के कड़वे घटनाक्रम
को, सपना वर्मा के आने, सास से हुई बहस और घर के बंटवारे तक की बात को अपने पतियों
के सामने रखा।
राघव और निखिल ने जब यह सब सुना
तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि यह सब उनके ही घर में
हुआ है। दोनों ने अविश्वास, दुख और पीड़ा में अपना माथा पीट लिया। उन्हें समझ नहीं आ
रहा था कि उनके आदर्श समझे जाने वाले घर में, उनके स्वर्ग जैसे परिवार में, यह सब क्या
हो रहा था। एक तरफ पिता के अपहरण का असहनीय दुःख और अनिश्चितता थी, और दूसरी तरफ घर
के भीतर ही ईर्ष्या, स्वार्थ और गलतफहमी से उपजी कलह का यह विकराल रूप, जिसने परिवार
को भीतर से खोखला कर दिया था। आज, जब परिवार को शांति, एकता और एक-दूसरे के सहारे की
सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, जब उन्हें मिलकर इस भयानक मुसीबत से लड़ना था, तब घर की सारी
मर्यादाएँ, सारे स्नेह बंधन जैसे तार-तार हो चुके थे। सब मिलकर परिवार पर आई इस भयानक
मुसीबत से लड़ने के बजाय आपस में ही उलझ रहे थे, एक-दूसरे को ही चोट पहुँचा रहे थे,
एक-दूसरे पर ही दोषारोपण कर रहे थे।
भारी मन और थके क़दमों से दोनों
भाई अपनी माँ, सावित्री देवी, के कमरे की ओर बढ़े। शायद वह माँ से बात करके उन्हें समझा
सकें, इस गलतफहमी को दूर कर सकें। दरवाज़ा अंदर से बंद था, जैसे माँ ने खुद को दुनिया
से अलग कर लिया हो। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया, माँ को आवाज़ें दीं, उनसे बात करने की
मिन्नतें कीं, "माँ, दरवाज़ा खोलो माँ, प्लीज़ बात तो सुनो माँ। हम आ गए हैं।"
लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं आया, सिवाय एक कठोर, अटल इनकार के। सावित्री देवी ने दरवाज़े
के दूसरी ओर से ही साफ-साफ, बिना किसी ममता के कह दिया, "अब यह दरवाज़ा... यह दरवाज़ा
या तो तुम्हारे पिता के सही सलामत घर वापस आने के बाद ही खुलेगा, या फिर जब तुम्हारी
दोनों पत्नियाँ इस घर को छोड़कर चली जाएँगी, तब खुलेगा। तुम में से किसी को भी, दरवाज़े
के उस तरफ से, अंदर आने की इजाज़त नहीं है।"
यह सुनना राघव और निखिल के लिए
उनके पिता के अपहरण की खबर से भी ज़्यादा दुखदायी और दिल तोड़ने वाला था। उनकी अपनी माँ,
जिसने उन्हें जन्म दिया, पाला-पोसा, आज उनसे इस तरह मुँह मोड़ लेगी, इस तरह की शर्त
रखेगी, यह उन्होंने अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं सोचा था। वे पूरी तरह टूट चुके
थे, लाचार थे, समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, किसे समझाएँ, इस बिखराव को कैसे रोकें,
इस टूटे हुए परिवार को कैसे जोड़ें।
निराशा और दुख में डूबे दोनों
भाई अपनी छोटी बहन अक्षरा के कमरे की ओर गए, शायद उससे कोई बात हो सके, शायद वह माँ
को समझाने में मदद कर सके, बीच का रास्ता निकाल सके। लेकिन अक्षरा ने भी शायद दिन की
घटनाओं और अपने ऊपर लगे आरोपों से आहत और गुस्से में थी। उसने भी अपने कमरे का दरवाज़ा
खोलने से साफ इनकार कर दिया, जैसे अपने भाइयों से भी उसका कोई लेना-देना न हो।
हर तरफ से नाउम्मीद होकर, अपनों
द्वारा ठुकराए जाकर, अंततः थक-हारकर, शरीर और मन से निढाल होकर दोनों भाई अपने-अपने
कमरों में जाकर बिना कुछ बोले निढाल होकर बिस्तर पर लेट गए। पूरे घर में एक मनहूस,
खौफनाक खामोशी पसरी थी। रसोई ठंडी पड़ी थी, ना तो किसी ने खाना बनाया था और ना ही किसी
को खाने की इच्छा थी। भूख जैसे मर चुकी थी, भावनाओं ने पेट की ज़रूरतों को दबा दिया
था। सबका दुख एक था, सबकी पीड़ा एक थी – सेठ ध्यानचंद की चिंता और उनके सकुशल लौटने
की प्रार्थना। लेकिन इस सबके बावजूद, सभी को अपना स्वर्ग जैसा घर टूटता हुआ, बिखरता
हुआ नज़र आ रहा था, और यह आशंका उन्हें अंदर ही अंदर खाये जा रही थी। विडंबना यह थी
कि जिस बिखराव और विनाश की आशंका से वे इतने डरे हुए थे, अनजाने में और न चाहते हुए
भी, वे सभी अपने-अपने तरीके से उस बिखराव में अपना सर्वाधिक योगदान दे रहे थे, अपने
शब्दों और व्यवहार से।
मन में अनगिनत आशंकाएँ, अनकहे डर और भारीपन लिए सभी किसी तरह नींद की
आगोश में चले गए, या शायद सोने का नाटक करने लगे, वास्तविकता से भागने की कोशिश करने
लगे। राघव बिस्तर पर लेटा हुआ था, आँखें बंद थीं, पर दिमाग में विचारों का बवंडर चल
रहा था, नींद कोसों दूर थी। वह बस यही सोच रहा था कि कल का नया दिन शायद उनके परिवार
के लिए कोई नई आशा की किरण लेकर आए, कोई चमत्कार हो जाए, पिता लौट आएं और सब पहले जैसा
ठीक हो जाए, यह बुरा सपना खत्म हो जाए। मगर होनी को, भाग्य को, तो शायद कुछ और ही मंज़ूर
था, कुछ ऐसा जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी, एक ऐसा मोड़ जो उनके जीवन को हमेशा
के लिए बदल देगा।
***
(अध्याय बारह)
अक्षरा अपने बेडरूम में लेटी हुई थी, आँखों से आँसू बह रहे थे। उसकी
भाभियों के शब्द उसके दिल में चुभ रहे थे। उसने कभी नहीं सोचा था कि जिन भाभियों को
वह माँ की तरह मानती थी, वे उसे इस तरह अपमानित करेंगी। उन्होंने न सिर्फ उसे बल्कि
उसके पिता को भी लांछित किया था। वह सोच रही थी— *"क्या मैं अपने भाइयों से शिकायत
करूँ? वे मुझसे कितना प्यार करते हैं, मेरी हर इच्छा पूरी करते हैं। लेकिन क्या वे
सच में मेरे साथ हैं?"*
उसका गुस्सा भाभियों से बढ़ता हुआ अब भाइयों तक पहुँच चुका था।
*"शायद उन्होंने ही भाभियों को बढ़ावा दिया है। नहीं तो वे मुझ पर इल्ज़ाम लगाने
की हिम्मत नहीं करतीं!"* यह सोचकर उसका दिल और भी टूट गया।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। बड़े भाई ने आवाज़ दी— *"अक्षरा,
दरवाज़ा खोलो। हमसे बात करो।"*
लेकिन अक्षरा ने जवाब नहीं दिया। दोनों भाइयों ने बहुत मिन्नतें
कीं, लेकिन उसने दरवाज़ा नहीं खोला। आखिरकार, वे निराश होकर चले गए।
जब उनके कदमों की आवाज़ दूर हो गई, तो अक्षरा को अपने व्यवहार पर
पछतावा होने लगा। *"मैंने गलत किया... ये भाई मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहते
हैं, और मैंने उन्हें ऐसे दुत्कार दिया?"* उसकी आँखों से आँसू फिर से बहने लगे।
*"शायद भाभियाँ सही थीं... यह सब मेरी वजह से हुआ। अगर मैं
प्यार में न पड़ती, तो पापा का अपमान न होता, उनका अपहरण न होता। मेरी वजह से पूरा
घर बर्बाद हो गया। आज भाभियों ने कहा, कल पूरी दुनिया कहेगी। मैं इस कलंक के साथ नहीं
जी सकती..."*
उसने फैसला कर लिया— वह इस घर को छोड़ देगी। जब सब सो जाएँगे, वह
चुपके से निकल जाएगी। *"शायद मेरी मौत ही इस घर को बचा सकती है।"*
वह रात भर सो नहीं पाई। उठकर उसने अपनी डायरी से एक पन्ना फाड़ा
और लिखा—
"मेरी एक गलती ने पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया। मैं इस कलंक
के साथ नहीं जी सकती। मैं खुद को खत्म करने जा रही हूँ। मेरी मौत की ज़िम्मेदार सिर्फ
मैं हूँ।"*
पत्र को बेड पर रखकर, वह धीरे से उठी। सुबह के चार बजे थे, सब गहरी
नींद में थे। वह चुपचाप मुख्य दरवाज़े तक पहुँची, गेट खोला और बाहर निकल गई। दरवाज़ा
बंद करते हुए, वह अंधेरे में गायब हो गई।
वह बिना रुके चलती रही। शायद ज़िंदगी में पहली बार इतनी दूर पैदल
चली थी। खुद को कोसती हुई, वह आगे बढ़ रही थी कि तभी उसे याद आया— *"धैर्य...
वह भी तो इसी शहर में है। क्या मैं उसे सब नहीं बता दूँ?"*
उसने फोन निकाला और धैर्य का नंबर डायल किया। दूसरी घंटी पर धैर्य
ने फोन उठाया।
"धैर्य... मैं... मैं जी नहीं सकती। मेरी वजह से मेरा पूरा
परिवार बर्बाद हो गया। मैंने सब खो दिया..." उसकी आवाज़ रुँध गई।
धैर्य ने फौरन कहा— *"तुम जहाँ हो, वहीं रुको। मैं आ रहा हूँ।
फिर जो तुम कहोगी, वही होगा।"
कुछ ही देर में धैर्य की कार वहाँ आ पहुँची। जैसे ही वह कार से उतरा,
अक्षरा उससे जाकर लिपट गई।
***
सुबह की पहली किरण अभी ठीक से
धरती को चूम भी नहीं पाई थी। पूरब के आसमान में हल्की गुलाबी, सुनहरी और नारंगी आभा
धीरे-धीरे फैल रही थी, जैसे कोई अदृश्य कलाकार अपने कैनवस पर एक नए दिन के रंगों का
पहला, कोमल स्पर्श कर रहा हो। पक्षियों का चहचहाना अभी शुरू ही हुआ था, और हवा में
एक नई सुबह की ताज़गी और शांति घुली हुई थी। इसी शांत, पवित्र वातावरण में, शहर के एक
एकांत पार्क की बेंच पर दो युवा, हताश और डरे हुए बैठे थे, जिनके दिलों में तूफ़ान उमड़
रहा था। सेठ ध्यानचंद की लाडली बेटी, अक्षरा की आँखें रात भर रोने से बुरी तरह सूजी
हुई थीं, और अब भी उनमें से आँसुओं की एक पतली, अनवरत धारा बह रही थी, जो उसके गालों
पर सूख चुकी पपड़ियों से मिलकर एक दर्दनाक चित्र बना रही थी। धैर्य ने उसका हाथ अपने
हाथों में कसकर थाम रखा था, मानो उसे किसी अथाह, अँधेरी गहराई में गिरने से रोक रहा
हो, उसे सहारा दे रहा हो।
"ये तुम क्या करने जा रही
थी अक्षरा?" धैर्य की आवाज़ में गहरी चिंता, दर्द और अविश्वास का मिश्रण था। वह
अभी भी उस भयानक आशंका से काँप रहा था। "तुम तो... तुम तो चली जाती," उसने
कहा, "लेकिन तुमने ये तो सोचा होता कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार का
क्या होता? तुम्हारी माँ का क्या होता? तुम्हारे भाइयों का क्या होता? मेरा क्या होता?
तुम्हें ऐसा... ऐसा भयानक निर्णय नहीं लेना था।" उसने अक्षरा का हाथ और ज़ोर से
दबाया, अपनी सारी संवेदनाएँ, अपना सारा प्यार और चिंता उस स्पर्श में उड़ेलते हुए,
जैसे कहना चाह रहा हो कि तुम अकेली नहीं हो।
अक्षरा ने एक गहरी, कांपती हुई
सांस ली, उसके होंठ फड़फड़ाए। उसकी नज़रें ज़मीन पर टिकी थीं, जैसे उनमें ऊपर देखने, धैर्य
की आँखों में देखने या इस दुनिया का सामना करने का साहस ही न बचा हो। "मैं क्या
करती धैर्य," उसकी आवाज़ सिसकियों में डूब रही थी, मुश्किल से सुनाई दे रही थी,
"मेरे कारण ही तो यह सब हुआ है। मेरी वजह से ही तो पापा घर छोड़कर चले गए, उन्हें
यह सब झेलना पड़ रहा है। माँ दिन-रात रोती रहती हैं। मेरे भाइयों और भाभियों को मेरी
वजह से बातें सुननी पड़ रही हैं। मेरे पास दूसरा रास्ता ही क्या था?" उसके शब्दों
में बेबसी, अपराध बोध और गहरी निराशा स्पष्ट झलक रही थी। उसे लग रहा था जैसे वह ही
सारी मुसीबतों की जड़ है।
"नहीं अक्षरा," धैर्य
ने नरमी से कहा, उसके चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए, उसकी आँखों में देखते हुए।
उसकी आवाज़ में प्यार और आश्वासन था। "तुमने कुछ गलत नहीं किया है। प्यार करना
कोई अपराध नहीं है, अक्षरा। हमने तो बस प्यार किया है, सच्चा और पवित्र प्यार। समाज
की बनाई हुई बेड़ियाँ और परिवार की झूठी शान कभी-कभी... कभी-कभी प्यार को गुनाह बना
देती हैं, पर दिल के रिश्ते, दो आत्माओं का मिलन कभी गुनाह नहीं होते।"
"हाँ धैर्य," अक्षरा
ने एक फीकी, दर्द भरी मुस्कान के साथ कहा, जो उसके होंठों तक आकर रह गई, "हमने
तो सच्चा प्यार किया था... एक दूसरे की आत्मा से। लेकिन समाज की नज़र में, माता-पिता
के आशीर्वाद के बिना, यह दुनियादारी के सामने सच्चा प्यार भी अपराध बन जाता है। यह
सब कुछ जो हो रहा है... पापा का जाना, घर में कलह, यह सारी मुसीबत... यह हमारे प्यार
के कारण ही हो रहा है।" पश्चाताप और ग्लानि का भारी बोझ उसकी आवाज़ को और भारी
बना रहा था, उसे दबा रहा था। "और अपने इस अपराध की तो सजा मुझे भोगनी ही होगी...
मेरे पास... मेरे पास जान देने के अलावा रास्ता ही क्या है।"
सूर्य अब क्षितिज से थोड़ा और
ऊपर उठ आया था, उसकी लालिमा और प्रखर हो गई थी, दुनिया जागने लगी थी। पार्क में पक्षियों
का चहचहाना और तेज़ हो गया था, जीवन की हलचल शुरू हो गई थी, लेकिन उन दोनों के लिए जैसे
दुनिया ठहर सी गई थी, उनके दुख के आगे सब फीका था।
"नहीं," धैर्य ने
दृढ़ता से कहा, उसकी आवाज़ में कोई संदेह नहीं था, "ये कोई रास्ता नहीं था, अक्षरा।
ये तो सबसे गलत रास्ता था। इससे तो तुम अपने परिवार को और अधिक दुख देती, कलंकित करती।
लोग तरह-तरह की बातें बनाते, गॉसिप करते। उनकी तकलीफ कम होने के बजाय और बढ़ जाती। शायद
वे तुम्हें कभी माफ़ भी न कर पाते। खैर, छोड़ो इन बातों को। जो हुआ सो हुआ। चलो, मैं
तुम्हें घर छोड़ देता हूं। वे जब तुम्हें घर पर नहीं पाएंगे तो और अधिक दुखी और परेशान
हो जाएंगे।"
अक्षरा ने तुरंत सिर हिलाया,
उसकी आँखों में फिर से आँसू छलक आए, जैसे कोई बाँध टूट गया हो। "नहीं धैर्य, मैं
घर नहीं जाऊंगी। बिल्कुल नहीं। जब तक मेरे पापा सही सलामत वापस नहीं लौट आते, तब तक
तो बिल्कुल नहीं।" उसने फिर से रोना शुरू कर दिया, उसकी सिसकियाँ सुबह की शांति
को भंग कर रही थीं, हवा में घुल गईं।
"ठीक है, ठीक है,"
धैर्य ने उसे शांत करने की कोशिश की, उसके कंधों पर हाथ रखकर, "रो मत। किन्तु...
किन्तु घर फोन तो कर दो। ताकि तुम्हारे घर वाले परेशान न हों। उन्हें बता दो कि तुम
सुरक्षित हो। उन्हें तुम्हारी चिंता होगी।"
"नहीं धैर्य," अक्षरा
ने लगभग चीखते हुए, गुस्से में कहा, उसकी आवाज़ भावनाओं से भरी हुई थी, "अभी मैं
फोन भी नहीं करूंगी! किसी को फोन नहीं करूंगी! मुझे अकेला छोड़ दो! तुम ज्यादा करोगे
तो मैं अभी यहीं से उठकर चली जाऊंगी और फिर तुम्हें कभी नहीं मिलूंगी!" उसने झटके
से अपना फोन निकाला और उसे स्विच ऑफ कर दिया, जैसे वो दुनिया से सारे संपर्क, सारे
बंधन तोड़ देना चाहती हो।
धैर्य ने गहरी सांस ली, निराशा
और हताशा उसके चेहरे पर आ गई। "ये तुम अच्छा नहीं कर रही हो अक्षरा। तुम्हारा
परिवार पहले से ही बड़ी मुसीबत में है... पापा का पता नहीं है... और तुम भी उनकी मुसीबत
बढ़ा रही हो। उन्हें तुम्हारी चिंता होगी।"
"प्लीज़ धैर्य," अक्षरा
की आवाज़ में अब थकान, हताशा और समर्पण था, "अभी तुम मुझसे कुछ मत कहो। मुझे कुछ
समय के लिये... बस कुछ समय के लिये तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। फिर जैसा तुम कहोगे
वैसा ही करूंगी। मुझे बस थोड़ा वक्त चाहिए।"
धैर्य अक्षरा की मनोदशा को समझ
रहा था। वह जानता था कि इस समय उस पर किसी भी तरह का दबाव डालना, उसे ज़बरदस्ती घर भेजना
ठीक नहीं होगा। उसने एक पल सोचा, फिर हल्के से मुस्कुराने की कोशिश की, उसे ढाढ़स देने
के लिए। "आओ," उसने स्नेह से कहा, "कहीं चलकर चाय पीते हैं। शायद कोई
छोटी टी शॉप खुल गई हो। सुबह की गर्म चाय शायद तुम्हें थोड़ा बेहतर महसूस कराएगी, थोड़ी
ताकत देगी।"
अक्षरा ने कुछ नहीं कहा, उसकी
आँखों में अभी भी नमी थी, चेहरा उदास और थका हुआ था, लेकिन उसने विरोध नहीं किया। उसने
चुपचाप, बिना किसी भाव के, जैसे कठपुतली हो, धैर्य के साथ बेंच से उठी और उसके साथ
चल दी। सुबह की धुंध अभी भी हल्की-हल्की छाई हुई थी, और दो साये उस धुंध में धीरे-धीरे
आगे बढ़ रहे थे, एक अनिश्चित, अज्ञात भविष्य की ओर, जहाँ उनके प्यार का क्या होगा, कोई
नहीं जानता था।
***
सुबह का आगमन पक्षियों के मधुर
कलरव से हो रहा था, उनकी चहचहाहट वातावरण में घुल रही थी, जैसे प्रकृति एक नए, ताज़े
दिन का स्वागत गीत गा रही हो। लेकिन सावित्री देवी के लिए यह सुबह भी पिछली कई सुबहों
की तरह बोझिल, दर्दनाक और निराशा भरी थी। उन्होंने अपने नियत समय पर बिस्तर छोड़ दिया,
हालाँकि उनका सिर रात भर की चिंता और रोने के कारण तेज़ दर्द से फटा जा रहा था। माथे
को हल्के से दबाते हुए वह शक्तिहीन कदमों से बिस्तर से नीचे उतरीं। नींद तो जैसे उनसे
रूठ ही गई थी, पिछले कई दिनों से उनकी आँखों ने चैन नहीं पाया था।
पिछले दस-बारह दिनों से उनके
जीवन में मानो भूचाल आया हुआ था, एक के बाद एक मुसीबतों का पहाड़ टूट रहा था। घर का
माहौल पूरी तरह बदल गया था, खुशियों की जगह डर, चिंता और कलह ने ले ली थी। जो भयानक
घटनाएं घट रही थीं, उसने सावित्री देवी को अंदर तक झकझोर दिया था, उनकी आत्मा घायल
हो गई थी। कई दिनों से न तो वह ठीक से कुछ खा-पी पा रही थीं, शरीर कमज़ोर पड़ गया था,
और न ही पलकें झपका पा रही थीं, हर पल चिंता सता रही थी। रात की घटना, बहुओं से झगड़ा,
और अक्षरा के ऊपर लगे लांछन ने तो उनके हृदय को जैसे मसोस कर रख दिया था, उन्हें सांस
लेने में भी मुश्किल हो रही थी। पति के अपहरण का दुःख, घर में कलह, बहुओं की बातें
– यह सब कुछ उनके लिए असहनीय था। "अक्षरा को देखती हूँ," उन्होंने मन ही
मन सोचा, उनकी आवाज़ में बेटी के लिए असीम वात्सल्य और चिंता थी, "बेचारी सो भी
पाई है या नहीं। रात कितनी दुखी और सहमी हुई थी।" यह सोचते हुए, अपनी सारी पीड़ा
भूलकर, वह अपनी लाडली बेटी के कमरे की ओर चल दी।
अक्षरा के कमरे का द्वार अधखुला
था, जो सामान्य नहीं था। सावित्री देवी को आश्चर्य हुआ। अक्षरा तो आमतौर पर देर तक
सोती थी, सुबह जल्दी उठती ही नहीं थी, फिर आज इतनी सुबह उसके कमरे का दरवाज़ा क्यों
खुला हुआ है? एक अनिष्ट की भयानक आशंका ने उनके मन को तेज़ी से घेर लिया, एक ठंडा डर
उनकी रीढ़ की हड्डी में उतर गया। उन्होंने धड़कते दिल से, धीरे से दरवाज़ा धकेला और कमरे
में प्रवेश किया।
कमरा खाली था। अक्षरा अपने बिस्तर
पर नहीं थी। सावित्री देवी के मन को एक ज़ोर का धक्का लगा, उनका दिल ज़ोरों से धड़कने
लगा, जैसे अभी सीने से बाहर आ जाएगा। उन्होंने धड़कते, काँपते दिल से कमरे में चारों
ओर नज़र दौड़ाई – अक्षरा कहीं भी नहीं थी। कमरे से जुड़े बाथरूम का दरवाज़ा खोलकर देखा,
वह वहाँ भी नहीं थी। उनकी व्याकुल नज़र वापस बिस्तर पर गई, जहाँ तकिये के पास एक सफ़ेद
कागज़ रखा दिखाई दिया। उस सादे कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था। एक भयानक आशंका ने उनके पूरे
शरीर को जकड़ लिया। उन्होंने काँपते हाथों से झपटकर वह कागज़ उठाया, उनकी उंगलियाँ थरथरा
रही थीं। जैसे ही कागज़ पर लिखी चंद पंक्तियों को पढ़ा, उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई,
जैसे किसी ने सारा सहारा खींच लिया हो। शब्द आँखों के सामने नाचने लगे, धुंधले हो गए,
हर अक्षर एक तीखे शूल की तरह सीने में गहरा चुभ रहा था, हृदय फट रहा था।
"हाय अक्षरा! मेरी बच्ची!
यह तूने क्या किया?" सावित्री देवी की हृदय विदारक चीख पूरे घर में गूँज उठी,
जिसने सुबह की शांति को चीर दिया। वह वहीं फर्श पर, शक्तिहीन होकर बैठ गईं, उनके आँसू
बेतहाशा बह रहे थे, उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं था। "यह सब... यह सब करने
से पहले अपनी इस बूढ़ी, अभागन माँ के बारे में तो सोचा होता मेरी बच्ची! तू चली गई...
अब मैं किसके सहारे जिऊँगी? मेरा है ही कौन इस दुनिया में? सबने साथ छोड़ दिया!"
सावित्री देवी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाये
जा रही थीं, उनके रोने की आवाज़ घर के कोने-कोने में फैल गई। उनकी चीख सुनकर सबसे पहले
उनका बड़ा बेटा राघव नींद से जागकर, घबराया हुआ दौड़कर आया।
"माँ! क्या हुआ? क्या हो
गया माँ? आप क्यों रो रही हैं?" राघव ने अपनी माँ के कंधे पकड़ते हुए, घबराहट में
पूछा। उसकी नींद उड़ गई थी, आँखों में डर था।
"हमारी अक्षरा... हमारी
अक्षरा हमें छोड़कर चली गई बेटा!" सावित्री देवी ने रोते-रोते, हिचकियों के बीच
कहा और हाथ में पकड़ा हुआ कागज़ काँपते हाथों से राघव को थमा दिया।
राघव ने काँपते हाथों से कागज़
लिया और उस पर लिखी पंक्तियाँ पढ़ीं। पढ़ते ही उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया, जैसे सारा खून
सूख गया हो, आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली, वह भी माँ की तरह रो पड़ा। वह ज़ोर से
चिल्लाया, उसकी आवाज़ में दर्द और अविश्वास था, "निखिल…! निखिल, ज़रा जल्दी यहाँ
आना! देखो ये क्या हो गया!"
निखिल, जो अपनी माँ और भाई के
रोने-चिल्लाने की आवाज़ सुनकर पहले ही जाग गया था और उन्हीं की ओर तेज़ी से आ रहा था,
अपने भाई की पुकार सुनकर और तेज़ी से दौड़ता हुआ अक्षरा के कमरे में पहुँचा। अपनी माँ
और बड़े भाई को इस तरह फर्श पर बैठे, बिलखते देखकर निखिल घबरा गया, उसके मन में अनहोनी
की आशंका और भी गहरी हो गई। उसने जल्दी से पूछा, "क्या हुआ भैय्या? माँ, आप ठीक
तो हैं? सब रो क्यों रहे हैं?"
राघव ने बिना कुछ कहे, अपनी
भावनाओं को शब्दों में व्यक्त किए बिना, अपने हाथ में पकड़ा हुआ कागज़ काँपते हाथों से
निखिल को थमा दिया। निखिल ने उसे पढ़ा, और उसकी भी वही हालत हुई जो उसकी माँ और बड़े
भाई की हुई थी। वह अवाक रह गया, सदमे से जम गया, आँखों में आँसू भर आए। अक्षरा चली
गई थी।
देखते ही देखते सारे घर में
कोहराम मच गया। दोनों बहुएँ मंजरी और नेहा, भी रोने-चिल्लाने की आवाज़ सुनकर, अनिष्ट
की आशंका से भरी हुई, वहाँ पहुँच गई थीं। उनके चेहरों पर भी घबराहट, चिंता और कुछ हद
तक रात की लड़ाई के कारण अपराध बोध के भाव थे।
सावित्री देवी अब अपनी बहुओं
की ओर मुड़कर, अपनी बेटी के जाने का सारा दोष उन पर लगाते हुए, दहाड़े मारकर रो रही थीं,
"तुम दोनों की वजह से! तुम दोनों ने मेरी बच्ची को इतना सताया! रात उसे बातें
सुनाईं! कि वो... कि वो यह... यह कदम उठाने पर मजबूर हो गई! तुम दोनों ने मेरी बच्ची
को घर से निकाल दिया!"
राघव ने किसी तरह खुद को सम्भाला,
उसके भीतर का भाई जाग उठा था। उसने अपनी आँखों के आँसू पोंछे और रोते हुए, पर दृढ़ आवाज़
में निखिल से बोला, "आ निखिल, देर मत कर! अक्षरा को तलाश करते हैं। शायद... शायद
अभी कहीं दूर न गई हो। हाँ, पहले उसे फोन कर!"
निखिल तुरंत दौड़कर अपने कमरे
में गया और अपना मोबाइल उठाकर अक्षरा का नम्बर डायल किया। घंटी बजने के बजाय, फोन पर
एक निराशाजनक सन्देश आया – "आप जिस नम्बर पर सम्पर्क करना चाहते हैं, वह अभी स्विच
ऑफ है।" निखिल निराश होकर, बुझे हुए कदमों से वापस आया और राघव से बोला,
"भैय्या, अक्षरा का फोन तो स्विच ऑफ है। संपर्क नहीं हो रहा।"
राघव का चेहरा और मुरझा गया,
उसकी बची-खुची उम्मीद भी जाती रही। रुआँसे होकर बोला, "कोई बात नहीं भाई। आ भाई,
उसे ढूंढते हैं। शायद अभी कहीं दूर न गई हो। शहर में ही कहीं होगी। बस... बस मिल जाए।"
निखिल बिना कुछ कहे अपने भाई
के साथ घर से बाहर निकल गया, एक अनिश्चित, दर्दनाक खोज पर, इस उम्मीद में कि शायद उनकी
बहन उन्हें कहीं मिल जाए।
घर में पीछे छूट गया था केवल रोना-धोना, सिसकियाँ और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप
का अंतहीन सिलसिला। घर का माहौल और भी भारी और दुखद हो गया था।
***
(अध्याय तेरह)
सुबह की पहली किरण अभी ठीक से
धरती को चूम भी नहीं पाई थी। पूरब के आसमान में हल्की गुलाबी, सुनहरी और नारंगी आभा
धीरे-धीरे फैल रही थी, जैसे कोई अदृश्य कलाकार अपने कैनवस पर एक नए दिन के रंगों का
पहला, कोमल स्पर्श कर रहा हो। पक्षियों का चहचहाना अभी शुरू ही हुआ था, और हवा में
एक नई सुबह की ताज़गी और पवित्र शांति घुली हुई थी। इसी शांत, शांत पूर्ण वातावरण के
विपरीत, शहर के एक एकांत पार्क की बेंच पर दो युवा, हताश और डरे हुए बैठे थे, जिनके
दिलों में तूफ़ान उमड़ रहा था। सेठ ध्यानचंद की लाडली बेटी, अक्षरा की आँखें रात भर रोने
से बुरी तरह सूजी हुई थीं, और अब भी उनमें से आँसुओं की एक पतली, अनवरत धारा बह रही
थी, जो उसके गालों पर सूख चुकी पपड़ियों से मिलकर एक दर्दनाक चित्र बना रही थी। धैर्य
ने उसका हाथ अपने हाथों में कसकर थाम रखा था, मानो उसे किसी अथाह, अँधेरी गहराई में
गिरने से रोक रहा हो, उसे सहारा दे रहा हो, उसे दुनिया से बचा रहा हो।
"ये तुम क्या करने जा रही
थी अक्षरा?" धैर्य की आवाज़ में गहरी चिंता, दर्द और अविश्वास का मिश्रण था। वह
अभी भी उस भयानक आशंका से काँप रहा था। "तुम तो... तुम तो चली जाती," उसने
कहा, उसका स्वर भर्रा गया था, "लेकिन तुमने ये तो सोचा होता कि तुम्हारे जाने
के बाद तुम्हारे परिवार का क्या होता? तुम्हारी माँ का क्या होता? तुम्हारे भाइयों
का क्या होता? मेरा क्या होता? तुम्हें ऐसा... ऐसा भयानक, आत्मघाती निर्णय नहीं लेना
था।" उसने अक्षरा का हाथ और ज़ोर से दबाया, अपनी सारी संवेदनाएँ, अपना सारा प्यार
और चिंता उस स्पर्श में उड़ेलते हुए, जैसे कहना चाह रहा हो कि तुम अकेली नहीं हो, मैं
तुम्हारे साथ हूँ।
अक्षरा ने एक गहरी, कांपती हुई
सांस ली, उसके होंठ फड़फड़ाए, पर कोई शब्द नहीं निकला। उसकी नज़रें ज़मीन पर टिकी थीं,
जैसे उनमें ऊपर देखने, धैर्य की आँखों में देखने या इस दुनिया का सामना करने का साहस
ही न बचा हो। "मैं क्या करती धैर्य," उसकी आवाज़ सिसकियों में डूब रही थी,
मुश्किल से सुनाई दे रही थी, "मेरे कारण ही तो यह सब हुआ है। मेरी वजह से ही तो
पापा घर छोड़कर चले गए, उन्हें यह सब झेलना पड़ रहा है। माँ दिन-रात रोती रहती हैं। मेरे
भाइयों और भाभियों को मेरी वजह से बातें सुननी पड़ रही हैं। मेरी वजह से घर में कलह
हो रही है। मेरे पास दूसरा रास्ता ही क्या था?" उसके शब्दों में बेबसी, अपराध
बोध और गहरी निराशा स्पष्ट झलक रही थी। उसे लग रहा था जैसे वह ही सारी मुसीबतों की
जड़ है, सारे दुख का कारण।
"तुमने कुछ गलत नहीं किया
है अक्षरा," धैर्य ने नरमी से कहा, उसके चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए, उसकी
आँखों में देखते हुए, अपनी आँखों में उसके लिए असीम प्यार और विश्वास भरते हुए। उसकी
आवाज़ में प्यार और आश्वासन था। "प्यार करना कोई अपराध नहीं है, अक्षरा। हमने तो
बस प्यार किया है, सच्चा और पवित्र प्यार। जो दो आत्माओं को जोड़ता है। यह समाज की बनाई
हुई बेड़ियाँ, रिश्तों की जटिलताएं और परिवार की झूठी शान कभी-कभी... कभी-कभी प्यार
को गुनाह बना देती हैं, लोगों को इसके लिए सजा देती हैं, पर दिल के रिश्ते, दो आत्माओं
का मिलन कभी गुनाह नहीं होते।"
"हाँ धैर्य," अक्षरा
ने एक फीकी, दर्द भरी मुस्कान के साथ कहा, जो उसके होंठों तक आकर रह गई, उसकी आँखों
का दर्द उस मुस्कान में छिप नहीं पाया, "हमने तो सच्चा प्यार किया था... एक दूसरे
की आत्मा से... एक दूसरे के दिल से। लेकिन समाज की नज़र में, दुनियादारी के सामने, माता-पिता
के आशीर्वाद और सहमति के बिना, यह दुनिया इसे सच्चा प्यार नहीं मानती। यह अपराध बन
जाता है। और आज... यह सब कुछ जो हो रहा है... पापा का जाना, घर में कलह, यह सारी मुसीबत...
यह हमारे प्यार के कारण ही हो रहा है।" पश्चाताप और ग्लानि का भारी बोझ उसकी आवाज़
को और भारी बना रहा था, उसे दबा रहा था, जैसे वह उस बोझ तले कुचली जा रही हो।
"और अपने इस अपराध की तो सजा मुझे भोगनी ही होगी... मुझे इसकी कीमत चुकानी ही
होगी... मेरे पास... मेरे पास जान देने के अलावा रास्ता ही क्या है।"
सूर्य अब क्षितिज से थोड़ा और
ऊपर उठ आया था, उसकी लालिमा और प्रखर हो गई थी, दुनिया जागने लगी थी, जीवन की सामान्य
हलचल शुरू हो गई थी। पार्क में पक्षियों का चहचहाना और तेज़ हो गया था, बच्चे शायद खेलने
आने वाले थे, लेकिन उन दोनों के लिए जैसे दुनिया ठहर सी गई थी, उनके दुख के आगे सब
फीका, सब बेमानी था।
"नहीं," धैर्य ने
दृढ़ता से कहा, उसकी आवाज़ में कोई संदेह नहीं था, वह अपनी बात पर अडिग था, "ये
कोई रास्ता नहीं था, अक्षरा। ये तो सबसे गलत रास्ता था। ये कोई समाधान नहीं था। इससे
तो तुम अपने परिवार को और अधिक दुख देती, शर्मिंदगी देती, कलंकित करती। तुम्हारे जाने
के बाद लोग तरह-तरह की बातें बनाते, गॉसिप करते। उनकी तकलीफ कम होने के बजाय और बढ़
जाती। शायद वे तुम्हें... तुम्हें कभी माफ़ भी न कर पाते। खैर, छोड़ो इन बातों को। अब
इन बातों का कोई फायदा नहीं। जो हुआ सो हुआ। चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं। वे
जब तुम्हें घर पर नहीं पाएंगे तो और अधिक दुखी और परेशान हो जाएंगे।"
अक्षरा ने तुरंत, ज़ोर से सिर
हिलाया, उसकी आँखों में फिर से आँसू छलक आए, जैसे कोई बाँध टूट गया हो, जो उसने इतनी
देर से रोक रखा था। "नहीं धैर्य, मैं घर नहीं जाऊंगी। बिल्कुल नहीं। अब मैं उस
घर में नहीं जाऊंगी। जब तक मेरे पापा सही सलामत वापस नहीं लौट आते, जब तक सब ठीक नहीं
हो जाता, तब तक तो बिल्कुल नहीं।" उसने फिर से रोना शुरू कर दिया, उसकी सिसकियाँ
सुबह की शांति को भंग कर रही थीं, हवा में घुल गईं, एक दर्दनाक धुन बन गईं।
"ठीक है, ठीक है,"
धैर्य ने उसे शांत करने की कोशिश की, उसके कंधों पर हाथ रखकर, उसे हल्के से सहलाते
हुए, "रो मत। मैं तुम्हारे साथ हूँ। किन्तु... किन्तु घर फोन तो कर दो। एक बार
बात कर लो। ताकि तुम्हारे घर वाले परेशान न हों। उन्हें बता दो कि तुम सुरक्षित हो।
उन्हें तुम्हारी... तुम्हारी बहुत चिंता होगी।"
"नहीं धैर्य," अक्षरा
ने लगभग चीखते हुए, गुस्से में कहा, उसकी आवाज़ भावनाओं से भरी हुई थी, वह अपनी भावनाएं
नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, "अभी मैं फोन भी नहीं करूंगी! किसी को फोन नहीं
करूंगी! मुझे अकेला छोड़ दो! प्लीज़! तुम ज्यादा करोगे तो मैं अभी यहीं से उठकर चली जाऊंगी
और फिर तुम्हें कभी नहीं मिलूंगी! मैं कसम खाती हूँ!" उसने झटके से अपना फोन निकाला
और उसे स्विच ऑफ कर दिया, जैसे वो दुनिया से सारे संपर्क, सारे बंधन, सारे रिश्ते तोड़
देना चाहती हो।
धैर्य ने गहरी सांस ली, निराशा
और हताशा उसके चेहरे पर आ गई। वह समझ गया था कि इस समय अक्षरा से बहस करना बेकार है।
"ये तुम अच्छा नहीं कर रही हो अक्षरा। तुम्हारा परिवार पहले से ही बड़ी मुसीबत
में है... पापा का पता नहीं है... घर में झगड़ा हो रहा है... और तुम भी... तुम भी इस
तरह करके उनकी मुसीबत बढ़ा रही हो। सोचो माँ पर क्या बीत रही होगी।"
"प्लीज़ धैर्य," अक्षरा
की आवाज़ में अब थकान, हताशा और समर्पण था, वह टूट चुकी थी, "अभी तुम मुझसे कुछ
मत कहो। मुझे कुछ समय के लिये... बस कुछ समय के लिये तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।
मेरे दिमाग में कुछ नहीं चल रहा। फिर जैसा तुम कहोगे वैसा ही करूंगी। मुझे बस... बस
थोड़ा वक्त चाहिए।"
धैर्य अक्षरा की मनोदशा को,
भीतर के तूफान को समझ रहा था। वह जानता था कि इस समय उस पर किसी भी तरह का दबाव डालना,
उसे ज़बरदस्ती घर भेजना या उससे बात मनवाना ठीक नहीं होगा। उसे कुछ स्पेस, कुछ समय चाहिए
था। उसने एक पल सोचा, फिर हल्के से मुस्कुराने की कोशिश की, उसे ढाढ़स देने के लिए।
"आओ," उसने स्नेह से, कोमल आवाज़ में कहा, "कहीं चलकर चाय पीते हैं।
शायद कोई छोटी टी शॉप खुल गई हो। सुबह की गर्म चाय शायद तुम्हें थोड़ा बेहतर महसूस कराएगी,
थोड़ी गर्मी देगी, थोड़ी ताकत देगी।"
अक्षरा ने कुछ नहीं कहा, उसकी आँखें अभी भी नम थीं, चेहरा उदास और थका
हुआ था, जैसे उस पर दुनिया भर का बोझ हो, लेकिन उसने विरोध नहीं किया। उसे शायद सहारे
की ज़रूरत थी, और धैर्य का साथ उसे वह सहारा दे रहा था। उसने चुपचाप, बिना किसी भाव
के, जैसे कठपुतली हो, धैर्य के साथ बेंच से उठी और उसके साथ चल दी। सुबह की धुंध अभी
भी हल्की-हल्की छाई हुई थी, और दो साये उस धुंध में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, एक अनिश्चित,
अज्ञात भविष्य की ओर, जहाँ उनके प्यार का क्या होगा, उनके परिवार का क्या होगा, और
खुद उनका क्या होगा, कोई नहीं जानता था।
***
सुबह का सूरज अभी पूरी तरह से
क्षितिज से ऊपर उठा भी नहीं था, उसकी पहली गुलाबी और सुनहरी किरणें अभी धरती पर पूरी
तरह फैली भी नहीं थीं, कि सेठ ध्यानचंद के बंगले में एक भयानक कोहराम मचा हुआ था। रात
की कलह और सुबह अक्षरा के कमरे का खाली मिलना, सावित्री देवी के मन में सबसे भयानक
और दिल दहला देने वाली आशंका को सच साबित कर गया था – कहीं उनकी लाडली बेटी ने खुद
को कोई हानि न पहुँचा ली हो। इसी भयानक डर ने उनके विवेक पर पर्दा डाल दिया था, उन्हें
अंधा कर दिया था, सोचने-समझने की शक्ति छीन ली थी।
इस असहनीय दर्द, डर और क्रोध
का सारा गुस्सा, सारी पीड़ा, उनकी दोनों पुत्रवधुओं – बड़ी मंजरी और छोटी नेहा – पर फूट
पड़ा। उनकी आँखों में अँधेरा छा गया था, और वे अपने होश में नहीं थीं। "तुम दोनों
की वजह से! हाँ, तुम दोनों डायनों की वजह से मेरी बेटी घर छोड़कर चली गई! तुम दोनों
ने उसे मार डाला!" सावित्री देवी दहाड़ रही थीं, उनकी आवाज़ गुस्से और दुख से फट
रही थी, आँखें लाल थीं और गला रुंधा हुआ था, जैसे अभी सांस रुक जाएगी। मंजरी, जो स्वभाव
से शांत, सहनशील और गंभीर थी, सिर झुकाए, अपमानित सी खड़ी रही, उसकी आँखों से आँसू चुपचाप
बह रहे थे, वह कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी। नेहा, थोड़ी तेज-तर्रार, अन्याय के
प्रति आवाज़ उठाने वाली, कुछ कहने की कोशिश करती, अपनी बेगुनाही साबित करना चाहती,
"माँजी, आप गलत समझ रही हैं, हमने अक्षरा दीदी से कभी कुछ ऐसा नहीं कहा... हमने
उन्हें दुख नहीं पहुँचाया..." लेकिन सावित्री देवी सुनने को तैयार कहाँ थीं। उनका
क्रोध सातवें आसमान पर था। "चुप कर! एक शब्द भी मत कहना! झूठी कहीं की! तुम दोनों
ने मिलकर मेरे घर को नरक बना दिया है। मेरी बेटी को इतना सताया कि वह... कि वह यह कदम
उठाने पर मजबूर हो गई!" वह आगे बोल न सकीं, गला दुख और गुस्से से बुरी तरह भर
आया, आवाज़ बंद हो गई।
बहुत देर तक यह सिलसिला चलता
रहा। आरोपों की बौछार, शाप, और कड़वे वचन उन पर बरसते रहे। मंजरी और नेहा पत्थर की मूरत
बनी सब सुनती रहीं, उनके दिलों में अपनी ननद के लिए चिंता तो थी, पर सास के कटु वचन
उन्हें और भी घायल कर रहे थे, उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा रहे थे। अंततः, जब आरोपों
की बौछार असहनीय हो गई, जब वे और अपमान नहीं सह सकीं, तो दोनों बहुएँ चुपचाप, अपमानित
सी अपने-अपने कमरों में चली गईं और अंदर से द्वार बंद कर लिए, अपनी दुनिया में सिमट
गईं। उनके दिलों में भी अपनी ननद के लिए चिंता थी, पर सास के कटु वचन और उन पर लगाए
गए झूठे आरोप उन्हें और भी घायल कर रहे थे, उन्हें उस घर में अजनबी जैसा महसूस करा
रहे थे।
सावित्री देवी कुछ देर तक अक्षरा
के खाली कमरे के बाहर खड़ी अकेली ही बड़बड़ाती रहीं, अपनी बहुओं को कोसती रहीं, उन्हें
श्राप देती रहीं, अपने दुख और गुस्से को शब्दों में निकालती रहीं। फिर थक-हारकर, शक्तिहीन
होकर वह भी अपने कमरे में चली गईं। बिस्तर पर लेटते ही अक्षरा का हँसता-मुस्कुराता
चेहरा, उसकी प्यारी बातें, उसकी शरारतें आँखों के सामने घूमने लगीं। उन्हें चैन कहाँ
था? उनकी आत्मा बेचैन थी। अपनी बेटी के अनिष्ट की भयानक आशंका उन्हें कांटे की तरह,
हर पल, हर क्षण चुभ रही थी। उन्हें अब अपने बेटों पर भी पूरा भरोसा नहीं रहा था। उन्हें
लगता था कि उनके बेटे भी अपनी पत्नियों के प्रभाव में आकर बदल गए हैं, शायद वे अक्षरा
को ढूंढने में उतनी गंभीरता नहीं दिखाएंगे, उतनी कोशिश नहीं करेंगे जितनी दिखानी चाहिए,
जितनी माँ चाहती है।
"नहीं, मैं किसी पर भरोसा
नहीं कर सकती," उन्होंने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया, उनकी आवाज़ भीतर ही भीतर गूँजी।
"मुझे खुद ही... मुझे खुद ही अपनी लाडली को तलाशना होगा। अपने हाथों से उसे ढूंढकर
वापस लाना होगा। मेरे बेटे तो अपनी बीवियों की सुनेंगे, उनके वश में हैं, क्या पता
ठीक से खोजें भी या नहीं, कोशिश भी करें या नहीं। हाँ, हाँ, मैं खुद... मैं खुद अपनी
बेटी को ढूंढकर लाऊंगी। मैं माँ हूँ उसकी।" यह दृढ़ संकल्प उनके मुरझाए, चिंताग्रस्त
चेहरे पर एक अजीब सी कठोरता और दृढ़ता ले आया, जिसने उनके दुख को ढक लिया। बिना किसी
को कुछ बताए, बिना कुछ सोचे-समझे, क्या होगा, कहाँ जाएँगी, इस बात की परवाह किए बिना,
वह चप्पल पहनकर पैदल ही घर से निकल पड़ीं, जैसे किसी अज्ञात यात्रा पर निकल गई हों।
उन्हें नहीं मालूम था कि अक्षरा कहाँ जा सकती है, किस दिशा में गई होगी, किस जगह उसे
ढूंढना है। बस, एक अंधी धुन में, बेटी को ढूंढने की लगन में वह चलती गईं, जिधर पैर
ले जाते रहे, जिस दिशा में उम्मीद की हल्की सी किरण दिखी, उधर ही बढ़ती गईं।
लगभग आधा घंटा अनजान, सुनसान,
धूल भरी सड़कों पर भटकने के बाद वह बुरी तरह थक चुकी थीं, उनका शरीर जवाब देने लगा था।
पिछली रात बेटी की चिंता में उन्होंने कुछ खाया भी नहीं था और न ही एक पल के लिए सो
पाई थीं। अब कमजोरी उन पर हावी हो रही थी, जैसे शरीर में जान ही न बची हो। सिर चकराने
लगा, पैर लड़खड़ाने लगे, आँखें धुंधली हो गईं। "कहीं बैठकर थोड़ा आराम कर लूँ,"
उन्होंने सोचा, उनकी आवाज़ काँप रही थी, और चारों ओर देखा। कुछ ही दूरी पर उन्हें एक
छोटा सा, पुराना सा देवी काली का मंदिर दिखाई दिया। एक आस जगी, एक उम्मीद की किरण दिखी।
शायद माँ काली ही उनकी मदद करें। वह धीरे-धीरे, लड़खड़ाते क़दमों से मंदिर की ओर बढ़ीं।
मंदिर का छोटा सा, पुराना द्वार खुला हुआ था, जैसे उनका इंतज़ार कर रहा
हो। अंदर सुबह की हल्की सी धूप आ रही थी और एक अजीब सी शांति पसरी थी, जो बाहरी दुनिया
के शोर और उनके मन के कोलाहल से परे थी। सावित्री देवी सीधे देवी काली की प्रतिमा के
सम्मुख गईं, उनकी शक्तिमयी छवि को देखकर उन्हें थोड़ी हिम्मत मिली, और उनके चरणों में
दण्डवत होकर गिर पड़ीं, जैसे कोई बच्चा अपनी माँ की गोद में गिरता है। उनकी आँखों से
अविरल अश्रुधारा बह रही थी, रुकने का नाम नहीं ले रही थी। कंठ अवरुद्ध था, शब्द नहीं
निकल रहे थे, बस एक मूक प्रार्थना थी, एक दर्द भरी पुकार, अपनी बेटी के लिए, उसके जीवन
के लिए। धीरे-धीरे उनके होंठों से एक गीत के बोल फूट पड़े, जैसे बरसों से दबा कोई दर्द,
कोई वेदना, कोई भावना बाहर आ रही हो:
"मुझे अपना बना ले ओ माई
शरण तेरी मैं आई ओ माई”
प्रार्थना करते-करते, गीत गाते-गाते वह कब ध्यानमग्न हो गईं, कब उनका मन बाहरी दुनिया
से कट गया और देवी में लीन हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला। उनका शरीर शिथिल पड़ गया,
जैसे उसमें कोई जान न हो। वह माता के सम्मुख आँखें बंद किये, लगभग अचेत, अर्ध-समाधि
की अवस्था में बैठ गईं। ऐसा लग रहा था मानो उनका सारा अस्तित्व, उनका सारा दुख, सारी
पीड़ा देवी काली की शक्ति में विलीन हो गया हो, जैसे वह देवी से एकाकार हो गई हों। बाहर
की दुनिया का कोलाहल, बेटी की चिंता, बहुओं पर क्रोध, पति का अपहरण, सब कुछ जैसे उस
क्षण के लिए थम सा गया था, शांत हो गया था।
***
(अध्याय चौदह)
शहर की तंग, धूल भरी सड़कों पर,
तेज़ धूप में, पसीने से तरबतर राघव और निखिल पिछले एक घंटे से अपनी बहन अक्षरा की तलाश
में अपनी गाड़ी में अनिश्चित दिशाओं में भटक रहे थे। सुबह का सूरज अब सिर पर चढ़ आया
था, अपनी पूरी तपिश दिखा रहा था, और उनकी चिंता हर गुज़रते पल के साथ बढ़ती जा रही थी,
जैसे धूप के साथ-साथ चिंता भी तेज़ हो रही हो। पिता के अपहरण की चिंता अभी कम नहीं हुई
थी कि अब बहन के अचानक चले जाने ने उन्हें तोड़ दिया था। उन्होंने शहर का कोना-कोना
छान मारा था – शांत पार्क, भीड़ भरे बस अड्डे, व्यस्त रेलवे स्टेशन, अक्षरा की सहेलियों
के घर, यहाँ तक कि आसपास के छोटे-बड़े मंदिरों में भी झाँक आए थे, जैसे वह हवा में गायब
हो गई हो। उसका मोबाइल फोन भी लगातार बंद आ रहा था, संपर्क का हर ज़रिया बंद था। निराशा
उनके चेहरों पर साफ झलक रही थी, उनकी आँखें थक गई थीं, उम्मीद धूमिल हो रही थी। गाड़ी
एक सुनसान, सुनसान सी सड़क के किनारे रुकी, जहाँ कोई आता-जाता नहीं था, जैसे उनकी किस्मत
भी उसी सड़क की तरह थम गई हो।
राघव, जो बड़ा भाई होने के नाते
खुद को इस पूरी स्थिति के लिए अधिक ज़िम्मेदार महसूस कर रहा था, उसने गहरी, थकी हुई
सांस भरी। उसका गला सूख रहा था, होठों पर पपड़ी जम गई थी। उसने निखिल की ओर देखा, उसकी
आँखों में बेबसी थी। "निखिल, देख," उसने कहा, उसकी आवाज़ में थकान, निराशा
और बेबसी घुली हुई थी, "हम ऐसे कब तक भटकते रहेंगे? अँधेरे में तीर चलाने से क्या
फायदा? मेरा विचार तो यह है कि हमें अब और देर नहीं करनी चाहिए और सब कुछ... हाँ सब
कुछ पुलिस को बता देना चाहिए। इंस्पेक्टर मिश्रा को। उनके पास संसाधन हैं, मैनपावर
है, नेटवर्क है। पुलिस की सहायता से हम शायद जल्दी अक्षरा को तलाश कर सकते हैं। अकेले
हम क्या कर लेंगे?"
निखिल ने भाई की बात पर सहमति
में धीरे से सिर हिलाया। वह भी अंदर से टूटा हुआ था, दिल में दर्द था, पर राघव के सामने
हिम्मत बनाए रखने की कोशिश कर रहा था, बड़े भाई को सहारा देने का प्रयास कर रहा था।
"आप ठीक कह रहे हैं भैया। हमें सीधे थाने चलना चाहिए। इंस्पेक्टर मिश्रा को बताना
बहुत ज़रूरी है। एक तो पापा की चिंता... ऊपर से अक्षरा... भगवान न करे, कहीं देर न हो
जाए और हमारी बहन... गुस्से या निराशा में कोई गलत कदम न उठा बैठे।" यह सोचते
ही उसका दिल कांप गया, एक भयानक आशंका ने उसे जकड़ लिया। उसने गाड़ी स्टार्ट की और थाने
की तरफ, एक नई उम्मीद की ओर मोड़ दी।
वे मुश्किल से आधा किलोमीटर
ही आगे बढ़े होंगे, मन में अनगिनत विचारों का तूफान चल रहा था, कि निखिल के मोबाइल फोन
की तेज़ घंटी बज उठी। एक अनजानी सी, और भयानक आशंका से उसका दिल ज़ोर से धड़क उठा, जैसे
कोई बुरी खबर इंतज़ार कर रही हो। उसने गाड़ी की गति धीमी की और जेब से फोन निकालकर स्क्रीन
देखी – नेहा, उसकी पत्नी का नाम चमक रहा था। उसने फोन उठाया, उसकी आवाज़ काँप रही थी।
"हाँ, नेहा... बोलो... सब ठीक तो है?"
दूसरी ओर से नेहा की घबराई हुई,
रोती हुई, लगभग चीखती हुई आवाज़ आई। "निखिल... निखिल, जल्दी घर आओ... प्लीज़...
माँजी... माँजी भी घर पर नहीं हैं!"
"क्या? माँजी घर पर नहीं
हैं? क्या मतलब? ये तुम क्या कह रही हो?" निखिल लगभग चीख पड़ा, उसकी आवाज़ ऊंची
हो गई, उसके हाथ-पैर काँपने लगे। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
नेहा सिसकते हुए, हिचकियों के
बीच बोली, "हाँ... मैं जब कमरे से बाहर निकली... तो देखा माँजी कहीं नहीं हैं।
मैंने पूरे घर में देखा... हर जगह... छत पर, आँगन में, पूजा घर में, स्टोर रूम में...
कहीं नहीं। पड़ोस में भी पूछा... किसी ने उन्हें नहीं देखा। सुबह से ही वह अक्षरा दीदी
की वजह से बहुत गुस्से में थीं... हम पर... हम सबको कितना भला-बुरा कह रही थीं। मुझे
डर लग रहा है... कहीं माँजी ने गुस्से में आकर... दुख में... कोई गलत कदम न उठा लिया
हो। तुम... तुम जल्दी घर आकर माँजी को तलाश करो, प्लीज़! मुझे बहुत डर लग रहा है!"
निखिल के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए,
जैसे उनमें खून जम गया हो। एक मुसीबत कम थी कि दूसरी पहाड़ बनकर, विशाल रूप धारण करके
टूट पड़ी। पिता का अपहरण, बहन का जाना, और अब माँ का गायब होना। उसने अपने भाई राघव
को सारी बात बताई, उसकी आवाज़ काँप रही थी, शब्दों काँप रहे थे, "भैया... भैया,
गजब हो गया! माँ भी... माँ भी गुस्से में घर से निकल गई हैं। नेहा बता रही है कि वह
बहुत दुखी और गुस्से में थीं... हम पर नाराज़ थीं... भैया, कहीं... कहीं कोई उल्टा-सीधा
कदम न उठा लें। उनकी तबियत भी ठीक नहीं थी।"
राघव का दिल तो जैसे बैठ ही
गया, सीने में दर्द होने लगा। पहले पिता, फिर बहन की चिंता, अब माँ की! एक साथ इतनी
मुसीबतें! उसे लगा जैसे उसका सिर फटा जा रहा है, दिमाग सुन्न हो गया था, सोचने की शक्ति
खो गई थी। वह सदमे में आ गया, सकते में आ गया, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा,
दुनिया घूमने लगी। काँपती आवाज़ में वह बोला, उसका स्वर दुख, पीड़ा और अविश्वास से भरा
था, "निखिल... हमने... हमने किसी का क्या बिगाड़ा है? हमने तो हमेशा सबका भला चाहा।
फिर यह सब कुछ हमारे साथ क्यों हो रहा है? एक के बाद एक मुसीबतें... रुकने का नाम ही
नहीं ले रही हैं। पता नहीं भगवान हमसे किस बात का बदला ले रहा है... किस जन्म का पाप
है ये।" उसकी आँखों से आँसू बह निकले, दुख को रोक नहीं पाया।
निखिल, जो स्वभाव से थोड़ा अधिक
दृढ़ और व्यावहारिक था, अपने बड़े भाई की यह हालत देखकर खुद को सँभालने की कोशिश करने
लगा, उसे सहारा देने का प्रयास करने लगा। उसने राघव के कंधे पर हाथ रखा, उसे हल्के
से दबाया, "भैया, हिम्मत रखिए। ऐसे समय में टूटना नहीं है। हमने कोई पाप नहीं
किया है। अवश्य ही भगवान हमारी परीक्षा ले रहा है। और कहते हैं, भगवान उन्हीं की परीक्षा
लेते हैं जो इस योग्य होते हैं, जो सहन कर सकते हैं, जो मज़बूत होते हैं। आप चिंता मत
करिए, सब कुछ ठीक हो जाएगा। हमें हिम्मत नहीं हारनी है। हमें मिलकर इन मुसीबतों का
सामना करना होगा।"
राघव ने निराशा से सिर हिलाया,
उसकी आँखों में कोई उम्मीद नहीं थी। "अब लगता नहीं, निखिल, कि कुछ ठीक होगा। सब
बिखर रहा है। हमारा घर... हमारा परिवार... सब टूट रहा है।" फिर एक लंबी सांस खींचकर,
अपनी सारी शक्ति जुटाकर खुद को थोड़ा संयत करते हुए बोला, "फिर भी, हाथ पर हाथ
धरे तो नहीं बैठ सकते। हमें कुछ तो करना होगा। तू ऐसा कर, गाड़ी घर ले जा और जल्दी से
घर पहुँच। देख माँ कहाँ गई होंगी, आसपास तलाश कर। पूछ-ताछ कर। मैं यहीं उतरकर थाने
जाता हूँ और इंस्पेक्टर मिश्रा को सारी बात बताता हूँ – पापा के बारे में, अक्षरा के
बारे में, और अब माँ के बारे में भी। और उनकी तलाश के लिए कहता हूँ। एक साथ दोहरी मुसीबत
है... नहीं, अब तो तिहरी मुसीबत है। हमें बंटकर काम करना होगा।"
"ठीक है भैया, जैसा आप कहें। यही सही रहेगा।" निखिल ने कहा
और गाड़ी की रफ्तार थोड़ी बढ़ा दी, मन में अनगिनत आशंकाएं, भय और प्रार्थनाएं एक साथ
चल रही थीं, जैसे किसी अनजाने युद्ध में जा रहा हो। उसने राघव को थाने के गेट के पास
उतारा, और गाड़ी घर की ओर मोड़ दी, जहाँ एक और चिंता, उसका इंतज़ार कर रही थी।
***
घर के अंदर का माहौल किसी मातम
से कम न था। हवा में शोक, दुख और चिंता का भारीपन घुला हुआ था। निखिल जब शहर की धूल
फाँकता, पसीने से तरबतर, अपनी बहन और माँ की चिंता में डूबा हुआ घर पहुँचा, तो मुख्य
दरवाज़ा खुला पाया। अंदर कदम रखते ही उसे दबी हुई सिसकियों, रोने की आवाज़ सुनाई दी।
एक और अनहोनी की आशंका से उसका दिल काँप गया। वह तेज़ी से उस ओर बढ़ा। दरवाज़े पर पहुँचते
ही उसने देखा, उसकी पत्नी नेहा और भाभी मंजरी
एक दूसरे से सटकर, जैसे कोई सहारा ढूंढ रही हों, बैठी थीं, दोनों की आँखों से
अविरल आंसू बह रहे थे, जो उनके चेहरों पर लकीरें बना रहे थे, उनके चेहरे मुरझाए हुए,
उदास और थके हुए थे। निखिल को देखते ही वे दोनों सकपका कर खड़ी हो गईं, जैसे किसी ने
उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया हो, उनके चेहरों पर डर और अपराधबोध का मिला-जुला भाव था,
हालाँकि वे जानती थीं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है।
निखिल के सब्र का बांध टूट चुका
था। पिता का अपहरण, बहन का अचानक, बिना बताए चले जाना, और अब माँ का भी गायब हो जाना
– इन सबने उसे अंदर तक झकझोर दिया था, उसकी आत्मा को छलनी कर दिया था। उसकी आवाज़ में
कठोरता, निराशा और पीड़ा थी। "क्या हुआ? ये सब क्या हो रहा है? माँ कहाँ हैं? कैसे
चली गईं? और जब वह जा रही थीं, तब तुम दोनों कहाँ थीं? क्या कर रही थीं?" उसने
एक सांस में कई सवाल, आरोपों की तरह दाग दिए।
नेहा ने अपनी साड़ी के पल्लू
से आँखें पोंछीं, उसकी आवाज़ काँप रही थी, भीगी हुई थी। "निखिल, सच कहते हैं, हमने
आज माँजी से कुछ भी... कुछ भी नहीं कहा। वह सुबह आपके सामने ही हमें कितना बुरा-भला
कह रही थीं, कितना गुस्सा कर रही थीं, आपने खुद देखा। और आप दोनों भाइयों के जाने के
बाद भी, कुछ देर तक वह अक्षरा के कमरे के बाहर खड़ी हम पर ही झूठे-सच्चे आरोप लगाती
रहीं, कोसती रहीं। लेकिन हमने एक शब्द भी नहीं कहा, पलटकर जवाब नहीं दिया, चुपचाप सब
सुनती रहीं। हम दोनों तो इसलिए अपने-अपने कमरे में चली गई थीं ताकि जब हम माँजी को
दिखाई नहीं देंगे, तो शायद उनका गुस्सा कुछ शांत हो जाएगा, उन्हें अकेलापन महसूस होगा।"
मंजरी ने बात को आगे बढ़ाया,
उसकी आवाज़ में भी दुख और बेबसी थी, "हाँ निखिल, थोड़ी देर बाद वह भी अपने कमरे
में चली गई थीं। सुबह से उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था, उनकी तबियत भी ठीक नहीं लग
रही थी, इसलिए मैं थोड़ी देर बाद उनके कमरे में चाय के लिए पूछने गई थी, सोचा था शायद
तब तक उनका मन थोड़ा हल्का हो गया हो। किन्तु माँजी कमरे में नहीं थीं। हमने पूरे घर
में देखा, हर कोने में, आवाज़ें दीं, पर कोई जवाब नहीं मिला। घबराकर हम दोनों बाहर देखने
गईं, तो पड़ोसियों ने बताया कि माँजी तो कुछ देर पहले अकेली ही पैदल सड़क की ओर जा रही
थीं, बहुत परेशान और गुस्से में लग रही थीं।"
अपनी पत्नी और भाभी की बात सुनकर
निखिल का चेहरा गुस्से से तमतमा गया, लाल हो गया। उसकी नसें तन गईं। उसे लगा जैसे उसे
धोखा दिया गया हो। वह चीख पड़ा, उसकी आवाज़ घर में गूँज गई, "अच्छा! तो पड़ोसियों
को तो हमारी माँ का पता है कि वह कहीं पैदल जा रही थीं, उन्हें उनकी चिंता हुई! लेकिन
तुम्हें, जो घर में मौजूद थीं, तुम्हें हमारी माँ का पता नहीं! क्या कर रही थीं तुम
दोनों? पहले तुमने हमारी बहन अक्षरा को घर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया, उसे इतना तंग
किया, इतना दुख पहुँचाया कि वह चली गई, और अब हमारी माँ को भी! तुम दोनों ने मिलकर
मेरा... मेरा हँसता-खेलता घर बर्बाद कर दिया!"
मंजरी, जो आमतौर पर शांत और
गंभीर रहती थी, इस झूठे और अन्यायपूर्ण आरोप को सहन न कर सकी। उसका आत्म-सम्मान जाग
उठा। उसने भरे गले से, रोते हुए विरोध करते हुए कहा, "इसमें हम दोनों का कुछ भी
दोष नहीं है निखिल भैया। हमने कुछ नहीं किया है। आप हम पर नाहक ही दोष लगा रहे हैं।
हम भी माँजी और अक्षरा के लिए उतने ही परेशान हैं, जितने आप सब।"
"मैं आपसे बात नहीं कर
रहा भाभी," निखिल ने मंजरी की बात को काटते हुए, उसकी आवाज़ को दबाते हुए कहा,
उसका सारा गुस्सा, सारी निराशा अब नेहा पर केंद्रित हो गया था, जो उसके सबसे करीब थी।
"मैं नेहा से बात कर रहा हूँ। सारा हमारा दोष है! हमारे देवता समान पिता की कोई
खोज-खबर नहीं, न जाने कहाँ हैं, किस हाल में हैं। हमारी छोटी बहन के साथ क्या अनहोनी
हुई, भगवान जाने। और ऊपर से हमारी माँ, हमारी प्यारी माँ... उसको भी न सम्हाल सकी तुम!
क्या इसीलिए ब्याह कर लाया था तुम्हें? क्या इसीलिए इस घर की ज़िम्मेदारी दी थी?"
निखिल की आँखों से गर्म, कड़वे आँसू टपक रहे थे, उसकी आवाज़ में पीड़ा, क्रोध और अविश्वास
का उबाल था।
नेहा अब तक चुपचाप, अपमानित
सी सुन रही थी, अपने पति के कटु वचन सह रही थी, पर अब उसके भी सब्र का बांध टूट गया।
उसके आत्म-सम्मान को गहरी चोट पहुँची थी। "निखिल, वह तुम्हारी माँ हैं तो हमारी
भी कुछ लगती हैं! सास हैं हमारी! हमने भी अपनी सगी माँ से अधिक उनका सम्मान किया है,
उनकी हर जायज़-नाजायज़ बात मानी है, उनकी सेवा की है। और तुम भी हमें ही कह रहे हो, हम
पर ही इल्ज़ाम लगा रहे हो, जबकि माँजी पिछले तीन दिन से हमें रोजाना बिना बात के गाली-गलौज
कर रही हैं, कोस रही हैं! क्या हमारा कोई मान-सम्मान नहीं? क्या हम इस घर में कोई नहीं?"
नेहा की आवाज़ भी विरोधस्वरूप कुछ ऊँची हो गई थी, उसमें दर्द और गुस्सा था।
"अच्छा! तो फिर मेरी माँ
ही घर छोड़कर क्यों गईं? अगर तुम इतनी ही सही हो, इतनी ही अच्छी हो, तो तुम क्यों न
चली गईं? तुम्हें चले जाना चाहिए था!" निखिल गुस्से से बेकाबू होकर चिल्लाया,
उसके शब्दों में जहर घुला हुआ था, जो रिश्तों को जला रहा था।
नेहा के लिए यह सुनना असहनीय
था। उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गए, जैसे किसी ने नुकीले काँच से उसका दिल चीर दिया
हो। रोते हुए उसने कहा, "ठीक है! जब तुम यही चाहते हो कि मैं चली जाऊं, जब इस
घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं, कोई इज़्ज़त नहीं, तो मैं भी जा रही हूँ। मुझे ऐसे घर
में नहीं रहना।"
"हाँ, हाँ! जिसे जहाँ जाना
है जाओ!" निखिल ने भी उसी तरह क्रोध में, बिना सोचे-समझे चिल्लाकर कहा।
"जब मेरी माँ और बहन के लिए ही इस घर में जगह नहीं, जब वही यहाँ सुरक्षित नहीं,
तो जिसको जहाँ जाना है जाए! मुझे किसी की परवाह नहीं! जाओ तुम सब!" यह कहकर वह
गुस्से में पैर पटकता हुआ, अपनी माँ की तलाश में, और शायद अपनी पीड़ा से भागता हुआ,
घर से बाहर निकल गया।
उसके जाने के बाद कमरे में एक
भारी, सन्नाटे भरी चुप्पी छा गई, केवल नेहा की सिसकियों की आवाज़ आ रही थी। नेहा ने
अपनी जेठानी मंजरी की ओर देखा, उसकी आँखों में गहरी पीड़ा, अपमान और अकेलापन था।
"देखा दीदी? हमारी ये इज़्ज़त है इस घर में। हमारी सारी सेवा, सारा प्यार व्यर्थ
गया। हर बात के लिए हम ही दोषी। अब मैं एक पल भी इस घर में नहीं रहूँगी। मुझे यहाँ
दम घुट रहा है।" यह कहकर वह दृढ़ कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी, जैसे उसने
कोई फैसला कर लिया हो।
मंजरी ने उसे आवाज़ दी,
"रुक नेहा! अकेली कहाँ जा रही हो? मैं भी अब यहाँ एक पल भी रुकना नहीं चाहती।
अपमान तो मेरा भी कम नहीं हुआ है। बिना कुछ गलत किए ही सारे आरोप हम सुनते रहे, हर
किसी की बातें सहीं, तब भी हमारा ही दोष बताया गया! अब और नहीं सहा जाता। इस घर में
अब हम नहीं रह सकते।"
दोनों बहुएँ अपने-अपने कमरों में गईं। कुछ ही क्षण बाद, दोनों अपने
हाथों में एक-एक छोटा सा बैग लिए बाहर आईं, जिनमें शायद कुछ ज़रूरी कपड़े थे। उनकी आँखों
में आँसू थे, पर चेहरों पर एक कठोर निश्चय और टूटे हुए दिल की कहानी थी। उन्होंने एक
आखिरी बार उस घर को देखा, जो कभी उनका था, जहाँ उन्होंने अपने सपने संजोए थे, और फिर
चुपचाप, बिना कोई आवाज़ किए, घर से बाहर निकल गईं, एक अनिश्चित भविष्य की ओर, जहाँ उन्हें
नहीं पता था कि क्या होगा, कहाँ जाएँगी। घर, जो कभी सेठ ध्यानचंद की मेहनत और परिवार
के प्यार से हंसी-खुशी से गुलजार रहता था, अब पूरी तरह वीरान, खामोश और टूटा हुआ रह
गया था।
***
दोपहर की तपती, झुलसा देने वाली
धूप में सेठ ध्यानचंद का बंगला किसी भुतहा हवेली सा लग रहा था। बाहरी चकाचौंध और भव्यता
के पीछे एक अजीब सी, भयावह खामोशी पसरी थी।
जिस घर में हर समय बच्चों की खिलखिलाहट, बड़ों की बातचीत और परिवार के सदस्यों
की चहल-पहल, ऊर्जा और जीवन रहता था, वहाँ अब एक अजीब सी, दमघोंटू, डरावनी खामोशी पसरी
हुई थी। पूरी तरह निर्जनता का वास था, जैसे समय थम गया हो, या जैसे कोई श्राप इस घर
पर आ गया हो।
लेकिन सेठ ध्यानचंद अभी भी घर
पर ही थे, उसी वैभव के बीच, उसी डरावनी खामोशी में। बस फर्क इतना था कि देवदूत के वरदान
के कारण, वह अदृश्य थे। कोई उन्हें देख नहीं सकता था, छू नहीं सकता था, पर वह सब कुछ
देख और सुन सकते थे, इस नाटक के मूक दर्शक बने हुए थे। पिछली रात से उनके घर में जो
तूफ़ान आया था, जो भयावह घटनाएँ एक के बाद एक घट रही थीं, जिसने उनके परिवार को बिखेर
दिया था, उनके वह स्वयं साक्षी थे। बेबस, लाचार, शक्तिहीन, वह सब कुछ अपनी आँखों से
देख रहे थे, बिना कुछ कर पाने की पीड़ा उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही थी, जैसे कोई
अदृश्य आग उन्हें जला रही हो।
उनकी पत्नी सावित्री, जो हमेशा
से एक संस्कारवान, धर्मपरायण और शांत स्वभाव की महिला थीं, जिनकी ममता और स्नेह की
उन्होंने हमेशा सराहना की थी, आज उनका आचरण पूरी तरह बदल गया था, जैसे वह कोई और ही
इंसान हों। बेटी अक्षरा के घर छोड़ने के सदमे, दुख और डर ने उन्हें जैसे तोड़कर रख दिया
था, उनके होश छीन लिए थे। ध्यानचंद ने अपनी आँखों से देखा कि कैसे उनकी पत्नी ने अपनी
ही बहुओं, मंजरी और नेहा पर, झूठे, बेबुनियाद और दिल दुखाने वाले आरोप लगाए। उन्होंने
अपनी प्यारी बेटी अक्षरा को घबराहट, निराशा और शायद अपमान में घर छोड़कर जाते देखा,
उसके आँसू देखे। उन्होंने अपने बेटों, राघव और निखिल को, अपनी पत्नियों पर चीखते-चिल्लाते,
उन्हें दोषी ठहराते देखा, परिवार की नींव हिलाते देखा। और फिर, अपमान और दुख से भरी
अपनी दोनों बहुओं को भी, जिनसे उन्हें बहुत उम्मीदें थीं, घर छोड़कर जाते देखा। उनका
घर उनकी आँखों के सामने बिखर गया था।
जो कुछ वह देख रहे थे, उस पर
उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। क्या यह वही परिवार था जिसे उन्होंने इतने प्यार, मेहनत
और आदर्शों से सींचा था? क्या यह वही लोग थे जो एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे, एक-दूसरे
के बिना रह नहीं सकते थे? और यह सब कुछ हो रहा था – धन के लालच में, धन की वजह से पैदा
हुई गलतफहमियों, असुरक्षाओं और शक के कारण। सेठ अधिराज से अधिक अमीर बनने की उनकी अपनी
महत्वाकांक्षा ने ही जैसे इस विनाश की नींव रखी थी, इस तूफान को बुलाया था। उन्हें
अपनी गलती का एहसास हो रहा था।
अब वह और सहन नहीं कर सकते थे।
उनका दिल फट रहा था, आत्मा कराह रही थी। उन्होंने पूरी शिद्दत से, अपनी सारी आत्मिक
शक्ति, सारी बची हुई ऊर्जा लगाकर देवदूत को पुकारना शुरू कर दिया, जैसे कोई डूबता हुआ
इंसान किनारे को पुकारता है। "देवदूत! हे देवदूत! कहाँ हो तुम? मेरी मदद करो!
प्लीज़ मेरी मदद करो!"
पलक झपकते ही, एक मंद, स्वर्णिम
प्रकाश के साथ, देवदूत अपनी चिर-परिचित, शांत और रहस्यमयी मुस्कान के साथ उनके सामने
प्रकट हुए, जैसे वह हमेशा से वहीं थे।
"कहिये सेठ ध्यानचंद,"
देवदूत की आवाज़ शांत, गहरी और गंभीर थी, जैसे किसी अथाह ज्ञान के सागर से आ रही हो।
"कैसे याद किया? क्या कष्ट है आपको?"
"मैं बहुत कुछ देख चुका
हूँ देवदूत," ध्यानचंद की आवाज़ में गहरी पीड़ा, थकान और हताशा थी। "अब और
अधिक मैं सहन नहीं कर पाऊँगा। मेरा परिवार... मेरा परिवार मेरी आँखों के सामने बिखर
रहा है। यह सब मेरी वजह से हुआ। कृपया मेरे परिवार को बचा लो। इसे फिर से जोड़ दो।"
देवदूत ने ध्यानचंद को ध्यान
से देखा, उनकी आँखों में करुणा थी। "रुको ध्यानचंद, और अच्छी तरह सोच-समझकर अपनी
माँग रखो। तुमने कठिन तपस्या की थी, और मैंने तुम्हें वचन दिया था कि तुम्हारी तपस्या
के बदले तुम्हारी एक इच्छा पूरी की जाएगी। अब बताओ, ये बताओ कि तुम अभी भी सेठ अधिराज
से अधिक सम्पत्ति, अधिक धन चाहते हो या कुछ और माँगना चाहते हो? तुम्हारी एक इच्छा
पूरी की जाएगी।"
ध्यानचंद ने एक गहरी सांस ली,
उनकी आँखों में बीती रात की घटनाओं का दर्द था। "मैंने संसार का वास्तविक रूप
देख लिया है देवदूत। मैंने धन का असली चेहरा देख लिया है। धन... यह धन ही सारी मुसीबतों
की जड़ है। इसी धन के कारण ही मेरा सारा परिवार उजड़ गया, मेरे अपने ही मुझसे दूर हो
गए। इसी धन के कारण सेठ अधिराज को इतना घमंड है और इसी धन के लालच में मेरे बेटे, मेरी
बहुएँ और यहाँ तक कि मेरी पत्नी भी अपने सारे संस्कार, सारी इंसानियत, सारा प्यार भूल
गईं। नहीं! मुझे धन तो बिल्कुल भी नहीं चाहिये। सारे फसाद की जड़ यह धन ही है।"
"नहीं ध्यानचंद,"
देवदूत ने नरमी से, समझाते हुए कहा। "तुम फिर गलत समझ रहे हो। धन अपने आप में
बुरा नहीं है। धन तो एक साधन मात्र है। सहज, सुखी और आरामदायक जीवन के लिए आवश्यक सारे
साधन धन से ही मिलते हैं, इसलिए धन तो संसार में प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए ही, यह
जीवन की एक आवश्यकता है। किन्तु धन प्राप्त करने के लिए कोई भी गलत तरीका नहीं अपनाना
चाहिए, और न ही धन का गलत इस्तेमाल करना चाहिए। तुम जो तपस्या कर रहे थे, वह भी एक
तरह से गलत ही थी, क्योंकि उसका एकमात्र उद्देश्य सिर्फ भौतिक सम्पत्ति पाना था, भौतिक
इच्छाओं की पूर्ति करना था, आध्यात्मिक उन्नति नहीं। इसीलिए ही मैंने तुम्हें संसार
की यह वास्तविकता दिखाना चाहा था, धन का प्रभाव दिखाना चाहा था।" देवदूत रुके,
ध्यानचंद की आँखों में देखते रहे, फिर बोले, "यदि तुम धन नहीं चाहते, तुम्हारी
धन की इच्छा समाप्त हो गई है, तो माँगो, क्या माँगना चाहते हो। तुम्हारी एक इच्छा पूरी
की जाएगी।"
ध्यानचंद ने कुछ पल सोचा। उनकी
आँखों में एक नई समझ, शांति और ज्ञान झलक रहा था। धन की चमक फीकी पड़ गई थी। "तब
आप... तब आप मेरे परिवार को पहले की तरह... हाँ, पहले की तरह एक आदर्श परिवार बना दीजिये।
जैसा वह था, खुशहाल, एक-दूसरे से प्यार करने वाला, एक-दूसरे का सम्मान करने वाला। बस
मुझे और कुछ नहीं चाहिये।"
देवदूत मुस्कुराए। उनकी मुस्कान
में सब कुछ समझने का भाव था। "सेठ ध्यानचंद, तुम्हारा परिवार एक आदर्श परिवार
था और अभी भी है। तुमने पिछले कुछ दिनों में हर एक घटना को देखा है, उसके साक्षी रहे
हो। क्या तुमने नहीं देखा? तुम्हारे परिवार के किसी भी प्राणी ने ऐसा कोई जानबूझकर
गलत कार्य नहीं किया जो अनुचित कहा जाए, जो इंसानियत के खिलाफ हो। तुम्हारी पत्नी सावित्री,
अपनी सारी संपत्ति लुटाकर भी तुम्हें वापस लाना चाहती थी, वह अपहरणकर्ताओं की हर मांग
मानने को तैयार थी, उसके लिए तुम्हारी जान धन से बढ़कर थी। तुम्हारे बेटे भी तन-मन-धन
से तुम्हारी खोज में लगे हुए थे और किसी भी कीमत पर तुम्हें सकुशल वापस लाना चाहते
थे। हाँ, तुम्हारी बहुओं के मन में यह आशंका अवश्य आई थी कि यदि घर-बार और कारोबार
सबकुछ बिक जाएगा, तो उनके बच्चों का भविष्य क्या होगा। तो, उनका अपने पति और बच्चों
के हित में, उनके भविष्य के लिए सोचना गलत कैसे हो सकता है? यह तो मानवीय स्वभाव है,
एक माँ और पत्नी का कर्तव्य। वैसे भी, अपहरण जैसे मामलों में धन के बदले परिजनों को
छुड़ाना अक्सर गलत ही होता है, क्योंकि इससे अपराध को और बढ़ावा मिलता है, बदमाशों के
हौसले बुलंद होते हैं। तुम्हारे परिवार ने पुलिस की सहायता लेकर उचित और समझदारी का
कार्य किया। जो झगड़ा हुआ, वह परिस्थितियों और गलतफहमी के कारण हुआ था, दिल में कोई
मैल नहीं था।"
ध्यानचंद देवदूत की बातें ध्यान
से सुन रहे थे। उन्हें अपनी सोच की संकीर्णता, अपनी गलतफहमियों और भावनाओं में बहकर
गलत निष्कर्ष निकालने का एहसास हो रहा था। उन्हें पश्चाताप हुआ। "आप ठीक कहते
हैं देवदूत। मैंने शायद भावनाओं में बहकर, डर और चिंता में गलत निष्कर्ष निकाल लिए
थे। मुझे अपने परिवार को समझना चाहिए था। लेकिन... लेकिन इस परीक्षा में मेरा सारा
घर बिखर गया है। सब अलग हो गए हैं। मैं अकेला इसे समेट नहीं पाऊँगा। कृपया आप इसे पहले
जैसा ही कर दीजिये। बस, मैं अपनी तपस्या के बदले यही चाहता हूँ। मेरा परिवार ही मेरी
असली दौलत है।" ध्यानचंद ने याचना भरे स्वर में, हाथ जोड़कर कहा।
देवदूत ने स्नेह से उनकी ओर
देखा, उनकी आँखों में दया थी। "यह सब तुम्हें वरदान में माँगने की आवश्यकता नहीं
है, ध्यानचंद। यह तो मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं तुम्हें तुम्हारी सामान्य स्थिति में
वापस लाऊँ। यह सब जो हुआ, वह तुम्हें एक सबक सिखाने के लिए था। मैं तुम्हारी इच्छा
पूरी करके वापस चला जाऊँगा और तुम भी बेफिक्र होकर आराम करना। सुबह जब तुम जागोगे,
तो सब कुछ ठीक पहले जैसा पाओगे, जैसे यह सब भयानक उथल-पुथल कभी हुआ ही न हो। तुम्हारे
परिवार के किसी सदस्य को इन पंद्रह दिनों की कोई भी बात याद नहीं रहेगी। अब तुम अपनी
तपस्या के बदले जो चाहो, वह माँगो। वह एक इच्छा तुम्हारी है।"
ध्यानचंद के चेहरे पर एक गहरी
शांति छा गई, एक संतुष्टि का भाव। उन्होंने हाथ जोड़ लिए, जैसे किसी मंदिर में खड़े हों।
"नहीं देवदूत। अब मुझे कुछ नहीं चाहिये। भगवान ने पहले ही मुझे बहुत कुछ दे रखा
है – एक अच्छा, प्यार करने वाला परिवार, समाज में इज़्ज़त, मन का संतोष। और जो ज्ञान
मुझे आपके कारण इन पंद्रह दिनों में मिला है, यह तो अनमोल है। यह किसी भी धन-दौलत से
बड़ा है। इससे बड़ा कोई वरदान नहीं हो सकता।"
"पक्का तुम्हें कुछ नहीं
चाहिये?" देवदूत ने एक बार फिर पूछा, उनकी आँखों में एक सूक्ष्म कौतुक और संतुष्टि
थी।
"जी नहीं। बिल्कुल नहीं,"
ध्यानचंद ने दृढ़ता से, बिना किसी लालच के कहा।
"तो ठीक है," देवदूत
ने कहा। "तुम्हारे जीवन से पिछले पन्द्रह दिन... हाँ, ठीक पन्द्रह दिन मैं निकाल
देता हूँ। इन पन्द्रह दिनों की घटनाएँ और यह उथल-पुथल किसी को भी याद नहीं रहेंगी,
जैसे यह सब कभी हुआ ही न हो। और हाँ, तुम्हारी इस निस्वार्थता और अच्छाई के बदले तुम्हें
कुछ मिलने वाला है, कुछ ऐसा जो तुम्हारे लिए और तुम्हारे परिवार के लिए हितकर होगा।
वह तुम जल्दी ही जान जाओगे।" देवदूत मुस्कुराए। "तो, मैं चलता हूँ ध्यानचंद।
और तुम भी अब आराम करो। बहुत थक गए हो।"
इतना कहकर देवदूत मंद प्रकाश में, धीरे-धीरे विलीन हो गए, जैसे कभी
थे ही नहीं, केवल उनकी आवाज़ और उनका संदेश हवा में गूँजता रहा। उनके जाते ही ध्यानचंद
को महसूस हुआ जैसे उनके शरीर से सारा बोझ, सारी पीड़ा और थकान एक झटके में गायब हो गई
हो। एक अजीब सी ताजगी और हल्कापन उन्हें महसूस हो रहा था, जैसे किसी लंबी, भयानक बीमारी
से उठे हों। वह धीरे-धीरे अपने कमरे में पहुँचे और बिस्तर पर लेट गए। कुछ ही देर में
वह गहरी, शांत नींद में थे, जैसे बरसों बाद उन्हें ऐसी चैन की नींद नसीब हुई हो। एक
नया दिन उनका इंतज़ार कर रहा था, जहाँ सब कुछ सामान्य होने वाला था, जैसे कोई बुरा सपना
टूट गया हो।
***
(अध्याय पंद्रह)
भोर की पहली, कोमल किरणें अभी
ठीक से खिली भी नहीं थीं, जब सेठ ध्यानचंद के भव्य बेडरूम की बड़ी खिड़की से छनकर आ रही
थीं, सुनहरे धागों सी लग रही थीं। तभी सेठ ध्यानचंद हड़बड़ाकर, जैसे किसी भयानक, डरावने
दुःस्वप्न से जागे हों, उठ बैठे। उनका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, इतनी तेज़ी से कि उन्हें
लगा जैसे अभी सीने से बाहर आ जाएगा, और माथे पर पसीने की बूँदें थीं, ठंडी और चिपचिपी।
वे भ्रमित थे, पूरी तरह से चकित थे। उन्होंने तुरंत पास रखे नाइट स्टैंड से अपना मोबाइल
उठाया और समय देखा – सुबह के ठीक सात बज चुके थे।
वह पूरी तरह चकित थे, भ्रमित
थे, उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था। उनके ज़हन में पिछली रात की धुंधली, डरावनी यादें
तैर रही थीं – अपनी पत्नी का बदला हुआ, गुस्से वाला रूप, बेटी अक्षरा का घर छोड़कर जाना,
बहुओं का अपमानित होकर आँसू बहाते हुए जाना, बेटों का क्रोध और निराशा। क्या वह सब
सच था? क्या वह सब सचमुच हुआ था? या केवल कोई भयावह सपना जो अभी-अभी टूटा हो, जिसने
उन्हें बिस्तर पर पसीने से तरबतर छोड़ दिया हो? उनका सिर ज़ोरों से चकरा रहा था। वह बिस्तर
से उतरे, उनके पैरों में अभी भी एक अनिश्चितता थी, जैसे किसी अज्ञात डर से काँप रहे
हों, और धीरे-धीरे, सावधानी से सीढ़ियों से नीचे की ओर चल दिए, हर आहट पर कान लगाए।
घर का माहौल शांत, सामान्य और
पवित्र लग रहा था। हवा में एक जानी-पहचानी शांति और पवित्रता घुली हुई थी। पूजा घर
से धूप और मंत्रोच्चार की हल्की, मधुर सुगंध आ रही थी, जो मन को सुकून दे रही थी। सावित्री
देवी, उनकी पत्नी, पूरी श्रद्धा और एकाग्रता से पूजा में लीन थीं, उनका चेहरा शांत
और सौम्य था, वैसा ही जैसा हमेशा रहता था, जिस पर उन्होंने कभी क्रोध नहीं देखा था।
सावित्री देवी को इस तरह शांत और सामान्य देखकर एक पल के लिए उन्हें असीम सुकून मिला,
जैसे डूबते को किनारा मिल गया हो, उनका दिल हल्का हो गया। तभी बड़ी बहू मंजरी रसोई घर
से निकली, उसके हाथ में सुबह की चाय का ट्रे था और चेहरे पर हमेशा की तरह वही मधुर,
स्नेहपूर्ण मुस्कान थी। सामने ध्यानचंद को अस्त-व्यस्त हालत में, पसीने से लथपथ और
परेशान देखकर वह मुस्कुराते हुए बोली, "पापा जी, आप अभी तक तैयार नहीं हुए? आपने
स्नान नहीं किया? सात बज गए हैं। आपको माँ जी ने बताया नहीं, कि आज दोपहर में मेहमान
आने वाले हैं हमारी अक्षरा को देखने के लिये?"
ध्यानचंद चौंक गए। अक्षरा को
देखने मेहमान? रिश्ता लेकर आने वाले हैं? यह तो उनके विचार से बिलकुल परे था।
"अच्छा," उन्होंने कहा, अपने विचारों को समेटने, खुद को सामान्य दिखाने की
कोशिश करते हुए, "हाँ, तुम्हारी माँजी ने धैर्य के बारे में तो बताया था, लेकिन
जहाँ तक मुझे याद है, रिश्ता माँगने के लिये तो हमें उनके घर जाना था। यह तय हुआ था।
फिर यह प्रोग्राम कैसे बदल गया? वे यहाँ क्यों आ रहे हैं?"
इसका उत्तर राघव ने दिया, जो
पहले से ही ड्राइंग रूम में बैठा आराम से अखबार पढ़ रहा था, चाय की चुस्की ले रहा था।
उसने मुस्कुराते हुए, उत्साह से कहा, "पापा, जब धैर्य ने अपने पापा को अक्षरा
के बारे में बताया और कहा कि वह उससे शादी करना चाहता है, तो उसके पापा बहुत खुश हुए।
उन्होंने कहा कि लड़की इतनी सुशील, गुणवान और संस्कारी है, ध्यानचंद जी की बेटी है,
तो वे खुद... हाँ खुद धैर्य के लिये अक्षरा का हाथ माँगने के लिये हमारे घर आयेंगे।
यह तो हमारे लिए और भी सम्मान की बात है। लगता है माँ ने आपको यह विस्तार से बताया
नहीं, बस थोड़ी जानकारी दी।"
सावित्री देवी भी तब तक पूजा
समाप्त करके उनके पास आ गईं। उनके चेहरे पर एक विशेष चमक थी, खुशी और संतोष की। उन्होंने
ध्यानचंद की ओर देखकर, स्नेह से मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ जी, मैंने तुम्हें कल
रात जान-बूझकर पूरी बात नहीं बताई। सोचा कि आज सुबह-सुबह दो खुशखबरी एक साथ दूँगी,
तो तुम्हारी खुशी दोगुनी हो जाएगी।"
"दो खुशखबरी?" ध्यानचंद
की आँखों में उत्सुकता, आश्चर्य और थोड़ी सी आशंका का भाव एक साथ उभरा। "दो खुशखबरी?
बताओ ना सावित्री, दूसरी क्या खुशखबरी है? अब तो मुझसे बिल्कुल इंतज़ार नहीं हो रहा।
जल्दी बताओ!"
सावित्री देवी ने स्नेह से मुस्कुराते
हुए ध्यानचंद का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, "तुम एक बार फिर बाबा बनने वाले
हो! हमारी छोटी बहू नेहा माँ बनने वाली है। खुशखबरी है ना?"
"अरे वाह! सच में! यह तो
बहुत अच्छी खबर है!" ध्यानचंद के चेहरे पर असीम प्रसन्नता छा गई, जैसे अँधेरा
छंट गया हो। उनकी आँखें खुशी से भर आईं, वे चमक उठीं। "दो-दो खुशखबरी एक साथ!
यह तो सचमुच बहुत शुभ है! भगवान, आप बड़े दयालु हैं! मेरे परिवार पर आपकी कृपा सदा बनी
रहे।" उन्होंने श्रद्धा से ऊपर की ओर हाथ जोड़कर कहा और फिर बोले, उत्साह से,
"मैं बस अभी तैयार होकर आता हूँ। आज का दिन तो सचमुच बहुत शुभ है। मेहमान आने
वाले हैं।"
ध्यानचंद सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपने
कमरे की ओर जा रहे थे, उनके कदमों में एक नई ऊर्जा थी, और उनके मन में एक ही विचार
घूम रहा था – तो क्या वह सब... हाँ, वह भयानक मंजर... वह पारिवारिक कलह... वह बिखराव...
महज़ एक सपना था? एक बहुत ही बुरा, भयानक सपना जो सुबह की पहली किरण के साथ टूट गया?
हाँ, यकीनन वह सपना ही रहा होगा। उनके दिल से एक बड़ा बोझ उतर गया था, जैसे कोई भारी
पत्थर हटा दिया गया हो।
"बड़ा बुरा सपना था भाई," उनके मुख से अनायास ही, एक राहत
भरी फुसफुसाहट में निकला। और वह एक नई ऊर्जा, शांति और संतोष के साथ अपने कमरे में
प्रवेश कर गये, आने वाले खुशियों भरे दिन की तैयारी करने के लिए। उन्हें एहसास हुआ
कि उनका परिवार सुरक्षित है, खुश है, और शायद उन्हें एक बहुत बड़ी सीख मिल गई थी।
सम्पूर्ण।
अद्भुत।
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